Wednesday, December 18, 2013

पातल व पीथल

कन्हैया लाल सेठीया  कि कविता -राणा प्रताप के मानवोचित कमजोरी व कर्त्तव्य का भान होने पर क्षत्रियोचित प्रतिरोध इस कविता कि भाव भूमि है। इतिहास कार इस घटना कि सत्यता को संदेहास्पद मानते है किन्तु घटना पूरी तरह से घटित नही हुई ऐसा भी नही है। क्यों कि तत्सामयक बीकानेर के महाराज कुमार  प्रथ्वीराज राठोड के दोहे व राणा प्रताप का उसके  जवाब के दोहे इस घटना कि तरफ इंगित करते हैं। शायद राणा प्रताप ने कोई पत्र न लिखा हो किन्तु मानसिक दवाब बनाने के लिए अकबर ने ऐसा प्रचारित किया हो। पृथ्वीराज जी जैसे राष्ट्र भक्त को यह चुनौती लगी व उन्होंने महाराणा से इसका खुलासा चाहा ,जिस पर महाराणा ने कहा कि मैंने कभी अकबर को बादशाह माना ही नही है।
   
पीथल :- पटकूं मूंछा पाण ,कै पटकूं निज  तन करद।
             लिख दीजे दिवाण ,इण दो महली बात  एक।
              पातल जो पतशाह ,बोले मुख हूंता बयण।
               मिहर पिछम दिस मांह, उगे कासप राव उत।

भावार्थ :-महाराणा अपने आप को दीवान मानते है यानि मेवाड़ का शासन तो एकलिंग जी का है और मेवाड़ के महाराणा उसके दीवान हैं। पृथ्वीराज जी ने लिखा कि हम गर्व से  मूंछो पर हाथ  दे या लज्जा से आत्मघात करले  इन दोनों बातों में से इक बात लिख देना हे दीवान। दूसरे दोहे का अभिप्राय था कि आप का अधीनता स्वीकार करना तो सूर्ये के पश्चिम में उगने के समान है।

 राणा परताप ने जो जवाब पृथ्वीराज जी को लिख भेजा वो देखने लायक है।

तुरक कहासी मुख पतो ,इण तन सूं एकलिंग।
ऊगे  जाँहि   ऊगसी  , प्राची  बिच  पतंग।।
खुशी हूंत पीथल कमध , पटको मूंछा पाण।
पछटण है जैते पतो ,कलमां सिर केवाण।।

भावार्थ :- मेरे मुंह से तुर्क ही कहलायेगा ,बादशाह नही। सूर्य पूर्व में ही उदित होगा। हे राठोड (कमध ) पृथ्वीराज अपनी मूंछो पर ताव देते रहो ,जब तक मैं जिन्दा हूँ मेरी तलवार इन विधर्मियो के सर पर गिरती रहेगी।

                            पातल व पीथल 

अरे घास री रोटी ही जद बन बिलावड़ो ले भाग्यो।

नान्हो सो अमर्यो चीख पड्यो राणा रो सोयो दुख जाग्यो।

हूं लड्यो घणो हूं सह्यो घणो मेवाड़ी मान बचावण नै,

हूं पाछ नहीं राखी रण में बैर्यां री खात खिडावण में,

जद याद करूँ हळदीघाटी नैणां में रगत उतर आवै,

सुख दुख रो साथी चेतकड़ो सूती सी हूक जगा ज्यावै,

पण आज बिलखतो देखूं हूँ जद राज कंवर नै रोटी नै,

तो क्षात्र-धरम नै भूलूं हूँ भूलूं हिंदवाणी चोटी नै

मैं’लां में छप्पन भोग जका मनवार बिनां करता कोनी,

सोनै री थाल्यां नीलम रै बाजोट बिनां धरता कोनी,

अै हाय जका करता पगल्या फूलां री कंवळी सेजां पर,

बै आज रुळै भूखा तिसिया हिंदवाणै सूरज रा टाबर,

आ सोच हुई दो टूक तड़क राणा री भीम बजर छाती,

आंख्यां में आंसू भर बोल्या मैं लिखस्यूं अकबर नै पाती,

पण लिखूं कियां जद देखै है आडावळ ऊंचो हियो लियां,

चितौड़ खड्यो है मगरां में विकराळ भूत सी लियां छियां,

मैं झुकूं कियां ? है आण मनैं कुळ रा केसरिया बानां री,

मैं बुझूं कियां ? हूं सेस लपट आजादी रै परवानां री,

पण फेर अमर री सुण बुसक्यां राणा रो हिवड़ो भर आयो,

मैं मानूं हूँ दिल्लीस तनैं समराट् सनेशो कैवायो।

राणा रो कागद बांच हुयो अकबर रो’ सपनूं सो सांचो,

पण नैण कर्यो बिसवास नहीं जद बांच नै फिर बांच्यो,

कै आज हिंमाळो पिघळ बह्यो कै आज हुयो सूरज सीतळ

कै आज सेस रो सिर डोल्यो आ सोच हुयो समराट् विकळ,

बस दूत इसारो पा भाज्यो पीथळ नै तुरत बुलावण नै,

किरणां रो पीथळ आ पूग्यो ओ सांचो भरम मिटावण नै,

बीं वीर बांकुड़ै पीथळ नै रजपूती गौरव भारी हो,

बो क्षात्र धरम रो नेमी हो राणा रो प्रेम पुजारी हो,

बैर्यां रै मन रो कांटो हो बीकाणूँ पूत खरारो हो,

राठौड़ रणां में रातो हो बस सागी तेज दुधारो हो,

आ बात पातस्या जाणै हो घावां पर लूण लगावण नै,

पीथळ नै तुरत बुलायो हो राणा री हार बंचावण नै,

म्है बाँध लियो है पीथळ सुण पिंजरै में जंगळी शेर पकड़,

ओ देख हाथ रो कागद है तूं देखां फिरसी कियां अकड़ ?

मर डूब चळू भर पाणी में बस झूठा गाल बजावै हो,

पण टूट गयो बीं राणा रो तूं भाट बण्यो बिड़दावै हो,

मैं आज पातस्या धरती रो मेवाड़ी पाग पगां में है,

अब बता मनै किण रजवट रै रजपती खून रगां में है ?

जंद पीथळ कागद ले देखी राणा री सागी सैनाणी,

नीचै स्यूं धरती खसक गई आंख्यां में आयो भर पाणी,

पण फेर कही ततकाळ संभळ आ बात सफा ही झूठी है,

राणा री पाघ सदा ऊँची राणा री आण अटूटी है।

ल्यो हुकम हुवै तो लिख पूछूं राणा नै कागद रै खातर,

लै पूछ भलांई पीथळ तूं आ बात सही बोल्यो अकबर,

म्हे आज सुणी है नाहरियो स्याळां रै सागै सोवै लो,

म्हे आज सुणी है सूरजड़ो बादळ री ओटां खोवैलो;

म्हे आज सुणी है चातगड़ो धरती रो पाणी पीवै लो,

म्हे आज सुणी है हाथीड़ो कूकर री जूणां जीवै लो

म्हे आज सुणी है थकां खसम अब रांड हुवैली रजपूती,

म्हे आज सुणी है म्यानां में तरवार रवैली अब सूती,

तो म्हांरो हिवड़ो कांपै है मूंछ्यां री मोड़ मरोड़ गई,

पीथळ नै राणा लिख भेज्यो आ बात कठै तक गिणां सही ?

पीथळ रा आखर पढ़तां ही राणा री आँख्यां लाल हुई,

धिक्कार मनै हूँ कायर हूँ नाहर री एक दकाल हुई,

हूँ भूख मरूं हूँ प्यास मरूं मेवाड़ धरा आजाद रवै हूँ

घोर उजाड़ां में भटकूं पण मन में मां री याद रवै,

हूँ रजपूतण रो जायो हूं रजपूती करज चुकाऊंला,

ओ सीस पड़ै पण पाघ नही दिल्ली रो मान झुकाऊंला,

पीथळ के खिमता बादल री जो रोकै सूर उगाळी नै,

सिंघां री हाथळ सह लेवै बा कूख मिली कद स्याळी नै?

धरती रो पाणी पिवै इसी चातग री चूंच बणी कोनी,

कूकर री जूणां जिवै इसी हाथी री बात सुणी कोनी,

आं हाथां में तलवार थकां कुण रांड़ कवै है रजपूती ?

म्यानां रै बदळै बैर्यां री छात्याँ में रैवैली सूती,

मेवाड़ धधकतो अंगारो आंध्यां में चमचम चमकै लो,

कड़खै री उठती तानां पर पग पग पर खांडो खड़कैलो,

राखो थे मूंछ्याँ ऐंठ्योड़ी लोही री नदी बहा द्यूंला,

हूँ अथक लडूंला अकबर स्यूँ उजड्यो मेवाड़ बसा द्यूंला,

जद राणा रो संदेश गयो पीथळ री छाती दूणी ही,

हिंदवाणों सूरज चमकै हो अकबर री दुनियां सूनी ही।


उपरोक्त प्रसंग के बारे में पृथ्वीराज जी व उनकी पत्नी भटयानी जी के बीच जो सवांद हुआ वह भी काफी रोचक व महत्व पूर्ण है। जब भटियाणी जी चम्पादे को यह मालुम पड़ा कि उनके पति व बादशाह में विवाद हुआ है ,तो उन्होंने एक दोहा लिख कर उनको भेजा -

पति जिद कि पातशाह सूं ,येम सुणी मई आज।
कंह अकबर पातल कंह ,कीधो बड़ो अकाज।।

राणी भटियाणी को आश्वस्त करते हुए कवी ह्रदय पृथवीराज ने कहा :-

 जब ते सुने हैं बैन तबत्ते न मोको चैन।
पाती पढ़ नेक वो विलम्ब न लगावेगो।।
लेके जमदूत से समस्त रजपूत आज।
आगरा में आठों याम ऊधम मचावेगो।।
कहे पृथ्वीराज प्रिया नेक ऊर धीर धरो।
चरंजीवी राणाश्री मलेच्छन भगावेगो।।
मन को मरद मानी परबल्ल प्रतापसी।
बब्बर ज्यों तड़फ अकबर पे आवेगो।।



Sunday, October 13, 2013

"शुरू में मुझे राजस्थानी साहित्य से ही लिखने की प्रेरणा मिली। इस साहित्य को पढ़ा ,सुना और समझा तब तो यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि इस साहित्य में तो राजस्थान का इतिहास गुंफित है।  साहित्य को पढ़े बिना राजस्थान का इतिहास जाना ही नही जा सकता। जो एतिहासिक घटनाओं व तथ्यों का वर्णन इन रचनाओं के द्वारा प्रकाश में आता है ,वह प्रमाणिक कहे जाने वाले इतिहास ग्रंथो में भी प्राप्त नही होता। इसी कारण मैं शनै: शनै: इतिहास की तरफ उन्मुख हुआ। साहित्य में मुझे इतिहास के दर्शन हुये ,फिर तो मैंने इतिहास के लेखन में इन काव्य रचनाओं उद्धरण भी प्रमाणों के रूप में उधृत करने चालू किये जिनसे इतिहास ग्रंथो में सरसता आई ,प्रमाणिकता बढ़ी ,पढने वालों में रूचि की बढ़ोतरी हुयी। इतिहास ग्रंथो के लेखन में रही कमियों को इन काव्य रचनाओं ने पूर्ण किया। सामान्य स्तर के वीरों के इति वृतों के विषय में इतिहास ग्रन्थ मोन थे। किन्तु इन रचनाओं से वे सामान्य वीर अमर  हुए।"
                            (सुरजन सिंह शेखावत - सुरजन सुजस  पृष्ट 21 )

 "आध्यत्म चिन्तन मेरे मन का प्रिय एवं उसको (मन को ) पोषण देने वाला  विषय है। इससे विलग रहकर कुछ सोचना मेरे मेरे लिए आत्मतोष का विषय नही हो सकता। आनन्दाभुती के लिए यही चिन्तन मेरा आधार है ,भाव धरातल है तथा काव्य सृजन हेतु दिव्य मंच है।
                            (सुरजन सिंह शेखावत - सुरजन सुजस  पृष्ट 22 )


डॉ.शम्भू सिंह जी मनोहर ने अपनी पुस्तक अचलदास खिंची री  वचनिका -गाडण सिवदास री कही -ग्रन्थ के मुख पृष्ठ पर अंकित भावोद्गार -
"अतीत की अनमोल संपदा को प्रलोकित करने हेतु जो स्वयम दीप शिखा से तिलतिल विसर्जित होते रहे हैं ,इतिहास के महार्णव का मंथन कर अलभ्य ग्रन्थ रत्नों से जिन्होंने शारदा का चरणार्चंन किया है , उन्ही क्षत्रिय कुल के रत्न श्रीमान ठा.सा.सुरजन सिंह शेखावत झाझड़ को ,उनके दीर्घायुष्य की अनंत मंगल कामना के साथ सादर समर्पित। "

Friday, October 11, 2013

अतीत को खोजता एक वर्तमान -सुरजन सिंह शेखावत का इतिहास ज्ञान

अतीत को खोजता एक वर्तमान -सुरजन सिंह शेखावत का इतिहास ज्ञान 
( तारादत्त 'निर्विरोध ' की पुस्तक शेखावाटी व्यक्ति वैशिष्ट्य से-  यह पुस्तक 1985 में प्रकाशित हुई थी )

शेखावाटी इतिहास के यशस्वी लेखक  सुरजन सिंह जी शेखावत राजस्थानी साहित्य ,लोक जीवन एवं इतिहास
के अध्यता विद्वान और अन्वेषी हैं। 'राव शेखा ' ,मांडण का युद्ध 'एवं 'नवलगढ़ का इतिहास 'उनकी शोधात्मक

प्रकाशित कृतियाँ हैं जिनके लेखन में उनकी इतिहास की समझ रही है। वे ऐसे तथ्यों को उजागर करने के

प्रयास में हैं जिनके आभाव में  इतिहास अभी भी आधे अधूरे हैं। आज तक शेखावाटी के जो इतिहास सामने

आये हैं उनमे कुछ मुस्लिम और कुछ राजपूत शासकों के के हालातों पर आधारित हैं। इस से पूर्व का इतिहास

अभी तक स्पष्ट रूप से सामने नही आया है।

      सुरजन सिंह शेखावत का कहना है कि यदि इस दिशा में गहरे पानी पैठा जाये तो अनेक महत्वपूर्ण और

इतिहास गत तथ्य तलाशे जा सकते हैं। उन्होंने शेखावाटी का इतिहास पाणिनि काल से प्रारम्भ किया है और

इस कार्य में उन्हें सफलता भी मिली है। इतिहास ने उन्हें अत्यधिक अनुप्राणित किया है और वीर पूर्वजों की

शोर्य गाथाये ,ख्याते व वीरतापूर्ण बातें उनके लेखन की प्रेरणा स्त्रोत रही  हैं।

          उन्होंने पन्द्रह  वर्ष की अल्प आयु में टाड़ के इतिहास का हिंदी अनुवाद पढ़ा था और तभी से अतीत को

जानने के लिए वे अध्ययन रत रहे और जो ज्ञान अर्जित किया उसे लिखा भी। स्वाधीनता संग्राम के सेनानी

एवं देशभक्त राव गोपाल सिंह जी खरवा के सानिध्य में रहते हुए उन्होंने शताधिक प्रमाणिक इतिहास ग्रंथो

को आद्यांत पढ़ा और इस तरह उनका इतिहास ज्ञान बहुगुणित होता चला गया और उसी ज्ञान ने उन्हें

शेखावाटी का इतिहासज्ञ बनाया।

            शेखावत ने सन 1940 ई. से ही इतिहास विषयक शोधपूर्ण आलेख लिखे जो राजस्थान से प्रकाशित

'मरुभारती ' , क्षात्र धर्म ' ,'क्षत्रिय गोरव ', 'संघ शक्ति ' ,एवं 'मीरां '  पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। उन्होंने

इतिहास व उस से सम्बन्ध   डिंगल साहित्य पर भी अनेक आलेख लिखे ,किन्तु उन वर्षों में 'खरवा संस्थान '

के शासकीय प्रबंध में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण वे साहित्य की मनोवांछित सेवा नही कर सके।

           सेवा निवृति के बाद जब वे अपने झाझड़ (शेखावाटी ) ग्राम लौटे तो उनके साथ एतिहासिक सन्दर्भ ,

वीरता पूर्ण प्रसंग , इतिहासगत अनुमान और इतिहास के अध्ययन -अवगाहन सभी तो साथ थे ,और जब

लेखन का क्रम बना तो अस्वस्थता के बावजूद आज भी वे नियमित रूप से इतिहास लिख रहे हैं।

          23 दिसम्बर 1910 ई. को झाझड़ ग्राम में जन्मे सुरजन सिंह शेखावत ने 1930 ई. में अंग्रेजी में मेट्रिक

की परिक्षा उतीर्ण की थी और बाद में इलाहबाद से हिंदी में व काशी विश्व विध्यालय से संस्कृत में प्रथमा की

उपाधियाँ प्राप्त की।  झाझड के अलावा उनका दूसरा घर खरवा रहा जहाँ उन्होंने इतिहास को जीवन से अधिक

जीया। मरुभारती सम्पादक स्व. कन्हैया लाल सहल एवं क्षात्र धर्म  सम्पादक स्व. ठाकुर नारायण सिंह ने उन्हें

 लिखने के लिए प्रेरित -प्रोत्साहित  भी किया और प्रशंसित भी।  उन्होंने लेख भी लिखे और डिंगल में

कविताये भी लिखी।

       कहने लगे "शेखावाटी के इतिहास का विषय चाहे एक हो ,किन्तु यहाँ के सही तथ्यों की जानकारी प्राप्त

करने के लिए अभी तक किसी भी विद्वान ने इस क्षेत्र के पुराकालीन विस्मृत तथ्यों का गहन अध्ययन और

उस पर चिन्तन -मनन नही किया है। जो कुछ लिखा गया है वह उपरी सतह पर ही लिखा गया है। शेखावाटी

पर मेरा कार्य अनेक वर्षों के अध्ययन ,मनन ,चिन्तन और सत्य के निकट पहुंचने के प्रयासों की परिणिति

है। मेरी स्थिति यह रही कि जब कोई उलझन हुई तो मैंने लिखना बंद कर दिया और जब आधार या अनुमान

से किसी निष्कर्ष तक पहुंचा ,तभी लेखन प्रारम्भ किया। "

              यह सत्य है कि शेखावाटी प्रदेश के इतिहास पर कार्य तो किया गया ,किन्तु इसका प्राचीन इतिहास

नही मिल पा रहा।  जो आधुनिक काल में शेखावाटी अंचल के रूप में है उसको प्राचीन काल में कई नामो से

जाना गया है और ढाई हजार वर्षो में यहाँ कई शासक आये और इतिहास नया रूख बदलता रहा। यह क्षेत्र

अनेक परगनों और प्रान्तों वाला क्षेत्र है जिसका इतिहास अनेक पर्तों में दबा पडा है। प्राचीन काल के प्रमाण

भी उपलब्ध नही होते ,सामग्री का भी अभाव है और जो अनुमानों के आधार पर लिखा जाता है उसके सन -

संवतों में भटकाव ही है।

       उन्होंने बताया -"हमारे पुरातत्व मर्मज्ञ विद्वानों ने प्राचीन काल से सम्बन्धित जो सामग्री शिलालेखों

एवं प्राचीन ग्रंथो के अध्ययन के फलस्वरूप संकलित की है उसी के आधार पर अनुमानों के साथ शेखावाटी के

पुराकालीन इतिहास की अस्पष्ट सी रूप रेखा प्रस्तुत करना ही मेरा प्रयास है।

        " मेरा मानना है कि शेखावाटी का इतिहास ढाई हजार वर्षों से प्रकाश में आता है और तब शेखावाटी दो

जनपदों में विभक्त थी।  एक जांगल व दुसरा मत्स्य। पहला प्रान्त जांगल झुंझुनू व सीकर जिलों को अपने

पूर्वोतरी अंचल में रखे हुए  पश्चिम तथा उतर में दूर तक फैला  हुआ था -जहाँ शाल्व कबीले राज्य करते थे

कुछ विद्वान शाल्वों को इरानी कहते है ,किन्तु मैं उन्हें पंजाब के स्यालकोट प्रान्त से आये हुए गणतंत्रीय

क्षत्रिय मानता हूँ। मत्स्य प्रान्त में अमरसर ,शाहपुरा ,मनोहरपुर आदि क्षेत्र भी सम्मिलित थे।

         गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त तक वह प्रदेश मत्स्य राज्य के नाम से जाना जाता था। गुप्त साम्राज्य के पतन

काल में यहाँ हूणों के आक्रमण हुए - फिर गुजर आये जिनकी एक शाखा बडगुजर के नाम से प्रसिद्ध हुई।

हर्षवरधन के काल में यहाँ गुजरों का भी एक स्वतंत्र राज्य था। एक अंतराल के बाद कछवाहो ने बडगुजरों

व मीणों से यह प्रदेश छीन लिया तब उन्ही की एक शाखा शेखावतों ने अमरसर के आस-पास के भूभाग को

वहां के छोट- छोटे शासक घरानों से जीत कर शेखावतों का प्रथम उपनिवेश बनाया जो नाण अमरसर के

शेखावत राज्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उधर शाल्वों को यौधेयों ने पराजित किया और कुछ वर्ष नरहड़ व

झुंझुनू पर यौधेयों का आधिपत्य रहा। इसके बाद गुर्जरों ,डाहलियो एवं चोहानो  (जोड़ चौहान ) और फिर

उन्ही की एक शाखा कायमखानी -चौहानों एवं नागड पठानों का राज्य रहा और बाद में यह क्षेत्र भी शेखावतों

के अधीन रहा। "

        उनका कहना था कि राज्य किसी का भी हो , जिनका इतिहास है वे कौमे मिट नही सकती। वे टूटी -फूटी

गढ़ियाँ पहाड़ियों पर खड़ी हैं ,कभी हुंकार उठेंगी। गर्व तो सतियों -सूरमाओं के चबूतरों को देख कर होता है।

इतिहास की अनिवार्यता से नकारा नही जा सकता और जिसका कोई इतिहास नही उसका कोई भविष्य भी

नही। इतिहास तो अतीत से वर्तमान को जोड़ने वाली पगडंडी है ,दिशा है ,नई पीढ़ीयों  के लिए प्रेरक सन्देश है।

          सुरजन सिंह शेखावत पढ़ते या सोते समय अतीत में जीते हैं -कभी सन -संवतों के पास ,कभी कड़ी से

कड़ी को जोड़ते हुए प्रसंग और सन्दर्भ के बीच के रूप पहचानते हुए। उनका यह शोध -क्रम  निरंतर बना है

और वे लिखते हैं तो इतिहास का वह युग ,वह शासन और सम्बन्धित परिस्थितियां -तिथियाँ उनके मानस

पर रेखांकित रहती है ,जैसे वे इतिहास को फिल्मा रहे हों किसी शक्ल के साथ।






       







  

Monday, September 30, 2013

सर प्रतापसिंह तखतेश -पुत्र की सहनशक्ति



सर प्रताप सिंह जोधपुर के महाराजा तख्त सिंह के छोटे बेटे थे ,पर

जोधपुर में पहले कचहडियां व सचिवालय गुलाबसागर तालाब पर राजमहल में थी। एक बार तालाब भरा नही। खाली तालाब देख कर सर प्रताप बोले 'तालाब क्यों नही भरा अबकी बार '  तो उनके चहते व स्पष्ट वक्ता बारहठ भोपाल दान जी ने कहा :

कने आं रै कचेडियाँ  , तीण सूं खाली तलाव !
का डेरा कागा करो , का भेजो भांडेलाव !!

कचेडीयों( यानि सचिवालीय या कोर्ट ) इस तालाब के पास होने से यह हालत है क्यों की यहाँ न्याय नही अन्याय होता है।सो इन को कागा या भांडेलाव में शिफ्ट करदो (दोनों ही शमशान थे ) जिस से अफसरों को अपना अंतिम स्थान पता रहे।

गुसे में कही गयी बात उपयुक्त नही थी सो उन्होंने  दूसरा दोहा कहा -

बाडो बड़ो घिरावदो , दरवाजा सूं दूर  !
करवाओ उठे कचेडियां, शहर सवायो नूर

           जीवन कर्म सहज भीषण है ,
            उसका सब सुख केवल क्षण है,
             यधपि लक्ष्य अदृश्य धूमिल है ,
             फिर भी वीर ह्रदय  ! हलचल है।
             अंधकार को चीर अभय हो ,
              बढ़ो साहसी ! जग विजयी हो।

                          ( स्वामी विवेकानन्द )

Sunday, September 29, 2013

मुगलों के समय रियासतों के प्रतिनिधि आगरे में रहते थे जिन्हें वकील कहा जाता था ,इन का काम आज के राजदूतो जैसा था। ये लोग अपने राजा व मंत्री को दरबार की गतिविधियों के बारे में सूचित करते रहते थे। 
एक पत्र प्रकाल दास का कल्याण दास को शुक्रवार 23 फरवरी 1666 ई. का -
"शाहजहाँ की मोत इस तरह हुई। पहले वे बीमार हुये ,फिर ठीक हो रहे थे उसने फरमाया 'अब हम नहायेंगे 'और कहा कि ओरंगजेब को लिखो कि तबियत बिगड़ी हुई है। ओरंगजेब ने एक ऐसा हकीम भेजा ,उसने शाहजहाँ  को अर्ज पहुंचाई कि बिना तेल मत नहाना ,भेजे हुए तेल की पहले मालिश करना ,जिस से शरीर में ताकत आये ,उस ने तेल बना कर सुबह भेजा ,उस तेल को लगते ही बादशाह के शरीर की त्वचा फट गयी ,उसमे जहर मिला था। 
बादशाह के पास ओरंगजेब ने अपने बेटे आजम को भेजा था ,वह एक दिन ठहरा ,मृत्यु काल के समय भी वह बादशाह के पास नही आया। खोजे फुम यहाँ था ,यह नाजर था व आगरे का किलादर था। उसने रात में मोरी दरवाजे सेअपमानित अवस्था में जनाजा निकाला।  उमरावो ने कंधा नही दिया और कहारों के कन्धो पर ताबूत देकर बाड़े में लाकर रखा और ताजमहल के मकबरे में गाडा।  

Thursday, September 26, 2013

इतिहास के बारे में क्यों जाने ?

बहुत से व्यक्तियों की यह धारणा है ,की इतिहास के अध्ययन से हमे क्या लाभ ? अतीत में जो हुआ वह बीत गया उसे पढना समय का दुरुपयोग है। कुछ लोग कहते है हुए होंगे पूर्वज ऐसे पर आज के सन्दर्भ में इस का क्या उपयोग? आर्थिक युग है सो समय पैसे कमाने में लगाओ। अत: यह विचारणीय बिंदु है कि इतिहास के अध्ययन व मनन से कोई लाभ है या नही।

इतिहास के अध्ययन से हमे ज्ञात होता है कि हमारे पूर्वजो ने क्या -क्या महान कार्य किये ,वे इतने महान कैसे हुए और उनकी इस महानता का रहस्य क्या था। इस से यह चेतना उत्पन होती है की फिर उन के पद चिन्हों पर चल कर मैं क्यों न प्रभावशाली व महान बनने का प्रयत्न करूं।

रामायण ,महाभारत ,गीता आदि सभी ग्रन्थ भी इतिहास ही तो हैं। महान विद्वानों की जीवनिया भी इतिहासिक ग्रन्थ ही हैं , जिन से हम प्रेरणा लेने की बात करते हैं। भगवान महावीर और चोबिसों तीर्थंकरों की जीवनी व उपदेश ,भगवान बुद्ध की जीवनी व उनके भ्रमण स्थल व उपदेश ,सिख गुरुओं की वाणी उनके कार्यकलाप ,उनके बलिदान इतिहास के अंग ही तो हैं।

इसीलिए जब व्यक्ति को अपने कुल गोरव व वंश परम्परा का ज्ञान होता है तो वह घृणित कार्य करने से पहले ,कोई भी ओछी हरकत करने से पहले सोचेगा जरुर। उसकी आत्मा उसको गलत काम ,मर्यादा विहित आचरण की आज्ञा नही देगी। ऐसे अनेक उधाहर्ण हैं जब देश व धर्म के लिए प्राण उत्सर्ग करने का समय आया तो इसी इतिहास के ज्ञान व वंश के गोरव ने आसन्न मृत्यु के समय भी रण विमुख नही होने दिया।

लार्ड मैकाले का कहना था " जिस जाती को गिरना हो या मिटाना हो उसका इतिहास नष्ट कर दो,वह जाती स्वयम ही मिट जायेगी। " यह ठीक भी है, जिस जाती या व्यक्ति को अपने पूर्वजो के इतिहास का भान व गर्व नही होता वे निचे गिरने से कैसे बच सकते है। शक ,सीथियन व हूण इस देश में आये पर उन्हें अपने पूर्व पुरषों का ज्ञान खत्म हो गया और आज उनका कोई नामो निशान भी बाकी नही है। दूर क्यों जाये ,आमेर पर मीणो का अधिकार था।  कछवाहो ने मीणों को  सत्ता च्युत कर आमेर पर कब्ज़ा कर लिया। उसके बाद उन्हें अपने शासक होने का बोध खत्म हो गया व आज वे अनुसूचित जन जाती में शामिल हो गये।

ठा. सुरजन सिंह जी झाझड ने अपनी पुस्तक "राव शेखा " की प्रस्तावना में लिखा है -"इतिहास इस सत्य का साक्षि है कि गिरकर पुन: उठने वाली जातियों व राष्ट्रों ने सदैव अपने अतीत से  चेतना व प्रेरणा ग्रहण की है। जिस जाति और राष्ट्र का अतीत महान है ,उसका भविष्य महान होने की कल्पना आसानी से की जा सकती
है। राष्ट्र के अतीत की झांकी उसके इतिहास में मिलती है। इतिहास के माध्यम से वर्तमान पीढ़ी अपने पूर्वजों के महान कार्यों का मुल्यांकन कर सकता है। जिस जाति अथवा राष्ट्र के पास अपना इतिहास नही ,वः दरिद्र है या यों कहिये कि उसके पास अपने पूर्वजों की संचित निधि नही है। उसके लिए अपनी सभ्यता ,संस्कृति और पूर्वजों पर अभिमान करने के लिए कोई आधार नही। अत: राष्ट्रिय जन जीवन में इतिहास की अनिवार्यता शाश्वत सत्य के रूप में विद्यमान है एवं रहेगी। "

इसी पुस्तक की समीक्षा करते हुए डा.कन्हैया लाल जी सहल ने लिखा - "स्मरण शक्ति खो जाने पर जो हालत किसी व्यक्ति की होती है ,वही  हालत उस राष्ट्र की होती है ,जिसके पास अपना इतिहास नही। मेरी दृष्टी में किसी देश की स्मरण शक्ति का नाम ही इतिहास है। शेखाजी का इतिहास शेखावाटी की स्मरण शक्ति का ही नाम है। "

स्वामी विवेकानंद जी ने 23 जून 1894 ई. को शिकागो से एक पत्र राजा अजीत सिंह जी खेतड़ी को लिखा उसमे इतिहास की अनिवार्यता व महत्व को उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त किया है -" जिस दिन भारत संतान अपने अतीत की कीर्ति कथा को भुला देगी ,उसी दिन उसकी उन्नति का मार्ग बंद हो जायेगा। पूर्वजों के अतीत पूण्य कर्म आने वाली संतान को सुकर्म की शिक्षा देने के लिए अत्यंत सुंदर उद्धाह्र्ण है। जो चला गया वही  भविष्य में आगे आवेगा। " 




Wednesday, September 25, 2013

चेतावनी के चूंटक्या -रचना की एतिहासिक पृष्ठ भूमि

सन 1903 ई में वायसराय लार्ड कर्जन द्वारा आयोजित दिल्ली दरबार में मेवाड़ महाराणा फतह सिंह को सम्मिलित होने से रोकने के लिए प्रसिद्ध क्रन्तिकारी बारहठ केशरी सिंह ने उन्हें सम्बोधित कर 'चेतावनी रा चूंगट्या ' नामक कुछ उद्बोधक सोरठे लिखे जिसके फलस्वरूप महाराणा फतह सिंह दिल्ली जाकर भी दरबार में शामिल हुए बिना उदयपुर लोट गये। महाराणा के इस अप्रत्याशित आचरण ने अंग्रेज हुक्मरानों में एक सनसनी तथा देश भक्त स्वाधीनता सेनानियों में राष्ट्रीयता की एक नई लहर पैदा कर दी थी। उक्त घटना से प्रायः सभी साहित्य एवम इतिहास प्रेमी पाठक परचित है, परन्तु बारठ केसरी सिंह को इन सोरठों के सृजन की प्रेरणा किससे व कैसे मिली ,यह इतिहास का एक अज्ञात नही ,तो अल्पज्ञात रहस्य है ,जिसकी हमारे स्वाधीनता आन्दोलन के सन्दर्भ में प्रमाणिक जानकारी वांछनीय है। इस को लिखने की प्रेरणा राजस्थान के एक कट्टर देशभक्त और स्वाभिमानी नरेश सहित कुछ प्रबुद्ध व राष्ट्रिय विचारधारा के पोषक सामन्तो ने दी थी।
कैसी विडम्बना है कि उस महत्वपूर्ण राजनैतिक घटना के असली सूत्रधार और मंत्रदाता इतिहास के नेपथ्य में छिपे पड़े है और हमे केवल रचियता कवी के नाम का ही स्मरण रह गया है।

कौन थे उक्त घटना के सूत्रधार  जिन्होंने महाराणा को दिल्ली दरबार में शामिल होने से विरत करने की योजना बनाई ? वे थे कट्टर देशभक्त और महास्वभिमानी अलवर नरेश जय सिंह ,जिनकी प्रेरणा से ही बारहठ केशरी सिंह ने उक्त उद्बोधक सोराठो की रचना की।

विदित हो कि नवयुवक महाराजा जयसिंह अलवर ,राष्ट्रभाषा हिंदी के अनन्य संरक्षक एवं परम देश भक्त नरेश थे। अंग्रेजी राज के कट्टर विरोधी थे किन्तु परिस्थितिवश उसका सक्रीय प्रतिरोध नही कर पा रहे थे। उनकी इस ब्रिटश विरोधी नीति के कारण अंग्रेजी हकुमत उनसे खार खाए बैठी थी ,जिसकी परणीती अंतत  उनके राज्य निष्कासन के दंड में हुई,जिसके चलते वे अलवर छोड़ कर पेरिस चले गये ,वंही उन की मृत्यु हुयी।

उक्त अलवर नरेश ने जयसिंह ने जब सुना कि मेवाड़ के महाराणा दिल्ली दरबार में सम्मिलित होने के लिए सहमत हो गये है तो उन के मन को बहुत ठेस पंहुची। 'हिन्दुवा सूरज 'का विरुद धारण करने वाले तथा स्वतंत्रता के लिए आजीवन संघर्ष करने वाले राणा प्रताप के वंशधर के लिए यह बात उन्हें सर्वथा अशोभनिये व मर्यादा विरुद्ध प्रतीत हुई।  फलत: उन्होंने अपने परम विश्वस्त एवं योग्य मंत्री कानोता के ठाकुर नारायण सिंह चंपावत को जयपुर भेजा ताकि वे कोटा से बारहठ केसरी सिंह को बुलाये तथा जयपुर के कुछ वरिष्ठ एवं राष्ट्रिय विचार धारा के सरदारो से सम्पर्क कर महाराणा को दिल्ली दरबार में जाने से रोकने का हर सम्भव उपाय करें।

इसके बाद केसरी सिंह के जयपुर आने पर ठाकुर भुर सिंह मलसीसर के स्टेशन रोड स्थित डेरे पर मीटिंग हुई।,इस में  ठा.नारायण सिंह कानोता ,बारहठ केसरी सिंह, ठा.भूर सिंह मलसीसर,ठा.कर्ण सिंह जोबनेर ,राव गोपाल सिंह खरवा ,राजा सज्जन सिंह खंडेला ,एवं ठा.हरी सिंह खाटू मुख्य थे। इन सब ने मिलकर यह निर्णय लिया कि बारहठ केसरी सिंह कोई ऐसे उद्बोधक दोहे लिखे जिसे पढ़ कर माहाराणा दिल्ली दरबार में सम्मिलित होने का विचार त्याग दें। उन्होंने केसरी सिंह को कहा ' चारण सदा से ही क्षत्रियो को अपने कुलधर्म का स्मरण कराते आये हैं ,आप चारण कुल के रत्न है. अत : इस अवसर पर कर्तव्य बोध की भूमिका आप ही निभाए। '

बारहठ जी ने जो सोरठे लिखे व बहुत ही उद्बोधक है यह एक कालजयी रचना है।

इस को महाराणा के पास पंहुचाने का बीड़ा राव गोपाल सिंह खरवा ने लिया और यह पत्र लेकर ने तत्काल खरवा के लिए रवाना हो गये। वहां पंहुचने पर उन्हें पता चला कि महाराणा की स्पेशल तो दिल्ली के लिए प्रस्थान कर चुकी है। यह जान उन्होंने अपने एक विश्वस्त व्यक्ति को अविलम्ब 'सुरेरी ' के लिए रवाना किया जहाँ स्पेसल ठरने वाली थी।

महाराणा ने  जब यह पत्र पढ़ा तो उसका एक एक शब्द  उनके सर्वांग को दग्ध कर उठा। उन्हें अपने यशस्वी पूर्वजों राणा सांगा व प्रताप की शोर्य गाथाओं का स्मरण हो आया और उन्हें स्मरण हो आया राणा प्रताप का दिल्ली स्वर के सामने नतमस्तक न होने का अटल संकल्प।

यों भी महाराणा फ़तेह सिंह बहुत ही स्वाभिमानी थे। अंग्रेज रेजिडेंट उनसे सहमता था। एक बार अंग्रेज सरकार ने उन्हें सी. एस.आई. की उपाधि प्रदान की तो उन्होंने इस को लेने से इनकार करते हुए कहा 'ऐसा बिल्ला तो चपरासी पहनते हैं। '

महाराणा पशोपेश में पड गये ,मन में घोर अंतरद्वन्द उठ खडा हुआ। यधपि पत्र की तत्कालीन प्रतिक्रिया उन्हें वहीं से उदयपुर लोट चलने को प्रेरित कर  रही थी किन्तु उनके अनुभवी सलाहकारों ने सलाह दी की यह सम्भव नही है और न नीति सम्मत ही। अंतत : महाराणा ने निर्णय लिया की दिल्ली जायेंगे पर दरबार में हिस्सा नही लेंगे। दिल्ली पहुंचते ही अलवर नरेश जय सिंह ने उनसे भेंट कर उन्हें दिल्ली दरबार में शामिल न होने का पुरजोर आग्रह किया।  महाराणा दिल्ली दरबार में शामिल हुए बिना उदयपुर लोट गये।

अंग्रेज  सरकार लहू का घूंट पीकर इस के विरुद्ध कारवाई नही कर पायी क्यों कि बाकि राजा लोगों ने कहा की अगर कोई कार्यवाही हुई तो स्थिति विस्फोटक हो जाएगी।

महाराजा अलवर के परम विश्वास पात्र अक्षय सिंह जी रत्नू  ने इस एतिहासिक प्रसंग का अपने "केसरी-प्रताप चरित्र " नामक काव्य में विस्तार से वर्णन किया है। इस से आम लोगों में प्रचलित तथा कुछ तथाकथित प्रगतिशील लेखकों व अवसरवादियों द्वारा प्रचलित इस भ्रांत धारणा का भी खंडन होगा कि राजस्थान के रजवाड़े राष्ट्रिय विचारधारा से शून्य और अंग्रेजों के हिमायती थे।

( उपरोक्त लेख डा. शम्भू सिंह जी का 'रणबांकुरा ' के अक्तूबर अंक में छपा था। इस सम्बन्ध में मैं ने मेरे  पिताजी ठा.सुरजन सिंह जी से भी काफी सुना था क्यों की उनका इन सभी सरदारों से घनिष्ट व निकट का सम्बन्ध था। )







Tuesday, September 24, 2013

दोहे व उन का सन्दर्भ

रहीम बहुत ही उदार व दानी था। अकबर के  नवरत्नों में था। अछा कवी था। एक दफा कवि  गंग उन से मिलने आये तो उसने कवि को काफी सम्मान व दान दक्षिणा दी -तो गंग ने एक कवित कहा ,जिसका अभिप्राय था की हे नवाब तुमने ऐसा देना कहाँ सीखा कि जैसे -जैसे तुम्हारे हाथ देने के लिए उपर उठते हैं तुम्हारी आँखे नीची हो जाती हैं ,जब कि देने वाले का सिर तो घमंड से ऊँचा उठा रहता  है।

सीखे कहाँ नवाब जू ,ऐसी देनी दैन।
ज्यों ज्यों कर ऊँचो उठे ,त्यों त्यों नीचे नैन।।

रहीम ने जो उतर दिया वह उसकी उदारता व स्वभाव के अनुकूल ही था -कहता है कि देने वाला तो उपर वाला है और लोग मुझ पर भ्रम करते है ,बस यह सोचकर ही आँखे नीची हो जाती हैं।

देनहार कोई और है ,देत रहत दिन रैन।
लोग भ्रम मो पे धरे ,ताते नीचे नैन।।

शांहजहाँ  रहीम से नाराज रहता था  और जब बादशाह बना तो उस ने रहीम खानखाना से जागीर छीन ली। रहीम निर्धन हो गया  व चित्रकूट चले गया। और कहा की जिस पर विपदा पडती है वह चित्रकूट आता है यहाँ अवध नरेश राम रमते है -

चित्रकूट में रम रहे ,रहिमन अवध नरेश।
जा पर विपदा परत है ,सो आवत यही देश।।

मांगने वालों  ने यहाँ भी उसका पीछा नही छोड़ा तो उन से उस ने कहा कि अब म वो रहीम नही रह गया हूँ मैं भी  दर दर फिर कर मांग कर भोजन कर  रहा हूँ

वे रहीम दर दर फिरे , मांग मधुकरी खान्ही।
यारो यारी छोड़ दो , वे रहीम अब नांही।।

  

Sunday, September 22, 2013

कर्नल टॉड का शेखावाटी के सम्बन्ध में अपनी पुस्तक "राजस्थान का इतिहास "में उल्लेख -

कर्नल टॉड को १८१८ ईस्वी में उदयपुर में ईस्ट इंडिया कम्पनी का रेजिडेंट नियुक्त किया गया जहाँ वह १८२२ ईस्वी तक रहा।  यहाँ रहते हुए उसने अपने गुरु जैन यति ज्ञानचन्द्र की सहायता से संग्रहित चारण भाटों की ख्यातों ,दंत कथाओं और वंशावलियों तथा शिलालेखों आदि का अर्थ समझ कर अपनी भाषा में उनका अनुवाद किया।  संस्कृत ,अरबी फारसी आदि दस्तावेजो व पांडुलिपियों का अर्थ समझने में उसे अपने मुंशियों से भी सहायता मिली।
इसने अपनी पुस्तक में राजस्थान के उस समय के राजघरानो के इतिहास को सम्मलित किया जिन में मेवाड़ ,मारवाड़ ,बीकानेर , जयपुर ,जैसलमेर ,बूंदी व कोटा का इतिहास है इसके अलावा केवल  शेखावाटी पर अलग से अध्याय लिखा जो यह साबित करता है कि शेखावत जयपुर से अलग एक स्वतंत्र राज्य था व बहुत ही शक्तिशाली व प्रभावशाली था।

"अब हम शेखावाटी संघ के इतिहास की तरफ आते हैं। इस का उद्भ्भव आमेर के सामंत घराने से हुआ  है. समय व परिस्थितियों के प्रभाव से इस संघ ने  इतनी अधिक  शक्ति प्राप्त कर ली जितनी की उसके पैतृक राज्य की थी।  इस संघीय राज्य के नियम व कानून लिखे हुए नही हैं और न उनका कोई अधिकारी अथवा राजा होता है ,जिसे सभी स्वीकार करते हों। इस राज्ये में कोई एक व्यवस्था नही है ,फिर भी यहाँ के सभी सामन्तो में एकता है। यहाँ कोई निश्चित राजनीती भी नही पाई जाती है।  उन लोगो को जब कभी किसी सामान्य अथवा व्यक्तिगत रूचि के मामले पर विचार करना होता है ,तो शेखावाटी के सरदारों की महान परिषद उदयपुर में आयोजित की जाती है। और उस में निर्णय लिया जाता है। वहाँ जो निर्णय लिया है ,उसे सभी स्वीकार करते है। "… "मोकल के वशज दस हजार वर्ग मील क्षेत्र में फैले हुए हैं। "

Saturday, September 21, 2013

भोमिया शब्द व उस का अर्थ

भोमिया शब्द व उस का अर्थ 

मेरे  बहुत से मित्र जो मेवाड़ व जालोर आँचल से हैं उनके यहाँ दो शब्द राजपूतों को विभाजित करने के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं  - एक  भोमिया व दूसरा रजपूत -वे अपने आप को इस से भिन्न देखना व समझना चाहते हैं।
मैं ने कभी कर्नल टॉड को पढ़ा था उसके संदर्भो को अंडर लाइन करता गया ,शायद बिना कुछ ज्यादा समझे ,पर आज फिर उसे पढ़ रहा था तो भोमिया के लिए उस समय क्या मान्यता थी उस का दिग्दर्शन हो जाता है -

"आरम्भिक दशा में राणा के वंशज "भोमिया " नाम से विख्यात थे और राज्य के ऊँचे पदों पर प्रतिष्ठित होने के कारण विशेष रूप से सम्मानित होते थे। बाबर व राणा सांगा तक उनकी यह मर्यादा यथावत बनी रही।
     मेवाड़ राज्य में जिन लोगों पर युद्ध के संचालन का दायत्व है ,उन में भोमिया लोग प्रमुख माने जाते थे। भोमिया नाम ही उनकी श्रेष्ठता का परिचय देता है।
इनकी जागीरे बराबर नही है। किसी किसी के अधिकार में तो केवल एक ही गाँव है। अपनी जागीरी भूमि का वे राणा को बहुत कम कर देते हैं।  आवश्यकता पड़ने पर उन्हें राणा को सैनिक बनकर युद्ध के लिए जाना पड़ता है।  युद्ध की अवधि में उनके खाने पीने की व्यवस्था राणा की तरफ से की जाती है।
राज्य में इन भूमिपतियों    अर्थात भोमियों का इतना मान सम्मान है कि प्रथम श्रेणी के सामंत भी इस पद का प्रयास करते रहते हैं। 

Wednesday, September 11, 2013

 मै कल  स्वामी विवेकानंद जी का अमेरिका से  राजा  अजीत सिंह जी को  लिखा पत्र पढ़ रहा था जिसमे उन्होंने लिखा क्षत्रिय इस देश की अस्थि व मज्जा है, क्षत्रिय कमजोर हुए तो भारत भी कमजोर हुआ। आज राजस्थानी के मानेता साहित्यकार  कवि श्री उदयराज जी  ऊज्ज्वल का एक दोहा पढ़ा जो कुछ इसी भाव का है। -

रहणा  चुप नाही रजपूतो, धारो कुळ मारग अवधूतो !
पोखो अब तो मात सपूतो , मिलसी देस न तो सहभूतो !!

हे ! राजपूतो अब चुप रहने का वक्त गया। अपने कुळ धर्म को धारण करो हे ! अवधूतो। हे मातृभूमि के सपूतो इस देश की रक्षा करो, नही तो यह देश गर्त में मिल जायेगा।


किसीने भी पैदा करने वाले भगवान को देखा नही ,पर पैदा करने वाली माँ को सभी जानते हैं ,वो केवल पैदा नही करती पर बड़ा भी करती है ,वो भगवन से कम कैसे हो सकती है. जो धर्म इस को नही समझता वह कैसा धर्म।

Tuesday, September 10, 2013

अकबर महान -पाठ्य पुस्तकों में यह घोल घोल कर पिलाया जाता है कि अकबर महान शासक था। पर वास्तव में वह  विदेशी आक्रान्ता था ,क्रूर था। चितोड़ में जब जोहर व साका हो गया , सारे राजपूत व राजपुतानिया मारे गये उस के बाद में उसने चितोड़  में  ३०००० आम नागरिकों की हत्या की।

अकबरी दरबार नाम से एक पुस्तक जिसका की हिंदी में अनुवाद आज से लगभग  ८६ वर्ष पहले हुआ है में एक जगह  संगरवाल (प्रयाग ) के युद्ध के बाद की घटना का वर्णन है -उसने आज्ञा दी कि जो नमक हरामों का सिर काट कर लावेगा ,उसे पुरस्कार दिया जाये गा। विलायती सिर के लिए एक असरफी व हिंदुस्तानी सिर के लिए एक रुपया नियत हुआ। हाय  अभागे हिन्दुस्तानियों,तुम्हारे सिर कट कर भी सस्ते  रहे। लशकर के लोग गोद में भर कर विपक्षियो के  सिर लाते व मुट्ठियाँ भर कर रूपये व अशर्फियां लेते।

इसी पुस्तक में मुल्ला ने बीरबल के बारे में लिखा है -असल में देखो तो यह भाट  थे। विद्या व पांडित्य स्वयम ही समझ लो कि भाट क्या और उस की विद्या तथा पांडित्य की बिसात क्या। पुस्तक तो दूर रही ,आज तक एक श्लोक भी नही देखा जो गुणवान पंडितों की सभा में अभिमान के स्वर में पढ़ा जाये। एक दोहा नही सुना जो मित्रों में दोहराया जाये। यदि योग्यता देखो तो कंहा राजा टोडरमल और कंहा ये। यदि आक्रमणों व विजयों को देखें तो किसी मैदान में कब्जे को नही छुआ। और उस पर दसा यह की सारे अकबरी नोरत्नो में एक दाना भी पद और मर्यादा में उनसे लग्गा नही खाता।
मुल्ला जी आगे लिखते हैं -  बादशाह को बचपन से ही ब्राह्मणों ,भाटों और अनेक प्रकार के हिन्दुओं के प्रति विशेष अनुराग था। एक ब्राह्मण भाट मंगता ,जिसका नाम ब्रह्मदास था और जो कालपी का  वाला था और हिन्दुओं का गुणगान जिसका पेशा  था ,लेकिन जो बड़ा सुरता व सयाना था ,बादशाह के राज्यरोहण के आरम्भिक दिनों में ही आया और उसने नोकरी कर ली। सदा पास रहने और बराबर बातचीत करने के कारण उसने बादशाह का मिजाज पूरी तरह पहचान लिया और उन्नति करते करते इतने उच्च पद पर पंहुच गया कि "मैं तो तूं हो गया और तूं मई हो गया। मैं तो शरीर हो गया व तूं प्राण हो गया "


शेरशाह सूरी ने हुमायु को जब इस देश से  खदेड़ दिया तो वह उमरकोट होते  हुए  इरान गया। उस समय इरान के शाह तहमास्प ने एकांत एकांत में सहानुभूति प्रगट करते हुये हुमायु से साम्राज्य के विनाश का कारण पुच्छा तो उसने भाइयों के विरोध व वैमनष्य को इस का कारण बताया। तो शाह ने पुच्छा -प्रजा ने साथ नही दिया ? हुमायु ने उत्तर दिया ,वे लोग हमसे भिन्न जाती व धर्म के लोग हैं। शाह ने कहा अबकी बार वहां  जाओ तो उन लोगों से मेल कर के ऐसी अपनायत बना लेना कि कंही मध्य में विरोध का नाम ही न रह जाये।


खान आजम अकबर का विश्वास पात्र सेनापति था। वो प्रायह कहता था कि अमीर के चार स्त्रियाँ होनी चाहिए -पास बैठने व बातचीत करने के लिए ईरानी , घर गृहस्थी का काम करने के लिए खुरासानी , सेज के लिए हिंदुस्तानी  और एक चौथी तुरकानी जिसे हरदम केवल इसलिए मारते पिटते रहें कि जिस से और स्त्रिया डरती रहें।




Saturday, August 31, 2013

१८५७ ई. की क्रांति में राजस्थान के आउआ ठाकुर कुशल सिंह से सम्बन्धित दोहे

       

                       १८५७ ई. की क्रांति में राजस्थान के आउवा  ठाकुर कुशल सिंह से सम्बन्धित दोहे 

एरनपुरा व डीग के क्रांतिकारी सैनिक आऊवा  में आकर ठाकुर खुशाल सिंह के नेतृत्व में इकत्रित हो गये। मेवाड़ और मारवाड़ के कई और भी सामंत आ जूटे शेखावाटी से मंडावा ठाकुर ने भी सैन्य सहायत भेजी।
इन वीरों ने निश्चय कर लिया कि अंग्रेजों को यहाँ से निकाल कर देश को आजाद करेंगे।  अंग्रेजी फौजें व जोधपुर की फौजे इनके मुकाबले पर आ पहुंची। जोधपुर की सेना के सेनापति अनाड सिंह व राजमल दोनों मारे गये। सिमली के ठाकुर सगत सिंह ने केप्टन मेसन को मार डाला। जोधपुर से दूसरी सेना जिसके मुसाहिब कुशल राज सिंघवी व दीवान विजयमल थे ,ये दोनों भी युद्ध क्षेत्र से भाग निकले। इस पराजय से लज्जित हो अंग्रेजों  व जोधपुर की विशाल सेनाये अपने तोपखाने के साथ आऊवा  पर चढ़ आयी। ठाकुर कुशल सिंह ने भंयकर युद्ध किया। २००० हजार सैनिको को मार डाला और तोपखाने की तोपे छीन ली। ब्रिगेडियर जनरल सर पैट्रिक लारेंस मैदान छोड़ कर भाग गया। इतनी बड़ी पराजय से फिरंगीयों को होश ऊड  गये। अजमेर ,नसीराबाद ,मऊ व नीमच की छावनियो से फोजे आऊवा  पंहुची। सब ने मिलकर आऊवा   पर हमला बोल दिया। क्रांति कारी सामन्तो के किलों को सुरंग से उड़ा दिया। आउवा को लूटा। सुगली देवी की मूर्ति अंग्रेज उठा ले गये।

चवादा उगनिसे चढे ,जे दल आया जाण। 
रह्या आउवे खेत रण , पुतलिया पहचानण।।

भावार्थ : सवंत १९१४ में अंग्रेज आउवा पर  चढ़ आये और यह चढ़ कर आने वाला दल आउवा में काम आया यानि रण खेत रहा।   इसकी पहचान यहाँ रुपी हुयी पथर प्रतिमाये हैं।

हुआ दुखी हिंदवाण रा , रुकी न गोरां राह। 
विकट लडै सहियो विखो , वाह आऊवा वाह।। 

भावार्थ :गोरों की राह नही रुकी ,पूरा हिदुस्तान दुखी है।  आऊवा के स्वामी ने विपतियाँ झेलकर विकट लडाई  लड़ी ,धन्य है आपको।

फिर दोळा अऴगा फिरंग ,रण मोला पड़ राम। 
ओळा नह ले आउवो ,गोळा रिठण गाम।। 

भावार्थ :फिरंगियों ने बड़ी तेजी से आउवा  गाव को घेर लिया,उसी गति से उन्हें वापस लोटना पडा। हार जाने से उन का नूर उतर गया। युद्ध के डर  से बहाना बनाने वाला  आउवा गाँव नही है।,यह तो गोलों की  बोछार करने वाला गाँव है।

फीटा पड़ भागा फिरंग मेसन अजंट मराये। 
घाले डोली घायलां ,कटक घणे कटवाय।।

भावार्थ : फीटा यानि निर्लज्ज होकर अंग्रेज भाग छुटे ,अपने रेजिडेंट मेसन का मरवाकर। बहुत से सैनिको को मरवाकर घायलों को डोली में दाल कर भाग छुटे ।

काळा सूं मिल खुसलसी , टणके राखी टेक। 
है ठावो हिंदवाण में ,ओ आउवो एक।.

 अजंट अजको आवियो ,ताता चढ़ तोख़ार।
काळा भिडिया कीडक न ढिब लिया खग धार।।

प्रसणा करवा पाधरा ,घट री  काढण छूंछ।
क्रोधिला खुसियाल री ,मिलै भुन्हारा मूंछ।।

थिर रण अरियाँ थोगणी , नधपुर पुगो नाम। 
आऊवो खुसियाल इल ,गावे गांवों गाँव।।

      

Friday, August 30, 2013

राजस्थानी दोहे .

 राजस्थानी दोहे 

कायर ,कुदत ,कपूत ,मेहणों लागे जलमियां।
सूरो सुदत ,सपूत ,नामी इण धर निपजे।।

भावार्थ :कायर ,कंजूस व कपूत इन के जन्म से कुल कलंकित होता है। किन्तु इस राजस्थान कि जमीन पर तो शूरवीर ,दानी व सपूत ही पैदा होते हैं।

 एक राजपूत  खिंवरा बिखे में आ गया यानि विपति में आगया फिर भी अपनी सामर्थ्य को कम नही होने  दिया ,कैसे -

गुधलियो तो ही गंग जल , सांखलियो तोही सिंह।
विखायत तोहि खिंवरो ,खांकलियो तोही दिह।।

भावार्थ : अगर गंगाजल गुधला भी गया हो तो भी उसकी महिमा कम नही होती। अगर सिंघ को सांकलो में जकड़ भी दिया जाये तो भी सिंघ तो सिंघ ही है। इसी तरह खीवसी भी विपति में होने से भी वैसा ही है।  अगर दिन यानि सूर्य आंधी की गर्द से ढका है तो भी दिन ही है।

पक्षपात प्रत्यक युग में अपना प्रभाव दिखता है। चापलूसी से मुर्ख व्यक्ति भी मुंशीगिरी प्राप्त कर लेता है अयोग्य होने पर भी योग्य व्यक्ति के सिर पर जा बैठता है -

कागां सरखा कुमांणसां ,पंखा बळ फळ खाय।
सिंघ सबळ बिण पंख कै ,नीचे फिर फिर जाय।।
पख बड़ा सो नर बड़ा ,पख बिना बड़ा न कोय।
पंख आया कीड़ी उड़े ,गिरवर उड़े न कोय।।
 
भावार्थ :- कौआ जैसा कुमाणस  इस लिये फल खाता है क्यों की उसके पास पंख है और सिंह जैसा सबल बिना पंखो के पेड़ के निचे फिर कर चला जाता है।
जिस व्यक्ति का पक्ष सबल वह बड़ा आदमी ,बिना पक्ष के कोई बड़ा नही हो सकता। पंख आने से कीड़ी भी उड़ने लगती है पर बिना पंखों के पर्वत जैसा शक्ति शाली भी उड़ नही सकता।

हे नरो ! सत्य का मार्ग मत छोड़ो क्यों कि सत्याचरण छोड़ने से स्वयम की कुल की व समाज की प्रतिष्ठा मिट जाएगी -

सत मत छोड़ो हे नरां ,सत छोड्या पत जाय।
सत की बांधी लिछमी ,फेर मिलेगी आय। 

राजस्थानी दोहे ( देह की क्षर्ण भंगुरता व दान के महत्व का )

राजस्थानी दोहे ( देह की क्षर्ण भंगुरता व दान के महत्व का )


१. महाराजा जसवंत सिंह जी जोधपुर कृत :--

खाया सो ही उबरिया ,दिया सो ही सत्थ। 
जसवंत धर पोढ़ावतां ,माल बिराणे हत्थ।।

भावार्थ : आप ने जो खर्च कर लिया  सो बच गया ,दान दे दिया वो मृत्यु के बाद साथ जायेगा।
            जसवंत सिंह कहते हैं कि मृत्यु के बाद जब आपके  शव को धरती पर लिटाया जाते ही आप की सारी                सम्पति किसी और की हो गयी।

दस द्वार को पिंजरों ,तामे पंछी पौन। 
रहन अचंभो है जसा , जात अचंभो कोन।।

भावार्थ :  यह शरीर दस दरवाजो का पिंजरा है ,जिस में यह आत्मा रुपी पंछी पड़ा हुआ है।  हे जसवंत यह आत्मा इस पिजरे में पड़ी वह आश्चर्य है जाने में क्या आश्चर्य है।

जसवंत बास सराय का ,क्यों सोवत भर नैन। 
स्वांस नगारा कूच का ,बाजत है दिन रैन।।

भावार्थ :जसवंत सिंह कहते हैं कि यह तो धर्मशाला में रहने जैसा है सो गहरी नीद में क्यों सोते हो। स्वांस जो आता जाता रहता है यह कूच करने के नगारे हैं ,जो रात दिन बजते रहते हैं।

जसवंत शीशी काच की ,वैसी ही नर की देह। 
जतन करतां जावसी , हर भज लाहो लेह।।

भवार्थ : यह शरीर काच  की बोतल की तरह है ,जो यत्न करते रहने पर भी एक दिन टूट जाती है। इस लिए हरी को भज  कर इस का सदुपयोग करना चाहिए।

२. अन्य जिन के रचनाकारों के बारे में जानकारी नही है।

खाज्यो पिज्यो खर्च ज्यो ,मत कोई करो गरब।
सातां आठां दिहडा, जावाणहार सरब्ब।।

कंह जाये कंह उपने ,कंहा लडाये लाड।
कुण जाणे किण खाड में , पड़े रहेंगे हड्ड।।

सबसो हिल मिल हालणो , गहणो आतम ज्ञान।
दुनिया में दस दिहड़ा , मांढू तू मिजमान।।

 





Thursday, August 29, 2013

राजस्थानी दोहे (वियोग व श्रंगार )

                             राजस्थानी दोहे (वियोग व श्रंगार )

मिलण भलो बिछटण बुरो , मिल बिछुडो मत कोय। 
फिर मिलणा हंस बोलणा , देव करे जद होय।।

भावार्थ : (यह वो जमाना था जब सवांद के आज के से साधन नही थे ) मिलना अच्छा बिछुड़ ना बुरा। अगर एक दफा मिल गये तो ईश्वर उन का विच्छोह न करे। क्यों कि फिर मिलना ,हंस बोलना तो देव करेगा तब ही होगा।

जो धण होती बादली ,तो आभे जाये अडंत। 
पंथ बहन्ता साजना , ऊपर छाह करंत।। 

भावार्थ : पति यात्रा पर निकला है ,धुप हो गयी है। पत्नी कहती है अगर मैं बदली होती तो ऊपर आकाश में अड़ जाती और रस्ते में चलते मेरे साजन पर छांह कर देती।

 आडा डूंगर बन घणा ,  जंहा हमारा मीत। 
देदे दाता पंखडी , मिल मिल आऊं नित।। 

भवार्थ : बहुत से पर्वत और वन मेरे व मेरे प्रियतम की राह में बाधक हैं। हे दाता मेरे पंख देदे सो मैं  रोज उन से मिल आऊं।

बिजलियाँ जलियाँ नही , मेहा तूं तो लज्ज। 
सूनी सेज विदेश पीव ,मधरो -मधरो गज्ज।।

  ऎ बिड़ला ऎ बाग़ , आज लगो अण खांवणा। 
भलो अमीणो भाग , बालम तों बारां बहे।।

धर अम्बर इक धार , पाणी नालां पड़े।
 आलिजो इण बार ,बालमियो बाटां बहे।।

 घसिया बादल धुर दिशा , चंहु दिशियाँ चमकंत। 
मन बसिया आज्यो महल , कामण रसिया कंत।।

घर घर चंगी गोरड़ी ,गावे मंगला चार। 
कंथा मति चुकाय ज्यो ,तीज तणों त्योंहार।।

सावण आवण कह गया , कर गया कोल अनेक। 
गिणता-गिणताघिस गई ,आंगलियां री कोर।।

सूरज थाने पुजस्याँ ,भर मोत्यां रो थाल। 
चिन के मोड़ो आंथियो , बादिलो रमे से शिकार।।

कागद को लिखबो किसो ,कागद सिष्टाचार। 
बो दिन भलो जो उगसी ,मिलस्याँ बांह पसार।।



  


Wednesday, August 28, 2013

क्षत्रियो के सच्चे गुण

                                      क्षत्रियो के सच्चे गुण

किसी कवि ने क्षत्रिय में क्या गुण होने चाहिये ,इस के बारे में निम्न दोहे लिखे हैं -

काछ दृढां कर बरसना ,मन चंगा मुख मिठ।
रण शूरा जग वल्लभा ,सो हम चाहत दिठ।।

रंग लक्षण रज पूत ,बात मुख झूठ न बोले।
रंग लक्षण रज पूत ,काछ पर नार न खोले।।

रंग लक्षण रजपूत ,न्याय धर तुल निज तोले।
रंग लक्षण रजपूत ,अडर केहरि जिम डोले।।

पीरजा पालन पुत्री सम ,लेहण प्राण कपूत रा।
मादक मेले न मुख ,प्रिय लखण रजपूत रा।.

हरख सोच नही हिये ,सुजस निंदा नही सारे।
जीवन मरण जिहान ,लाग्यो है प्राणी लारे।।

रथ रूपी पिंजर रचक सकल नियंता स्याम रो।
और रो डर नही ,डर अवस रात दिवस उण राम रो।.

संत असंत सार

                                     संत असंत सार 

ऊमरदान जी चारण स्वामी दयानंद जी के समकालीन हुए हैं।  इन को  संसार से विरक्ति हो गयी ,साधू बन गये।  किन्तु इन्होने जब अलग अलग पंथों  में साधुओं की टोलियों के साथ भ्रमण करते ,उनके मठों ,आश्रमों में जब उनके अनैतिक कारनामे देखे तो विरक्ति हो गयी। फिर जोधपुर में ये स्वामी दयानंद जी के सम्पर्क में आये। उनको गुरु बनाया और कहा की ऐसे साधू विरले ही हैं।

इन्होने संत -असंत सार के दोहे , खोटे संतो का खुलासा , असंतो की आरसी व संतो की सोभा आदि कवित लिखे हैं।

ऊमर सत उगणीस में ,बरस छतीसां बीच।
फागण अथवा फरवरी ,निरख्या सतगुरु नीच।।

उमरदानजी ने अपने साधू बनने का वर्ष व नीच गुरु मिलने का वर्णन किया है। इन के इस कवित में से कुछ दोहे -
तंडण कर कविता तणो ,घालूं चंड़ण धूब।
खंड़ण  जोगे भेख रो ,खंडण करणों खूब।।

मोड़ा दुग्गह माळीयां , गावर फोगे ग़ाल।
भोगे सुंदर भामणी , मुफ्त अरोगे माल।।

मां जाई कहे मोडियो , करे कमाई कीर।
बाई कहे जिण बेनरा , बणे जवांई बीर।।

आज काल रा साध रो ,ब्याज बुहारण वेस।
राज मांय झगड़े रुगड ,लाज न आवे लेस।।

बड़ी हवेली बीच में , हेली सूं मिल हाय।
बण सतगुरु छेली बखत , चेली सूं चिप जाय।।

बाम -बाम बकता बहे ,दाम दाम चित देत।
गांव -गाँव नांखे गिंडक ,राम नाम में रेत।।

मारग में मिल जाय ,धुड नाखो धिकारो।
घर माही घुस ज्याय ,लार कुत्ता ललकारो।।

झोली माला झाड ,रोट गिन्ड़का ने रालो।
दो जुत्यांरी दोय ,करो मोडा रो मुंह कालो।।

सांडा ज्यूँ ऐ साधडा ,भांडा ज्यूँ कर भेस।
रांडां में रोता फिरे ,लाज न आवे लेस।।

गृह धारी ओंडा गीणा ,नर थोडा में नेक।
भेक लियोड़ा में भला ,कोड़ा मांही केक।।


  

    

Saturday, August 24, 2013

बात राजा भारमल कछवाहे री

                          बात राजा भारमल कछवाहे री  

राज भारमल आमेर राज करै।  चुहड़ खान बिलोच आठ हजार बिलोच ले -अर चाटसू आय बैठ्यो। कहै चाट्सू म्हारो बसणो छे।   धरती कीं री ? धरती मांटिया-री छे। ईं भांति धरती चौगिरद धो पटे ,खावे।  इयुं करतां  बांहतर रा बड गुजर माचेडी पाय तख्त ,राजा ईशरदास राज करै। ईसरदास कह्यो -चुहड़ खान ! आव म्हारे साथै ,तोनू पाँच लाख रुपया देस्युं।  ताहरां चुहड़ खान आय बड गुजर भेलो हुयो। च्यार हजार सूं बड गुजर आया।  बारह हजार सूं चढ़ अर ढूंढाड  रै कांठे आय उतरिया। आदमी परधान मेलिया। राज भारमल नूं कह -बेटी परणा ईसरदास नूं ,कै पाँच लाख रिपया पेस द्यो ,कै लड़ाई करो। तीनों थोकां में जाणो सो करो।

ताहरां विचार हुवो।  बड़ा बड़ा कछवाह बुलाया।  बीजो ही नानो मोटो कछवाहो बुलायो।  एकठा करि नै बात पूछी -ठाकरां ! सहु को सांभलो ,म्हे ढूढाड रा राजा ,थे ढुंढाड रा उमराव।  कटक आयो विचार करो।  सहू को कहण  लागा ,तांहरां राजा भारमल बोलिया -ऊदोजी ! थे बडेरा छो ,थे कहो सो करां।  तांहरा ऊदो बोलियों -माहराज ! म्हे पुछण सिरखा रहिया नही ,हूँ ऒलद रो कणवारियो  !

ताहरां राजा कह्यो -सो ऊदाजी ! मांह नू चूक छ।  तांहरां ऊदो बोलियो - महाराज ! म्हारो कहियो कि जाणो करो कि न करो  ? तांहरा  राजा भारमल बोलियो - थारो कहियो मेंह करस्यां। ताहरां ऊदो बोल्यो -महाराज ! मांचेडी रा बड गुजरां नूं राजा भारमल री बेटी न द्यो अर दंड पण न दयो।, लड़ाई करस्यां ,अर महाराजा ! परमेसर भलो करसी।  राजा खुस्याल हुवो। तांहरां राजा बोलियो -किसी तरह लड़ाई करस्यो  ? ताहारां कहियो -माहराज तो वांसै रहो ,महँ कटक त्राणतो ले जावस्यां ,कहण सुणण नूं होसी राजा  वांसै छ।

ताहरां लड़ाई रो कहाडियो - बेगा आवो ,लड़स्यां। बड़ा सनध बंध फोज करी ,दे मुंहडा आगे अराबा , बेव फौजां आयी।  संघट्ट हुयो छे , जाणे आसाढ़ री घटा आइ संप्राप्त हुई छे।  एक ऐराकी पूरी पाखरी करी ,जोगेंद्र रूप करि ,घोड़े असवार ऊदो हुवो फौज हूँ आगे आसमान जाय लाग्यो छे।   अराबा तैयार हुवै छे ,छुटा नही छे , छूट छूट हुई कर रह्या छे।

तीसी समय बलभद्र पिरथिराजोत नू कहे  छे ऊदो - आज ढुंढाड रै काम नू , राजा भारमल रै काम नू ,आ देह , आम्बेर निमित ऊदो देह भांजे छ ,अर इसो माहरो सूरातन ,अर स्याम धर्म माहरो आज  इसो छ.जीको मांड रो धणी छे। 
   


महाराजा अजित सिंह को दिल्ली से निकालने व दिल्ली की लड़ाई व पलायन का रोमंचक वर्णन

महाराजा अजित सिंह को दिल्ली से निकालने व दिल्ली की लड़ाई व पलायन का रोमंचक वर्णन 


महाराजा जसवंत सिंह खैबर दरे के मुहाने पर जमरूद चोकी पर अपने २५०० घुड़सवारो के साथ तैनात थे।  इस सेना ने खैबर दर्रे को खुला रखने में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की।  किन्तु मारवाड़ की समस्त सेना के ठहरने के लिये यह स्थान उपयुक्त नही था इस लिए महाराजा जसवंत सिंह जी ने काबुल के सूबे पेशावर शहर को अपना मुख्यालय बनाया।  यधपि जसवंत सिंह जी ने अपने जीवन के ५२ वर्ष भी पुरे नही किये थे परन्तु कुछ दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे।  २८ नवम्बर ,१६७८ ई. को इन का स्वर्गवास हो गया। इन्ह का दाह संस्कार उसी बाग में किया गया जहाँ इनका शिविर लगा हुआ था।

उनकी दो महारानिया ,करोली के राजा छत्रमण की पोत्री  जसकंवर जदुण और कंकोड उनियारा के फतह  सिंह नरुका की पुत्री कछवाही रानी उस समय जसवंत सिंह जी के साथ पेशावर में ही थी। दोनों अपने पति के साथ  के लिए उत्सुक थी। किन्तु  चूँकि दोनों गर्भवती थी ,अत: मारवाड़ के ऊँचे अधिकारीयों व सामंतो ने उन्हें परामर्श दिया की वो सती  न हों,क्यों की मारवाड़ के सारे वंश का भविष्य उन्ही बच्चों पर निर्भर था।  दुर्गादास ने इस विचार -विमर्श में और महारानियों को राजी करने में  मुख्य भूमिका निभाई।

महाराजा के क्रियाकर्म  बारहवां के दिन पेशावर में कर जोधपुर का सारा दल वापसी के लिए रवाना हो गया। १९ जनवरी १६७९ ई. को इस दल ने अटक के पास सिन्धु नदी को पार किया। एक सप्ताह बाद ये हसन अब्दाल पंहुचे तो अस्थियो व भस्म को गंगा में प्रवाहित करने के लिए पुरोहित कल्याण दास व पंचोली जयसिंह को आगे भेज दिया। १५ फरवरी ,१६७९ ई. का सारा दल लाहोर पंहुचा और एक हवेली में ठहरा। प्रसव काल नजदीक होने से कुछ दिन लाहोर में ठहरने का निश्चय किया गया।

१९ फरवरी १६७९ ई. के दिन पहले महारानी जदुण जी ने सतमासे पुत्र को जन्म दिया करीब आधे घंटे बाद महारानी  कछवाही ने भी पूर्ण विकसित पुत्र को जन्म दिया। बड़े का नाम अजित सिंह व छोटे का नाम दलथभंण रखा गया। संदेश वाहक जोधपुर भेजे गये जो आठवें दिन पंहुच गये।

ओरंगजेब को  यह खबर अजमेर में २७ फरवरी को मिली। वह व्यंग से मुस्करा दिया और बोला "आदमी कुछ सोचता है और खुद ठीक उस से उल्टा करता है।

यहाँ से मारवाड़ का यह दल दोनों राजकुमारों व रानियों के साथ २८ फरवरी को दिल्ली के लिए रवाना हो गया।
ओरंगजेब का रवैया कड़ा होता जा रहा था।  इधर नागोर के राव अमर  सिंह का पुत्र इंद्र सिंह जोधपुर पर अपनी दावेदारी करने लगा। १८ मार्च १६७९ ई. को ओरंगजेब के सामने हाजिर हो ,दोनों राजकुमारों के बनावटी  होने की अफवाह फैलाने लगा।

इधर मारवाड़ का दल १ अप्रेल १६७९ ई. को दिल्ली से ६ मील उतर में बादली गाँव पंहुचा व चार दिन तक वन्ही रुका रहा। दिल्ली में जोधपुर की हवेली खाली कराई गयी व दोनों राजकुमारों व महारानियो को वंहा रखा गया।  इधर अजमेर से पंचोली केसरी सिंह ,भाटी रघुनाथ ,राठोड रूप सिंह उदावत आदि कई अन्य सरदार दिल्ली पंहुच गये।

दुर्गादास के नेतृत्व में यह लोग बादसाह से बार बार अजित सिंह को जोधपुर का अधिकार देने की मांग कर रहे थे  ,जो की खालसा कर लिया गया था। ओरंगजेब जोधपुर राज्य तो क्या उन्हें जोधपुर परगना देने को तैयार नही था। राठोड़ो के बीच फूट डालने के लिए ओरंगजेब ने जसवंत सिंह के भाई के पोते नागौर के राव इंद्र सिंह को जोधपुर का राजा बना दिया। इंद्र सिंह ने महारानियो से दिल्ली की जोधपुर हवेली खली करवाली।  दोनों महारानियाँ उनके पुत्र और जोधपुर का उनका दल किसनगढ़ के राजा रूप सिंह भारमलोत की हवेली में चले गये। स्थिति बड़ी तेजी से नाजुक होती जा रही थी भयानक संघर्ष की संभावना साफ दिखाई दे रही थी। शीघ्र विचार और शीघ्र कारवाई ही वक्त की सबसे बड़ी जरूरत थी।

महारानियों और उनके पुत्रों के प्राणों के संकट को देखते हुये राठोड रणछोड़ दास,  भाटी रघुनाथ ,राठोड रूप सिंह ,दुर्गादास राठोड और मारवाड़ के अन्य सरदारों ने राजकुमारों को चुपके से दिल्ली से निकाल ले जाने की योजना बनाई।

बलुन्दा के राठोड मोहकम सिंह ,खिंची मुकनदास  तथा मारवाड़ के अन्य सरदारों ने बादसाह से मारवाड़ जाने की अनुमति मांगी। ओरंगजेब भी बड़ी संख्या में मारवाड़ी सरदारों की दिल्ली में उपस्थिति से खतरा   महसूस कर रहा था ,सो उसे राहत मिली। मोहकम सिंह के बालबच्चे भी साथ थे। मोहकम सिंह ने एक दुध पीते बच्चे से राजकुमारों को बदल दिया। इस प्रकार कड़े पहरे के बावजूद दोनों राजकुमारों को दिल्ली से बाहर निकाल दिया। और किसी को कानो कान भी खबर नही हुई।

इधर  ओरंगजेब को लगा की अब शिकंजा कसने का समय आगया है। उसने कहलाया की हम दोनों राजकुमारों को शाही हरम में रख कर पालन पोषण करना चाहते है। राठोड़ो के न सहमत होने पर ओरंगजेब ने बल प्रयोग करने का निश्चय किया। उसने शहर कोतवाल फ़ोलाद खां को आदेश दिया की वे जसवंत सिंह की दोनों रानियों व राजकुमारों को रूप सिंह की हवेली उठाकर नूर गढ़ ले जाये। और अगर राठोड इसका विरोध करे तो उन्हें उचित दंड दिया जाये। फ़ोलाद खां ने एक बड़ी फोज के साथ १६ जुलाई ,१६७९ ई. को  रूप सिंह की हवेली को पूरी तरह घेर लिया। शाही सेना ने पहले तो मृत्यु प्रेमी राजपूतों को भड़काने के बजाय समझा बुझा कर काम लेना चाह किन्तु सफलता नही मिली।  सर यदुनाथ सरकार लिखते हैं - "उस दिन उन का मुख्य उद्देश्य यही था की दोनों महारानियो को किसी तरह दिल्ली से सुरक्षित निकाल ले जाये और दुस्साहसिक विरोध और अनेक पृष्ठ रक्षक युधो द्वारा शत्रु को रोककर अपने प्राणों का बलिदान देते हुए अधिक से अधिक मारवाड़ के सरदारों व घुड़सवारो को बचाया जाये। "

समझाने बुझाने से कोई बात बनी नही और लड़ाई शुरू हो गयी। जब दोनों और से गोलिया चल रही थी तब जोधपुर के एक भाटी सरदार रघुनाथ ने एक सो वफादार सैनिको के साथ हवेली के एक तरफ से धावा बोला। चेहरे पर मृत्यु की सी गंभीरता और हाथो में भाले लिए वीर राठोड शत्रु पर टूट पड़े। इस से पूर्व उन्होंने अपने इष्ट देवताओं की पूजा करके अफीम का शांति प्रदायक पार्थिव पेय दुगुनी मात्र में पी लिया था। उनके भयानक आक्रमण के आगे शाही सैनिक घबरा उठे।  क्षणिक हडबडाहट  का लाभ उठा कर दुर्गादास व वफादार घुड़सवारों का दल पुरुष वेशी दोनों महारानियों के साथ निकल गये और मारवाड़ की और  बढ़ने लगे।  "डेढ़ घंटे तक रघुनाथ भाटी दिल्ली की गलियों को रक्त रंजित करता रहा किन्तु अंत में वह अपने ७० वीरो के साथ मारा गया।"

दुर्गादास व उसके दल के निकल भागने की सुचना शाही सैनिको को मिल चुकी थी और इस लिए शाही घुड़सवारो ने उन का पीछा  करना शुरू किया। जोधपुर का दल ९ मील की दुरी तय कर चूका था ,तब शाही घुड़सवार उनसे जा लगे।  " अब रणछोड़दास जोधा की बारी थी। उसने कुछ सैनिको के साथ शाही घुड़सवारो को रोक कर रानियों को बचाने के लिए बहुमूल्य समय अर्जित किया। जब उनका विरोध समाप्त हो गया तब मुगल सैनिक उनकी लाशो को रोंद कर बचे हुए दल के पीछे भागे।

अब दुर्गादास व उसके घुड़सवारो का छोटा सा दल वापस मुड  कर पीछा करने वालो का सामना करने के लिए विवश हो गया।  वंहा एक भयानक युद्ध हुआ और मुग़ल सैनिकों को कुछ देर के लिए रोक गया। किन्तु स्थिति काबू से बाहर हो चकी थी।  दिल्ली स्थित हवेली से बाहर निकलते समय दोनों महारानियो को भी युद्ध करना पडा  था और वे भी जख्मी हो चुकी थी। पांचला के चन्द्रभान जोधा जिस पर महारानियो का दायत्व था ,के सामने अब कोई विकल्प नही रहा और उसने दोनों के सर काट दिए। इसके बाद उसने भी युद्ध करते हुए मातृभूमि के लिए प्राण न्योछावर कर दिए।

शाम हो चुकी थी। मुगल सैनिक लम्बी दोड और तीन भयानक मुठभेड़ों के कारण थक गये थे। अत : जब घायल दुर्गादास शेष बचे ७ सैनिको के साथ मारवाड़ की और बढ़ा तो उन्होंने उस का पीछा नही किया। जब दुर्गादास ने देखा की मुगल सैनिक उन का पिच्छा नही कर रहे है तो लोट कर महारानियों के पार्थिव शरीर को उठा कर यमुना की पवित्र धारा में प्रवाहित कर दिया।


 






  

Sunday, August 18, 2013

राजस्थानी का बात साहित्य

                                  राजस्थानी का बात साहित्य

राजस्थानी भाषा का पध्य साहित्य जिस परिणाम में विपुल व समृद्ध है उसी प्रकार राजस्थानी गद्य साहित्य

भी प्रचुर व वैवध्य पूर्ण है। ख्यातें ,बातें ,पत्र -परवाने ,वंश वृतांत ,गप्पें ,ओखण (व्यंग ) आदि प्रसिद्ध हैं।

ख्यातों ,वंश वृतान्तो एवं पत्र -परवानो आदि में एतिहासिक चरित्रों ,घटनाओं व प्रसंगो का विवरण मिलता है।

और बात क्रम  में एतिहासिक व काल्पनिक दोनों प्रकार की रचनाये उपलब्ध होती  हैं। इस में बात साहित्य

 का बड़ा महत्व है। गद्य का यह अंग शिक्षित और अशिक्षित दोनों कोटि के जन मानस की रुचि तथा पसंद

 की वस्तु है।  वार्ता साहित्य विषय की दृष्टी से अति विस्तृत और वैविध्य पूर्ण है।  इसमें मानव समाज की

धार्मिक प्रवृतियों , राजनैतिक गुथियो ,मानसिक ऊहापोह ,एतिहासिक घटना -चक्रों के वृतांत ,प्रशासनिक

ज्ञातव्य,आदर्श नीति और उपदेश के अनेकानेक प्रसंग गुंफित हैं। इतना ही नही बल्कि लोक मानस की

भावनाये एवं रुचियों की समग्र परिचित प्रच्छन -अप्रच्छन रूप से बातों  में भरी पड़ी हैं।    बातों में मानव तो

क्या पशु पक्षियो ,देवी देवताओं तथा गन्धर्व ,यक्ष ,किन्नरों तक को मानव भाषा में बाते करते प्रगट किये गये

हैं। पशु पक्षि मानव भाषा बोलते हैं।  वे मानव पात्र की भांति अपने आश्रय दाता  की प्र्तुहता से रक्षा करते हैं।  

प्रवसन काल में सुख दुःख के सन्देश लाते लेजाते हैं। इस प्रकार पक्षियो का मानवीकरण कर मानव समाज

के मित्र एवं हितेषी के रूप में उनका चित्रण किया गया है।

बातों में युद्ध की भयानकता ,रूप सोंदर्य ,हास्य विनोद के गुद  गुदा देने वाले छींटे और वज्र कठोर हृदय तक को

पिघला कर द्रवित करने वाले अनेक प्रकरण प्राप्त होते हैं। करुना के स्वर बातों में अनेक स्थलों को भिगोते

मिलते हैं। बात साहित्य में करुणा के प्रसंग मोटे तोर पर कन्या की विदाई ,सास   ननद के कठोर व्यवहार

,सोतिया डाह,वंध्यापन का लांछन, पति वियोग ,ठग चोर ,दुराचारियों के कैतवपाश में पड़ जाने ,मिथ्या

आरोप और प्रियजनों की मृत्यु आदि के प्रसंगो में आते हैं।मृत्यु के विभित्स रूप का वर्णन भयावह होता है

परन्तु राजस्थानी साहित्य की यह अनूठी खूबी है की युद्ध में वीरगति प्राप्त प्रियजनों के प्रति विलाप करने का

वर्णन नही किया जाता है। रणस्थल की मृत्यु पर मांगलिक तथा वरेण्य रूप अंकित किया गया है। जुन्झारों

की मृत्यु पर क्रन्दन करने की राजस्थान की परम्परा नही है। युद्ध मृत्यु को शिवलोक ,ब्रह्मलोक ,विष्णुलोक

सूर्यलोक के अलौकिक वैभव के प्रदाता के रूप में चित्रित किया गया है। इस प्रकार युद्ध में वीरगति प्राप्त करने

के पिछे भारतीय दर्शन की परंपरा का परिपालन लक्षित होता है।

राजस्थानी भाषा की जिन बातों में एतिहासिक तथ्यों को आधार माना गया है उन बातों को "परबीती बात"

और जिन कहानियों में कल्पना के पंख लगाये गये उन्हें" घर बीती" के नाम से अभिहित किया।  ये दोनों दोनों

ही प्रकार की कहानिया ,राजस्थानी में हजारों की संख्या में कही -सुनी जाती हैं। सदियों तक मौखिक परम्परा

से ये कहानियां राजस्थानी जन मानस  में आशा ,अल्हाद, हर्ष -विषाद ,उत्साह-उमंग ,शिक्षा -सदाचार और

आमोद -मनोरंजन के भावों को वितरित करती रही है। राजा से रंक ,निर्धन से धनी ,  पंडित से अपंडित ,तक

समान रूप से जिन रचनाओं ने कौतुहल उत्पन्न  कर सम्मान प्राप्त किया ,उन रचनाओं  (बातों ) के लेखकों

का आज प्रयत्न करने पर भी नाम धाम का पता लगा पाना संभव नही है। ऐसी दशा में यह परिचित नही हो

पाता की इन कहानियों का जन्म कब हुआ  ? समय पर आलेख बद्ध नही होने के कारण कुछेक एतिहासिक

प्रसंगो वाली बातों के अलावा अन्य  के रचना काल ,रचना स्थान ,रचनाकार और रचना काल की भाषा पर भी

विचार नही किया जा सकता। यह तो केवल जन निधि है, जो जन कंठो पर अनुप्रमाणित है। राजस्थानी

कहानियां जन मुखों पर जीवित रही और उन के कहने वालों के कला कौशल से प्रसिद्धि प्राप्त कर सकी ,बस

यही इनकी प्राचीनता का अध्यावधि इतिहास माना जाता रहा है।

राजस्थानी बातों के कहने की भी अपनी एक प्रकार की पद्धति रही है। और वह यह कि श्रोता समाज के

अतिरिक्त "कहानी कहता " व  "समर्थन करता " दो मुख्य पात्रों पर यह कहानी चलती है। यदि समर्थन करता

जिसे हुंकारा देने वाला कहा जाता है समर्थन करने में एक बार भी ऊँघ गया तो कहानी का आनंद किर किरा हो

जाता है।

कहानी कहने की कला राजस्थान की कुछ जातियों का परम्परागत पेशा रहा है। जब राजस्थान के टीलों

,घाटियों, नालों और मैदानों में आबाद गांवों में अपनी वृति के लिए आये हुए 'बडवाजी' या इस कहानी कला

का कोई दक्ष वक्ता कलाकार शीतकाल की लम्बी रातों में गाँव के चौपाल की  'कंऊ' ( आज की भाषा में camp

fire  )  पर अपना आसन जमा कर जब बात कहना प्रारंभ करते थे ,तब अतीत राजस्थान के गर्वीले

एतिहासिक दिनों की ,रणबांकुरे कर्मवीरों की ,मर कर जीने वाले सपूतों की स्मृतियाँ ताजा बनकर कुछ काल

के लिए चित्र  पट की भांति नाच उठती थी। उस समय श्रोताओं के सामने अनेक घटित -अघटित ,लोकिक -

अलौकिक दृश्य घुमने लगते थे। श्रोता अपने को भूल कर अतीत की घटनाओं की भांति युद्ध क्षेत्रो में शत्रु सेना

पर प्रहार करने के भावों की अनुभूति करते जन पड़ते थे। और कहानी के भावों के साथ विचार लोक में

 विचरण करते दिखाई पड़ते थे।  ये सारी  वास्तु स्थिति ,भावाधाराएँ कहानी कहने वाले की निपुणता ,उसके

भाव प्रदर्शन ,कथा के ओज ,प्रसंग व ऊंचे निचे स्वर तथा क्रोध और करुणा आदि भावों के प्रकट करने की

प्रणाली से होता था।

सांयकाल भोजन के बाद गाँव के छोटे बड़े सभी वार्ता प्रेमी ग्रामवासी  लोग चौपाल या अन्य जगह जहाँ कहानी

कथा कहने का स्थल होता ,वहां कहानी वक्ता के इर्द गिर्द आ बैठते और हुंकारा देने वाला भी सावधान होकर

वार्ता कार के सामने जम कर बैठ जाता था। वार्ता कार श्रोताओं का ध्यान कथा वस्तु पर केन्द्रित करने के

लिए खानी प्रस्तावना प्रारम्भ करते हुए कहने लगता -

'एक उजाड़ !   उठै बड़ रो बिरछ !उण पेड़ रै एक लाम्बो डालो ! जिण माथै हजारों पंखी सूता अर दोय पंछी जागै!

उण में एक तो चकवो अर दूजी चकवी ! गुमसुम बैठ्याँ रात न कटती देख चकवी बोली - कहने चकवा बात ,

कटेज्यूँ रात ! ' जद चकवो  बोली -घर बीती कंहू कै पर बीती  ? चकवी बोली आज तो पर बीती ही कह घर 

बीती तो सदा ही कह है। '

इस प्रकार बात की बात में 'बात ' चल पडती है। वक्ता कहता जाता है ,हुंकारा देने वाला हुंकारा देता जाता है

और श्रोता मन्त्र मुग्ध हो कर बात का रस लेते जाते हैं। बात बरसाती सरिता की तरह घुमती ,मचलती ,

इठलाती बल खाती उतार चढाव के साथ चलती ,बात के बीच बीच में दोहे सोरठे उसकी रोचकता का बढ़ाते

रहते हैं।  वीर पुरषों के मरण कर्तव्य ,सत पुरषों का अल्पकालीन जीवन होने पर भी कीर्ति अमर  रहती है

इसी का प्रतीक बात में प्रयोग होने वाला  दोहा द्रष्टव्य है -

मरदां मरणो हक्क है , ऊबरसी गल्लांह।

संपुरुसा रा जीवणा ,  थोडा ही भल्लाह।।

और   साथियों  के साहस की बात भी सुनिए -

हूँ बलिहारी साथियां , भाजे नही गयाह।

छिणा मोती हार जिम , पासे ही पडीयाह।।

बात की एतिहासिकता और काल्पनिकता की सूचना जिस प्रकार 'परबीती ' और 'घरबीती ' से  दे दी जाती है।

उसी प्रकार बात लम्बी है या छोटी -यह सुचना भी अवतरणिका में ही दे दी जाती है।  बात लम्बी और दो चार

रात चलने वाली होती है तो कुछ ऐसी पंक्तियाँ कही  जाती हैं।

" कीड़ी की लात ,मान्छर को धको , हाथी पर घात बचै तो बचै नही मरै परभात।  कैर को काँटों साढ़ी सोलह हाथ। "

बात के समय समर्थन व समर्थन कर्ता हुंकारा देने वाले के प्रति भी कहा गया है -

"बात कहताँ बार लागे , बात मै हुंकारों लागे। 
हुंकारे बात मीठी लागे , फौज में नागारो बाजै। 
कडंग ध्री कडंग ध्री , दाल बाटी ऊपर घी।

बात कहने वाला श्रोताओं को भी बात तल्लीनता से सुनने तथा निद्रा से सावधान रहने की हिदायत देता हुये कहता है -

इसे समय बातां का रंग धोरा लागे। 
कोई नर सोवे और कोई नर जागे। 
सूतोड़ा की पाघडी , जागता ले ले भागे। 
जागतां की पाघडी , ढोलिया के पागै। 
जिवोजी बात को कहणीयो ,जिवोजी हुंकारे को देणीयो। 
बात को चालणो , संजोग को पीवणों।।

इस तरह की अवतरणिका के साथ ये बातें चलती थी। वर्षों से चली आ रही यह मौखिक बात परम्परा अब राजस्थान से लुप्त प्राय हो चुकी है। अब न तो चौपालों पर जमघट दिखाई देता है और न ही बातों के वे ओजस्वी वक्ता रहे।

(यह लेख श्री सौभाग्य सिंह जी शेखावत -भगतपुरा का रणबांकुर से उध्रत )


















Thursday, August 15, 2013

सवाई जयसिंह का व्यक्तित्व एवं कृतित्व

( यह लेख जयपुर समारोह के परिपेक्ष में  ठा . सुरजन सिंह जी शेखावत -झाझड द्वरा लिखा गया था व रणबांकुर मासिक पत्रिका के दिसम्बर १ ९ ९ २  के अंक में प्रकाशित हुआ है। )

जयपुर जैसे अद्वितीय महानगर के निर्माता महाराजा सवाई जय सिंह के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर सक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कर देना यहाँ पर विषय सम्बन्ध होगा। सवाई जयसिंह की महान उपलब्धियों ने उसे भारत वर्ष का अपने समय का एक महान इतिहास पुरुष और राजनेता बना दिया था।
                 झुंझुनू और फतेहपुर के मरुस्थलिये कायामख्यानी नवाबी राज्यों के विजेता और अपनी वीरता के लिए सुप्रसिद्ध सेखावतों को मुग़ल नियत्रण से मुक्त करा कर महाराजा सवाई जयसिंह ने अपने करद राज्य व सहायक सामंतो के रूप में प्रस्थापित कर दिया था। इसी प्रकार जांगल प्रदेश के बीकानेर एवं लोहारू राज्यों  की सीमाओं को छुता शेखावाटी का विस्तृत मरू प्रदेश जयपुर राज्य के संरक्षण में आ चूका था। दक्षिण में नर्मदा नदी के तट तक सवाई जयसिंह के राजनैतिक प्रभुत्व और प्रभाव का डंका बज रहा था। मेवात में चुडामण जाट और उस के पुत्र मोहकम सिंह के आतंक का अंत करके जयसिंह ने उसके भतीजे बदन सिंह को प्रश्रय दिया और उसे चुडामण के राज्य का सर्वेसर्वा स्वामी बना दिया। इस सहायता और समर्थन के बदले में बदन सिंह आजीवन जयसिंह का कृतज्ञ राजभक्त एवं सहायक सामंत बना रहा। दिल्ली के सम्राट द्वारा प्रदत उपाधि और सम्मान की उपेक्षा करता हुआ बदन सिंह सवाई जयसिंह को ही अपना स्वामी तथा सहायक मानता था। प्रत्येक वर्ष मनाये जाने वाले विजयदशमी के दरबार में वह जयपुर जाता और राजा को नजर भेंट करता था। उसका पुत्र सूरजमल भी सवाई जयसिंह का राजभक्त व वफादार बना रहा। जब कभी जय सिंह डीग या भरतपुर के नजदीक होकर गुजरता तो सूरजमल एक विनम्र जागीरदार के रूप में उसके सामने उपस्थित होता और अपने प्रसिद्ध किलों की चाबियाँ उसके सामने रख कर कहता था - यह सब सम्पति आप की ही दी हुई है। ये सब उस  सहायता एवं  उपकार के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के रूप में किया जाता था।     

Wednesday, August 14, 2013

राव शेखा व उनकी सन्तति

                               राव शेखा व उनकी सन्तति 
राव शेखा के बारह पुत्र थे जिनमें चार न ओलाद गये , शेष आठों पुत्रो के वंशज शेखावत कहलाते हैं।  उनमे सबसे जेष्ठ दुर्गा जी थे , किन्तु शेखा जी की मृत्यु के उपरान्त  अमरसर की राज गद्दी पर उनके छोटे पुत्र  रायमल जी बैठे।
१. दुर्गाजी इनके वंशज अपनी माता टांकण जी के नाम से टकनेत कहलाये।  इस वंश में अलखाजी अपने समय के परम ईश्वर भक्त व आदर्श व्यक्ति थे।  ये खंडेला राजा गिरधर दास के प्रधान थे।इनके वंशज पिपराली ,खोह , गुंगारा ,अजाडी, तिहावली , जांखड़ा, और भाकरवासी  में बसते हैं।  माधोदास जी के वंशज खोरी ,मंडवरा तथा बाजोर में हैं। सकत सिंह जी के वंशज बारवा ,तिहाय, बाय, ठेडी तथा पिलानी में बसते हैं। अलखा जी के ही वंश की एक शाखा चुरू में है।

२. रतनाजी ये शेखा जी के  द्वितीये पुत्र थे। इनके वंशज रतनावत शेखावत कहलाते हैं।  बैराठ के पास के प्रागपुरा ,पावटा ,बाघावास ,राजनोता ,भूनास ,ठिसकोला ,भामरु गुढ़ा ,जयसिंह पुरा , बडनगर ,जोधपुर आदि में हैं।  शेखाजी द्वारा हरियाणा के चरखी ,दादरी,भिवानी आदि स्थानों पर आक्रमण के समय रतनाजी अद्भुत वीरता प्रदर्शित की , शेखाजी ने वहां जीते ग्रामो का अधिकार रतनाजी को दे दिया। सतनाली के पास के ग्रामो के समूह को रतनावतो का चालीसा कहा जाता है। रतनाजी की एक पुत्री का विवाह जोधपुर राव मालदेव के साथ हुआ था।

३. भरतजी। ४. तिलोकजी।  ५. प्रतापजी।  - निसंतान थे

६. आभाजी अपनी माताजी के बसाये हुए ग्राम मिलकपुर में बसने से मिलकपुरिया कह लाये

७. अचलाजी भी अपने भाई के साथ मिलकपुर में रहते थे सो इनके वंशज भी मिलकपु रिया ही कहलाते हैं।
८. पूरण जी ये घाटवा के युद्ध में शेखाजी के साथ ही लड़ते हुए मारे गये, यह भी निसंतान थे।

९. रिडमलजी -खेजडोली गाँव में बसने से इनके वंशज खेजडोल्या शेखावत कहलाते हैं।

१०. कुम्भा जी के वंशज सतालपोता कहे जाते है पर बाद में इन्हें भी खेजड़ोल्या ही कहा जाने लगा। यह भी खेजड़ोली गाँव में ही रहते थे।  इनकी कोटडिया सीकर के बेरी ,भूमा छोटा ,बासणी ,कटेवा ,भोजासर ,रासू  बड़ी,जेइ पहाड़ी ,सेणु सर ,नवलगढ़ के पास खेजड़ोल्या की ढाणी  आदि गाँवो में है।

११. भारमल जी इन के वंशज भी खेजड़ोल्या ही कहे जाते है।  किन्तु इनके बड़े पुत्र बाघा के वंशज बाघावत कहलाते हैं। ये भरडाटू , पालसर , ढाकास,गरडवा,पटोदा आदि गाँवो में हैं।

१२.राव  रायमल जी - ये शेखाजी के सबसे छोटे पुत्र थे अमरसर का राज्याधिकार इन्हें मिला।  घाटवा के युद्ध में गोड़ो की पराजय हुई किन्तु शेखाजी इस युद्ध में  अत्यंत घायल हो चुके थे।घाटवा से ये सेना सहित रात्रि विश्राम के लिए जिण माता के ओयण के पास रलावता में डेरा किया।  शेखाजी ने अपना अंतिम समय नजदीक समझ कर अपनी ढाल व तलवार रायमल जी को सौंपकर  अमरसर का राज तिलक देने की इच्छा प्रकट की।
रायमल जी शेखावत वंश परम्परा में सर्वाधिक शक्तिशाली और महत्व पूर्ण व्यक्ति हुए हैं। शेरशाह सूरी का पिता मिंया हसनखां इनकी सेना में चाकरी करता था।

इनके ६ पुत्र थे जिनमे जेष्ठ  सुजा जी को अमरसर का राज मिला।

१.  तेजसी के वंशज तेजसी के शेखावत कहलाते है व अलवर जिले के नारायणपुर ,गढ़ी ,मामोड़ और बाणासुर के गाँवो में हैं।

२. सहसमल जी को १२ गांवों से सांईवाड की जागीर मिली थी ,इन के वंशज सहसमल जी के शेखावत कहलाते हैं। इनकी एक पुत्री (मदालसा देवी )  का विवाह आमेट के रावत पत्ताजी चुण्डावत से हुआ था जिन्होंने चितोड़ के तीसरे शाके का नेतृत्व किया था।

३. जगमाल को १२ गाँवो से  में हमीरपुर व हाजीपुर की जागीर मिली जो अलवर जिले में हैं। जगमाल का पुत्र दुदा वीर व उदार राजपूत था उसकी प्रसिधी के कारण इन के वंशज दुदावत शेखावत कहलाते है।

४. ५. सीहा व सुरताण के बारे में कोई जानकारी नही है।

राव सुजा जी : ये अमरसर की गद्दी पर बैठे।  इनके ६ पुत्र हुये।  इनमे लुणकरण जी जेष्ट पुत्र थे और वे ही अमरसर की गद्दी पर बैठे।

. लुणकरण जी के वंशज लुणकरण जी का शेखावत कहलाते हैं। इनके पुत्रो व प्रपोत्रों  के नाम पर सावलदास का ,उग्रसेनण जी का , अचलदास जी का आदि हैं। इनके छोटे पुत्र मनोहरदास जी अमरसर के शासक हुए।
इस समय खेजडोली ,महरोली ,ढोड्सर, करीरी , दोराला गुढ़ा ,सांगसर,सिंगोद छोटी बड़ी जुणस्या व सीकर के पास सबलपुरा आदि व रुन्डल मानपुरा ,लालसर बावड़ी ,रामजीपुरा व झुंझुनू जिले के कई गाँवो में सांवल दास जी के शेखावत है।

 राजा रायसल ये रायमल जी के द्वितीय पुत्र थे।  इन्हें अमरसर से गुजरे की लिये लाम्याँ की छोटी से जागीर दी गयी थी किन्तु यह अपने बहुबल से अपने पैत्रिक राज्य अमरसर के बराबर एक दुसरे राज्य के शासक बन बैठे। इन्होने निरबाणो व चंदेलों का पराभव कर खंडेला ,उदयपुर ,रैवसा और कासली पर अधिकार कर लिया

राजा रायसल के १२ पुत्रो में से सात का वंश चला।  ये सभी रायसलोत शेखावत है और इन्ही से सात प्रशाखाओं का विकास हुआ।

१. लाड़ा जी ये रायसल जी के जेष्ट पुत्र थे किन्तु इन को खंडेला की राजगद्दी नही मिली।इनका नाम लाल सिंह था।  सम्राट अकबर इन्हें प्यार से लाडखां कहता था।   इनके वंशज लाडखानी शेखावत है। खाचरियावास ,रामगढ़ ,लामियां ,बाज्यवास ,धीगपुरा ,लालासरी,हुडिल ,तारपुरा ,खुडी निराधणु ,रोरु ,खाटू ,सांवालोदा ,लाडसर लुमास डाबड़ी ,दिणवा,हेमतसर आदि  लाडखानियो के गाँव है।

२.भोजराज जी : इनको उदयपुर वाटी के ४५ गाव जागीर में मिले थे। इनके वंशज भोजराज जी का कहलाते है। भोजराज जी के प्रपोत्र शार्दुल सिंह जी ने क्यामखानी नवाबों से झुंझुनू छीन ली तो झुंझुनू वाटी का पूरा प्रदेश इन के  कब्जे में आ गया ये सादावत कहलाते है। झाझड ,गोठडा ,धमोरा ,चिराणा ,गुढ़ा  ,छापोली ,उदयपुर
वाटी ,बाघोली ,चला ,मनकसास,गुड़ा ,पोंख,गुहला ,चंवरा ,नांगल ,परसरामपुरा आदि इन के गाँव है जिसको पतालिसा कहा जाता है।  शार्दुल सिंघजी के वंशजो के पास खेतड़ी ,बिसाऊ ,सूरजगढ़ ,नवलगढ़ ,मंडावा डुड़लोद  ,मुकन्दगढ़ ,महनसर चोकड़ी ,मलसीसर ,अलसीसर आदि ठिकाने थे.

३. तिरमल जी इन के वंशज राव जी का शेखावत कहलाते है। इनके सीकर व कासली दो बड़े ठिकाने थे। शिव सिंह जी ने फतेहपुर कायमखानी मुसलमानों से जीत कर सीकर राज्य में मिला लिया।  टाड़ास, फागलवा ,बिजासी ,खाखोली ,पालावास ,तिडोकी ,जुलियासर ,झलमल ,दुजोद ,बाडोलास ,जसुपुरा ,कुमास ,परडोली ,सिहोट ,गाडोदा , बागड़ोदा,शेखसर सिहोट ,माल्यासी ,बेवा ,रोरु,श्यामगढ़ ,बठोट ,पाटोदा ,सखडी ,दीपपुरा आदि राव जी का शेखावतो के गाँव है।

४. हरिरामजी के वंशज हरिरामजी  का शेखावत कहलाते है।  मूंडरु, दादिया ,जेठी आदि इनके गाँव है।   

५. राजा गिरधर जी - ये रायसल जी के छोटे पुत्र थे किन्तु खंडेला की राजगद्दी इन्ही को मिली। इनके वंशज गिरधर जी का शेखावत कहलाते है।  खंडेला के अलावा दांता व खुड इनके मुख्य ठिकाने हैं।  राणोली ,दादिया ,कल्याणपुरा ,तपिपल्या कोछोर ,डुकिया ,भगतपुरा ,रायपुरिया ,तिलोकपुरा ,सुजवास ,रलावता ,पलसाना बानुड़ा ,दुदवा ,रुपगढ़,सांगल्या ,गोडीयावास,जाजोद ठीकरिया ,बावड़ी आदि गिरघर जी के शेखावतो के गाँव हैं।

(सन्दर्भ ग्रन्थ  :राव शेखा -ठाकुर सुरजन सिंह झाझड  )






             

Saturday, June 15, 2013

बादळी - चन्द्र सिंह जी बिरकाली

बादळी - (चन्द्र सिंह जी बिरकाली )
राजस्थानी के प्रसिद्ध कवि  चन्द्र सिंह जी बिरकाली की काव्य कृति " बादळी " एक कालजयी रचना है। राजस्थान में वर्षा का महत्व जो भुक्त भोगी है वो ही समझ सकता है। राजस्थान में तो कहावत है कि ' मेहा तो बरसंता ही भला होणी व सो होय ' ग्रामीण परिवेश में आज भी मेह की उडीक होती है क्यों कि आशीर्वाद आट्टा पैकेट में नही मिलता। अनाज खेत से ही आता है।
लम्बी कविता में से कंही कंही से यहाँ उधृत है -

आठूँ पोर उडिकता , बीते दिन ज्यूँ मास !
दरसण दे अब बादळी , मत मुरधर नै तास !!

आस लगायाँ मरुधरा ,देख रही दिन रात !
भागी आ बादळी , आई रुत बरसात  !!

कोरा कोरा धोरिया , डूगा डूगा डैर  !
आय रमां ऐ बादळी , ले ले मुरधर लहर !!

ग्रीखम रुत दाझी धरा , कलप रही दिन रात !
मेह मिलावण बादळी , बरस बरस बरसात !!

नही नदी नाल़ा अठे , नहीं सरवर सरसाय  !
एक आसरो बादळी , मरू सूकी मत जाय !!

खो मत जीवण बावळी , डूंगर खोहाँ जाय !
मिलण पुकारे मरुधरा , रम रम धोरां आय !!

नांव सुण्या सुख उपजे जिवडै हुऴस अपार !
रग रग मांचै कोड मै , दे दरसण  जिण वार !!

आयी घणी उडीकतां , मुरधर कोड करै !
पान फूल सै सुकिया , कांई भेंट धरै  !!

आयी घणी अडिकता , मुरधर कोड करै !
पान फूल सै सुकिया काईँ भेट धरै  !!

आयी आज अडिकता , ,झडिया पान ' र फूल !
सूकी डाल्यां तीणकला , मुरधर वारे समूल  !!

आतां देख उतावली , हिवडे हुयो हुलास !
सिर पर सूकी जावता , छुटी जीवण आस !!

सोनै सूरज उगियो , दिठी बादळीयां !
मुरधर लेवै वारणा ,भर भर आंखडियां !!

सूरज किरण उंतावली , मिलण धरा सूं आज !
बादळीयां रोक्याँ खड़ी , कुण जाणे किण काज !!

सूरज ढकियो बादल्याँ , पडिया पडद अनेक !
तडफै किरणा बापड़ी , छिकै न पड़दो एक !!

सूरजमुखी सै सुकिया ,कंवल रह्या कुमालय !
राख्यो सुगणे सूरज नै ,    बादलीयां बिलमाय !!

छिनेक सूरज निखलियो , बिखरी बदलियाँ !
      

Wednesday, June 12, 2013

महाराणा प्रताप विषयक एक गीत

राणा धीर धरम रखवाला - थुं रजवट रावट वाला !
वीर प्रताप राम रा पोता - जस रा जगत उजाला  !!
भलां पालणो ,खलां खपाणो , चौसठ घडी आप रा चाल़ा !
दो दरयाव तरयो एक साथै , चेटक चढ़बा वाला !
खम्या क्रोड़ दुःख छोड़ सभी सुख - खम्या न खोट खबला !
मेवाडा मेवाड़ बनाई - रजवट री पठशाला  !
एडी ठोड दियो न अंगूठो - बढतो गयो बढ़ला !!
थारो नाम कान सुन होवे ,- मुकन मद दांताला !
मिनख पणों सिखायो सागे - मनख मात्र रा वाला !!
खोटा री छाती में खटके - सात हाथ रा भाला !
एकलिंग रै रिया आसरे - दिया दुश्मण  टाला  !!


Sunday, June 9, 2013

कहावत

१ . एक कहावत कि चिरमिराट मिटज्या पण गिरगिराट कोनी  मीटे।

एक गावं में एक स्यामी आटा मागने के लिए जाया करता था। आटा मांगने के लिए वह एक जाट के घर भी रोज जाता था। जाट के घर एक हट्टी कट्टी खुंडी भैंस थी जिसके सींग बड़े सुंदर थे। स्यामी रोज यही सोचता कि देखूं इन सींगो के बीच मेरा सिर फिट बैठता है या नही ,लेकिन वह रोज हिचक जाता। एक दिन स्यामी जी ने अवसर पाकर भैस के दोनों सींगो में अपना सिर फसा दिया। स्यामी के इस हरकत से भैस भड़क गई और स्यामी को कई दफा उपर निचे पटका।
लोगो ने पूछा यह आप को क्या सूझी जो भैंस के सींगो में सर फसादिया। स्वामीजी ने पीड़ा से कराहते हुए कहा कि " चिरमीराट तो मिट जायेगा पण गिरगिराट नही मिट रहा था। " अब इस बात का गिरगिराट नही है कि मेरा सिर फिट बैठे ग या नही।

२ . एक चमार अपने ससुराल गया। ठण्ड बहुत पड़ रही थी , उसने अपनी सासु को सुनाते हुए कहा :
दो दो मिल सोयो ठंड पडे गी भारी।
सासु भी बड़ी हुंसीयार थी ,उस ने कहा :

अलडी सागे   मलडी सोसी , रामगोपल्यो था सागे !
बुढलियो डण कुवा पर सूं आसी बो पड़ रह सी मांह सागे !!

३ . "बाणया की ताखड़ी चाल्यां बो कोई कै सारे कोनी "
एक बनिया उदास मुंह अपनी दुकान पर बैठा था ,गाँव का ठाकुर उधर से निकला तो उसने पूछा सेठजी आज उदास क्यों बैठे हो। तो बनिया बोला क्या करें आज कल तकड़ी ही नही चलती। इस पर ठाकुर ने व्यंग से कहा कि कल से  हमारे अस्तबल में घोड़ों की लीद तोलना शुरू करदो। बनिये ने सहर्ष स्वीकार कर लिया व दुसरे दिन अस्तबल में जाकर हर घोड़े की लीद तोलने लगा। यह देख कर घोड़ों के अधिकारी ने इस का कारण पूछा तो उसने कहा कि तुम ठिकाने से पैसा तो पूरा लेते हो पर दाना कम खिलाते हो , इसी की जाँच पड़ताल की जाएगी। अधिकारी चोरी करता था सो उसने बनिये का महिना बांध दिया और कहा की ठाकुर से मेरी शिकायत मत करना। दूसरी बार जब ठाकुर उक्त बनिए की दुकान के आगे से निकला तो बनिया प्रसन्न चित था क्यों की उसकी तकड़ी चल गयी थी।

४. बिना मांगे जो भिक्षा मिले वह दूध के समान सात्विक ,जो मागने के बाद मिले वह पानी के समान और जो भिक्षा खीचतान से मिले वह रक्त तुल्य होती है।

अणमांगी सो दूध बरोबर ,मांगी मिले सो पाणी !
व भिच्छा है रगत बरोबर ,जी में टाणाटाणी !!

५. लाख जतन अर कोड बुध , कर देखो किण कोय !
अण होणी होवे नही , होणी हो सो होय  !!

६. अब तो बीरा तनै कह्ग्यो बो मन्नै भी कह्ग्यो।
एक बुढ़िया अपने सामान की गठरी उठाये किसी गाँव जा रही थी ,उसके पास से एक घुड़सवार गुजरा तो बुढ़िया ने उससे कहा की भाई थोड़ी दूर तुम इस गठरी को अपने घोड़े पर रखकर ले चलो तो मुझे कुछ आराम मिल जाये। घुड़सवार ने इनकार करते हुए कहा कि बुढ़िया माई और घुड़सवार  का क्या साथ। पर थोड़ी दूर जाने के बाद उसके मन में कलुष जगा सोचा गठरी को घोड़े पर लेकर भाग चलूं ,बुढ़िया मुझे कंहा पकड़ेगी। यों सोचकर वह वापिस लोट पड़ा। इधर बुढ़िया के मन में भी बात आई कि अगर मैं घुड़सवार को गठरी देती और वो भाग जाता तो मै क्या कर लेती। वापिस लोट कर जब घुड़सवार ने कहा कि ल बूढी माई मैं तेरी गठरी थोड़ी देर अपने घोड़े पर रख कर चलता हूँ। बुढिया ने सहज भाव से कहा 'ना बीरा अब तो जीको तनै कह्गो बो मनै भी कहगो।'

  ७.घर बडो, बर बडो ,बडो कुह्ड दरबार , घर में एक पछेवड़ो ,ओढण आला च्यार !

एक सेठ के गरीबी आगयी बच्चो की शादी भी नही हो रही थी। दुसरे शहर में एक सेठ के लडकी थी उस ने इस सेठ का  पहले काफी नाम सुन रखा था सो नाइ को लड़का देखने भेजा।खाने का तो जैसे तैसे बंदोबस्त हो गया किन्तु जब रात को सोने का समय हुआ तो बिस्तर एक ही था सो नाई को दे देदिया।नाई ने वापस आकर सेठ को कहा सब ठीक ही है केवल ओढने का पछेवडा चार जनों के बीच एक है। सेठ को बिना बोले सारी  वस्तु स्थिति समझ में आ गयी।

8. जिसको अपने विषय का ज्ञान नही उस को आप उस विषय को पढ़ाने के लिए कहें तो  अर्थ का अनर्थ कैसे होता है।
एक दिन स्कुल में संस्कृत के अध्यापक नही आये तो हेडमास्टर जी ने अंग्रेजी के आध्यापक को भेज दिया।गाँवो की स्कूलों में यह आम बात थी। मास्टर जी ने  आते ही बच्चों को  पूछा की संस्कृत के आध्यापक आज आप को क्या पढ़ाने वाले थे। बच्चों ने पुस्तक में से एक संस्कृत का श्लोक मास्टरजी को बता दिया जो इस प्रकार था :
 स्त्री स्य चरित्रम पुरषस्य भाग्यम , देवो न जानाति कुतो मनुष्य।

इंग्लिश के अध्यापक ने जो उसकी व्याख्या की वह इस प्रकार थी :
स्त्री का चरित्र सुनकर या देख कर पुरुष तो भाग ही जाता है। देवता तो उस के पास ही नही जाते। अगर मनुष्य चला गया तो कुत्ता हो जाता है।

9. मतलब री  मनवार, न्यूत जिमावे चूरमो !
     बिन मतलब मनवार ,  राब न पावे राजिया  !!
गर्मी में राजस्थान की राबड़ी का स्वाद और उस की सीरत का कोई जवाब नही।


गैला शब्द का हिंदी में अनुवाद नही हो सकता। बावला भी ऐसा ही शब्द है। यह पागल पण कुछ अलग तरह का है। गैला व बावला प्यार से भी कहा जाता है।



१ ० . डा . विद्यासागर शर्मा  की एक कविता को नमूनों -
साग में पानी ही पानी उस में से गोता  लगाकर मटर का दाना ढूढ़ लेना हर किसी के बस की बात नही ,देखिये :

"जान मांय  राजलदेसर गयो जणा जोतो ,
मान्यो कोनी जिद कर'र साथै चढ़गो पोतो ,
छोरो के हो काग हो ,
तरीदार साग हो ,
मटर ल्यायो काढ'र ,मार कटोरी में गोतो !"


१ १ . आंधा स्यामी राम राम !
        कै -आज तेरे ही नुतो है।
१ २ . सेफां बाई राम राम
      राम-मारया तूँ मेरो नाम कैंया जाण्यो।
      तेरी तो सकल ही कवै है.
13.ठाकरां टाबरा रा नाम कांई ?
     परवत सिंह ,पहाड़ सिंह ,गिरवर सिंह डूंगर सिंह।
    सगला भाटा ही भाटा।

फूहड़ व कर्कशा नारी के संबंध में कहावतें -

१ पुरुष बिचारो के करै ,जे घर मैं नार कुनार।
   बो सिंमै दो आंगली बा फाड़ै गज च्यार।।
२ एक सेर की सोला पोई ,सवा सेर की एक।
   बो निगोड्यो सोला खायगो ,मैं बापड़ी एक।.
३  इसी रांड का इसा ही जाया ,
   जिसी खाट बीसा ही पाया।
४ कांसी कुति कुभरजा ,अण छेड़ी कूकन्त।
५ चाकी फोड़ूं चूल्हो फोड़ूं ,घर कै आग लगाउंगी।
   चालै है तो चाल निगोड्या ,मैं तो गंगा नहाऊँगी।।
6. लूखा भोजन मग बहण, बड़का बोली नार।
    मंदर चुवै टपूकड़ा पाप तणा फल च्यार।।
७. धान पुराणों घी नयो ,आज्ञा कारी नार।
    पथ तुरी चढ़ चालणों ,पुण्य तणा फल च्यार।।
८. साठी चावल भैस दूध ,घर सिलवन्ती नार।
    चौथी पीठ तुरंग री ,सुरग निशाणी च्यार।।
९. इज्जत भरम की कमाई करम की लुगाई सरम की।


मिश्रित कहावतें -
१ आये भाण लड़ां ,ठाली बैठी के करां।
२ आँख फरुकै दाहिणी ,लात घमूका सहणी।
   आँख फरुकै बांई ,कै बीर मिलै कै सांई।।
३ एक ओरत हर चीज में पडोसी से होड़ करती थी।  होली का त्योंहार पर पडोसी की होड़। उस ने पोळी यानि दरवाजा व उसमे कमरे बनवाये तो इस ने भी बनाये। अब इस को बेटा पैदा हुआ तो इस ओरत ने ताने में कहा अब होड़ में बेटा भी जण -

"होड़ां होळी ,होड़ां पोळी होड़ां बेटो जण ये भोळी। "

४ जठै भागां भागी जाय बठै भाग अगाऊ जाय।
५ बाईजी महलां सूं उतरया ,भोडळ को भळ को।
  बतलाया बोलै नही, बोलै तो डबको।।
६ एक किसान की बीबी रोज खुद खीर बना कर पति के दोपहर के भोजन के लिये आने से  पहले खाले ती। एक दिन  किसान के हल की कुश टूट गयी सो वह घर जल्दी आ गया।  पत्नी पड़ोसी के  यहां गयी हुयी थी और इसे भूख लगी हुयी थी सो  रसोई  जाकर जब इस ने खीर देखि तो बैठ कर पूरी खा गया व लोहार के पास कुश ठीक कराने चला गया। पीछे से पत्नी आयी और पूरी बात समझ में आ गयी। अब उसने बच ने के लिए पति को ही फसा दिया। राजा के बेटे को सांप ने काट लिया ,इस औरत ने राजा को बताया की मेरा पति सांप का जहर उतारना जानता है। राजा ने उसे पकड़ बुलाया। तब उसने कहा -

" क्यूँ कुश टूटै क्यूँ घर आऊं ,क्यूँ राजा घर बैद कहाऊं।
 ओरूं न खांऊँ रांड की खीर ,सहाय करी मेरा गोगा पीर।।"

गोगाजी साँपों के देवता हैं।

७ सेरे क चून उधारा री , कोई गुड देदे तो।
  गटक मलीदा करल्यूं री ,कोई घी देदे तो।.
 मरती पड़ती खाल्यूं री कोई करदे तो।
८  गुड कोनी गुलगला करती ,ल्याती तेल उधारो।
   पण्डे में पाणी कोनी ,आटे को दुःख न्यारो।
   कडायो तो मांग लियाती , बलितै को दुःख न्यारो।
९ एक औरत ने पिंजारे को रुई पीन ने के लिये दी। पिंजारे ने रुई पिंज दी। औरत जब लेने गयी तो उसे रुई ज्यादा लगी सो उसने कहा की इसको तोलने की कोई जरूरत नही है ,तुमने मेरी रुई ही तो पीनी है। पिंजरा मन ही मन हंसा और सोचा -

तोलैगी जद रोवैगी ,पलड़े घाल पजोवेगी।

१० मैं रांड कुवा मै पड़ो , थे तो जीमल्यो ,कै थारलै कुवा मैं तो मैं पड़गो।

एक किसान की बीबी रोज माल मलीदा बनावे व खाए। किसान जब दोपहर में खाना खाने आवे तो उसको सुखी रोटी कांदे के साथ पकड़ा दे। एक दिन किसान खेत से जल्दी आगया। पत्नी पड़ोस में गयी हुई थी उसने खीर चूरमा खा लिया व वंही सो गया। पत्नी पड़ोस से आई रोटी बनाई व पति को आवाज लगाई की रोटी खालो उसने कहा की तूं ही खाले। उसने रोज की तरह कहा 'मैं रांड कुवा मै पडूँ थे ही खाल्यो ,तब किसान ने कहा की आज तेरे कुये में मै पड़ गया हूँ। चुप चाप खाना खाले।


11. गुण बिन ठाकर ठीकरो ,गुण बिन मीत गंवार।
     गुण बिन चंदन लाकड़ी ,गुण बिन नार कुनार।।

Wednesday, June 5, 2013

डिंगल के सर्व श्रेष्ठ महाकवि हिंगलाज दान जी कविया

राजस्थान पत्रिका में नगर परिक्रमा के नाम से एक स्तम्भ आता था। इस में  लेखक की जगह  'नागरिक ' नाम से एक पारिक जी लिखते थे शायद उनका नाम राजेन्द्र परिक था। उन्होंने हिंगलाज दान जी के बारे में दस - बारह अंको में लिखा है। इन की कटिंग पिताजी ने मुझे भेजी थी , उस समय पढ़ कर रख दी। अब सेवा निवृति के बाद दुबारा पढने का मोका मिल रहा है और व्यापक रूप से इसको शेयर करने के साधन भी आज उपलभ्द हैं  सो उसी के आधार पर सन्क्षिप्त में लिखने का प्रयास है।

हिंगलाज दान कविया सेवापुरा के रामप्रताप कविया के दो पुत्रो में जेष्ठ थे। उनका जन्म माघ शुक्ला १ ३ शनिवार सम्वत १ ९ २ ४  में सेवापुरा में हुआ था। तब उनके दादा नाहर कविया विद्यमान थे और उन्ही से इन्होने अपनी आरंभिक शिक्षा पाई। जब वे साढ़े तीन वर्ष के थे तो पिता बारहठ रामप्रताप कविया ने उन्हें बांडी नदी के बहते हुए जल में खड़ा करके जिव्हा पर सरस्वती मन्त्र लिख दिया था। बांडी सेवापुरा के पास हो कर ही बहती है और इस में बरसात में ही पानी आता है। बहता पानी निर्मल गंगा की तरह ही पावन माना जाता है। बांडी नदी के प्रवाह के प्रति भावना व आस्था के साथ पिता ने जो मन्त्र दिया ,उसने अपना चमत्कारिक प्रभाव दिखाया। पांच वर्ष  अल्पायु में ही हिंगलाज दान की कवित्व -शक्ति प्रस्फुटित हो गयी और अपनी विलक्षण स्मरण शक्ति तथा वंशानुगत संस्कारों के फलस्वरूप वे डिंगल के सर्वश्रेष्ठ महाकवि के रूप में प्रतिष्ठित और मान्य हुए।
डिंगल व पिंगल के विद्वान होने के साथ ये संस्कृत के भी उदभट पंडित थे। उन्हें अमरकोष पुरा कंठस्थ था।

 (अमरकोश संस्क्रत की व्याकरण थी ,शब्द कोष था। पिताजी स्वर्गीय ठा . सुरजन सिंह जी ब्रह्मचर्य आश्रम नवलगढ़ के स्नातक थे , जितना डिंगल व पिंगल का ज्ञान था उतना ही संस्कृत व अंग्रेजी का ज्ञान था। उन्होंने मिशन हाई स्कूल  ,जयपुर से दसवी १ ९ ३ ०  में पास करली थी। प्रथमा व साहित्य भूषण इलाहबाद व काशी से किया था।   अमरकोष के श्लोक जब उनसे सुनता था तो लगता था की आप किसी स्वप्न लोक में खो गये हो - एक श्लोक विष्णु के लिए था  ' अमरा अजरा विभुधा देवा निर्झरा सूरा ----- आगे की पंक्तियाँ भूल रहा हूँ। यह केवल अमरकोष क्या है उस को समझ ने के लिए लिखा है। )

स्मरण शक्ति तो ऐसी थी की दोहा सोरठा जैसे छन्द एक बार सुन लेने लेने पर ही याद  हो जाते थे। छपये ,
कवित और सवैये जैसे छंद भी दो बार सुन लेने के बाद वे अक्षरक्ष सुना देते थे।डिंगल का गीत छंद बड़ा व कठिन होता है , किन्तु वह भी तीन बार सुन लेने पर उन्हें याद हो जाता था। किसी गीत को लय के साथ पांच बार सुना देने पर उसे वे विपरीत क्रम में दोहरा देते थे। हिंगलाज दान जी बड़ी गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे ,कभी कोई शेखी नही बधारते थे किन्तु एक प्रसंग में उन्होंने कह ही दिया कि उन्हें पूरा अमरकोष कंठस्थ है। कवी शब्दकोश 'मानमंजरी ' के चार सो दोहे भी उन्हें कंठस्थ ही नही थे बल्कि वे वे प्रत्येक शब्द का यथोचित उपयोग भी जानते थे।

परिक जी ने एक अनुभव लिखा है , उन्ही की भाषा में -
कोई चोपन वर्ष (यह लेख शायद १ ५ - २ ० वर्ष पुराना है )पुराणी बात होगी . सोलह वर्ष का मै दीपवाली की धोक देने के लिए जयपुर के साहित्य मनीषी पुरोहित हरिनारायण शर्मा  बी .ए . विद्याभूषण के पास गया था। मै जब पंहुचा तो एक नाटे कद के वयोवृद्ध सज्जन , जिनकी पगड़ी और अंगरखे का लिबास उनको पुराणपंथी जता रहा था, पुरोहित जी से विदा लेकर वहां से जा रहे थे और पुरोहित जी ,जो उन सज्जन से कद में लगभग डेढ़ नही तो सवाये अवश्य थे ,अपनी झुकी कमर के साथ उठ खड़े हुए थे और बड़े आत्मीय भाव से उनके साथ द्वार  तक जाकर उन्हें विदा कर रहे थे। जब वे चले गये और पुरोहित जी अपने स्थान पर लोट आये तो मेरी और देख कर पूछने लगे  " भाया थे आने जाणो छो ज्यो अबार अबार गया छे ?' मैंने गर्दन हिलाकर न में जवाब दिया , पुरोहित जी ने दूसरा प्रश्न किया " थे मैथली शरण गुप्त न जाणो छो ? " मैंने हाँ में उतर दिया ...... तो पुरोहित जी ने कहा " ये जो गया वै मैथली शरण गुप्त सूं इक्कीस छे , उन्नीस कोनै। बहुत बड़ा कवी छ ये हिंगलाज दान जी कविया "

१ ९ ४ ५ ई . में हरिनारायण जी पुरोहित का निधन हुआ तो उन का श्रधांजलि अंक पारिक जी ने निकाला व हिंगलाज दान जी को अपने परम मित्र के लिए काव्यांजलि लिख कर भेजने का निवेदन किया। उन्होंने जो मरसिया लिख भेजा वो  इस प्रकार है :

इग्यारस सुकल मंगसर वाली , दो हजार पर संवत दुवो !
यण दिन नाम सुमरि नारायण , हरिनारायण सांत हुवो  !!
परम प्रवीण पिरोंथा भूषण , विधा भूषण वृद्ध वयो  !
भगवत भगत उर्जागर भारथ , गुणसागर सुरलोक गयो !!
करि मृत लोक जोखा कान्थडियो , घट छट कायो तीकण घडी !
पुहप झड़ी लागी सुरपुर में , पुर जयपुर में कसर पड़ी !!
भायां ज्यूँ मिलतो बडभागी , घरी आयां करि कोड घनै !
मिलसी हमें सुपने रै मांही , तनय मना पारिक तणे  !!
हाय पिरोथ , अदरसण ऊगो , हाथां पाय सपरसण  हार !
जुनू मित्र सुरगपुर जातां , सुनो सो लागे संसार  !!

मरसिया क्या है , कवी ने अपने प्रिय मित्र के विछोह पर अपना हृदय ही उड़ेल कर रख दिया है। भायां ज्यूँ मिलतो बड भागी , घरि आयां करि कोड घणो और जूनो मित्र सुरगपुर जातां ,सुनो सो लगे संसार  , मार्मिक शोकोदगार हैं।  'पहुप झड़ी लागी सुरपुर में , पुर जयपुर में कसर पडी ' रिक्तता का आभास करा दिया।

मुझे इनकी कविता में रूचि निचे लिखे पद्य को सुनकर हुयी :

झाल्यो बळ झुंपडा , कालजो हाल्यो किलाँ !
दबगी गोफ्याँ देख , टकर खानी गज टिल्ला !!
खग ढाला बिखरी , जेलिया जोड्या जिल्ला !
धणीयारी धातरी , प्रातरी लेवे पुल्ला !
जोड़ता हाथ थाने जिका , उभा हाथ उभारिया !
गढ़ पत्यां आज कैठे गई , थारी तेग घनी तरवारिया !!

इन की रचनाओं में  'मेहाई महिमा ' मृगया -मृगेंद्र ' 'आखेट अपजस '   'दुर्गा बहतरी 'व फुट कर गीत व कवित जिन में कुछ प्रकाशित व अप्रकाशित  है।

मृगया मृगेंद्र  कथा यूँ चलती है - शंकर के शाप से मृत्यु लोक में उत्त्पन मृगराज ने विन्ध्य चल की पर्वत श्रेणी में बड़ा आतंक मचाया और पहाड़ी मार्गो को अवरुद्ध कर दिया। हाडोती के हाडो में कोई ऐसा नही था जो उसका वध करने का साहस दिखाता। वह अपनी सिहनी के साथ घूमता घामता मारवाड़ के कुचामन के पहाड़ की और आ निकला और वंहा एक कन्दरा में रहने लगा। तब कुचामन के ठाकुर केशरी सिंह थे व उनका कुंवर शेर सिंह  बड़ा पराक्रमी व बलि था। यहाँ कवि ने कुचामन नगर का सोंदर्य ,वहां के निवासियों और हाथी घोड़ों -ऊँटो आदि का बड़ा सजीव वर्णन किया है। कुंवर शेर सिंह को जब इस सिंह के आने की खबर मिली तो उन्होंने इसके शिकार की तैयारी की। वन में जाकर उन्होंने सिंह को हकाला -चुनोती दी। सिंह निकलकर आया और शेर सिंह ने उसे अपनी तलवार से ही धराशायी कर दिया।

आखेट का वर्णन बड़ा ही रोचक व सजीव है। भाषा पर हिनगलाज दान  जी का पूर्ण अधिकार था। कुवर शेर सिंह व उनका  शिकारी दल जब निकट आ जाता है  तो ' गजां गाह्णी नाह सूतो जगायो ' , सिंहनी अपने सोते हुये नाथ को जगाती है -

सती रा पती ऊठ रै काय सोवे , जमी रा धणी ताहरी राह जोवे !
बजे सिंधु वो राग फोजां बकारै , थई थाटरां पेर चोफेर थारे  !!
 दलां भंजणा , ऊठ जोधा दकालै , घणा रोस हूँ मो सरां हाथ घालै !
अडिबा खड़े दूर हूँ सूर आया , जुड़ेबा कीसुं जेज लंकाल जाया !!

भावार्थ : हे सती के पति ! हे मृग राज नीद से उठो सो क्यों रहे हो। ये देखो इस जमीन के धणी ,जमीन के मालिक तुम्हारी राह देख रहे हैं।  सिंन्धू राग बज रहा है ,फोज युद्ध घोष कर रही है। सेना ने तुम्हे चोतरफ़ से घेर लिया है। हे दल भन्जन ! उठो ये योद्धा तुमे ललकार रहे है।बड़े क्रोधित हो ये हमारे सिरों पर हाथ ड़ाल रहे है।ये सूर सिंह अड़ कर खड़ा है। हे योद्धा इन से भीड़ में देर कैसी।

बरूंथा गजां गंजणी एम बोली ,खुजाते भुजा डाकि ये आँख खोली !
द्रगां देख सुंडाल झंडा दकुला , प्रलय काळ रूपी हुवो झाल पूलां !
करे पूंछ आछोट  गुंजार किधि , बाड़ेबा अड़े आभ हूँ झंप लिधि !

भावार्थ : सिंहनी से यह सब सुन कर सिंह कुपित होता है , भुजा को खुजाते हुए सिंह ने आँख खोली। गुस्से में भरकर पूंछ को सीधी कर गर्जना की और जैसे आसमन में अडना है वैसे छलांग लगा दी।

फिर सिंह को देख कर शेर सिंह अपनी तलवार लेकर उस पर झपटे , शेर से शेर भिड गया। इस द्वंद का रोमंचक दृश्य है -

लखे सेर नू सेर केवाण लीनी , भुंवारां भिड़ी मोसरां रोस भीनी !
कह्यो साथ नु लोह छुटो न कीजे , लडाई उभै सेर की देख लीजै !!

सिंह के शिकार के बाद सिंहनी का भी शिकार किया गया। कवि की कल्पना देखते ही बनती है। -

सती सिंघणी पोढ़ीयो पेट स्वामी , बणी संग सहगामिणी अंग बामी !
सताबी तजे मद्र रा छुद्र सैला , गया दम्पति अद्र कैलास गेलाँ !!

इस प्रकार मृत्यु लोक में अपना शापित जीवन समाप्त कर सिंह दम्पति पुन: कैलास पर चले गये।

 
  








Friday, May 24, 2013

राजस्थान में छपनिया अकाल की स्मृति हमारे बचपन तक पुराणी पीढ़ी में ज्यों कि त्यों बनी हुई थी। यह दुर्भिक्ष विक्रमी सम्वत १ ९ ५ ६  यानि इसवी सन  १ ८ ९ ९  में पड़ा था। मेरे बचपन से कोई ५ ४ वर्ष पहले। उस समय तक छपनिया काल के नाम से ही पुराणी पीढ़ी में दहशत सी पैदा होती थी। अकाल आज की नई पीढ़ी के लिए न समझ में आने वाली बात है, किन्तु उस अकाल के समय लोगो के पास न्योलियो में पैसे होने के बाद भी अनाज नही होने से मृत्यु के मुंह में जाना पड़ा। इस सम्बन्ध में एक कवित है जो इस प्रकार है :

निरभय नारायण सुधि सिर नाऊँ ,
पर हर संशय भय बुद्धि वर पांवु!
सम्वत छपने रो कवण सिर लोको ,
लोकिक लेवण ने सांमल ज्योलोको  !!१
पांचो ,आठो , दस पनरो खू पडयो,
सतरे  बिसे हय खतरे में खडिया  !
पुलियों पचीसो चोतिसो चुलयो ,
अड़तालिसो भी अंतर आकुलियो !!२
पीढ़ी पर पीढ़ी पोतो जी पाया ,
अगले कालारां दादोजी आया  !
कालप चावी कर भावी भुज भेटी ,
मोटा मोटा री माविती मेटी  !!३
सुख सूं सूती थी पिरजा सुखियारी ,
दुष्टि आंतां ही करदी दुखियारी  !
जग में उसरियो खापरियो जेरी ,
वाला बिछोडण बापरियो बैरी !!४
माणस मुरधरिया  माणक सम मूंगा ,
कोडी कोडी रा करिया श्रम सुंगा  !
डाढ़ी मूं छाल़ा डलिया मै डूलिया ,
रलियाँ जायोड़ा गलियाँ मै रुलिया !!५


आफत मोटि न खोटी पुल आई ,
रोटी रोटी न रैयत रोवाई !
आड़ी ओंखलिया खायोड़ा आदा ,
लाडा कोड़ा में    जायोड़ा लाडा  !!६
सारी सृष्टि में कुंडल छल करियो ,
भारी हा हा रव भूमंडल भरियो  !
वसुदा काली री ताली तड बागी ,
भिडिया सोनारी चिड़िया पड़ भागी !!७
महनत मजदूरी मासक घण मोला,
बिलखा बिगतालू  आसक अण बोला !
बांठा बांठा में ठाठा ठा ठरिया ,
भुका मरतोड़ा मरिया गुण भरिया !!८
खांचे शुकर वत कूकर भिनकावे ,
जोगा कांपन तन खापण विनजावे !
मुरदा मरघट में पड़िया नह मावे ,
सीडिया बासे सब भकरन्द भभकावे !!९
आडा खाड़ा में भोडक अडबडता ,
सन्ता आसण ज्यूँ तुंबा तड़ बडता !
ग्रिधा गरणावे खावे तन खांचे ,
राम द्वारा में रांडा ज्यूँ राचे  !!१ ०

सतियां महा सतियाँ केता तन सोहे ,
मधुरि बाणी मुख प्राणी मन मोहे !
राजपूताणी रुच सिंचाणी सिरखी ,
नेणा जल भरती सेणा थल निरखि !!१ ४
सुंदर सुकुलिणी झीणी साड़ी में ,
जुलाफां सपणी जिम अपनी  आड़ी में !
सूनी ठाणी में सेठाणी सोती ,
रेगी बिरयाणी  पाणी ने रोंती !!१ ५
जंगल जंगल में जूनी जणयाणी ,
धोला धोरयाँ री धूनी घरयाणी !
खोटे तोटे नग कणीया बिखरगी ,
माहब मोटे दुःख जाटणियां मरगी !!१ ६
सूकी सुदराणी   झाडा रे सारे ,
लादी बिदरानी बाड़ा रे लारे !
सद व्रत करतोड़ी वर्णाश्रम सेवा ,
काड़े मरतोडी रेवा तट केवा !! १ ९

 





Friday, May 17, 2013

सामन्त या जागीरदार

जब से वादों का जन्म हुआ तब से नये बुधि जीवी वर्ग ने समाजवाद साम्यवाद आदि की तर्ज पर एक नया नार गढ़ा सामन्तवाद के नाम का। जब तब राजपूत वर्ग को कोसने के लिए इसका उपयोग होता रहता है। इसकी शुरुआत कांग्रेस पार्टी ने अपने हित साधने के लिए की। प्रचारतन्त्र में माहिर लोगो ने इतनी ज्यादा वैमनस्यता की भावना से राजपूतो को बदनाम किया कि आम जनता इस को सच समझ ने लगी।और इस के लिए जाती विशेष के नाम का उपयोग न  करते हुए  इसे सामन्तवादी तत्व कह कर बदनाम किया गया।
वास्तव में सामंत श्रीमंत से बना शब्द है जिसको राजा ने श्रीमंत बनाया वह सामंत। राजपूतों की रियासतों में स्थिति भिन्न थी।यह राजपूत सामंत नही थे राजा के कूटम्बी थे क्यों कि राजा तो एक ही लड़का हो सकता था बाकि को जागीर देदी  जाती थी।  जागीरदार ,ठिकानेदार ,जमींदार और भूस्वामी अधिकार और कर्तव्य की दृष्टी से न्यूनाधिक अंतर से समानार्थक शब्द है। यह सो दो सो बीघा भूमि से लेकर सो दो सो गाँवो के स्वामी तक होते थे। ये गाँव इन्हें दान दक्सिना में नही मिले थे किन्तु अपने बहुबल से अर्जित थे। राजतंत्रात्मक प्रणाली में इनका बड़ा महत्व था यह राज्य के स्तंभ थे। जागीर क्षेत्र की  प्रजा की चोर लुटेरों से  रक्षा करना जहाँ इनका मुख्य दायत्व था, वहां राज्य पर शत्रुपक्ष के आक्रमण के समय अपने भाई बंधुओं के साथ युद्ध में भाग लेना इनका धर्म था। यह कोई वैतनिक सेना नही थी बल्कि राज्य में अपनी  भागेदारी व अपने कुल की मर्यादा व रक्षा करना कर्तव्य था ,कुल गोरव इस से विमुख होने नही देता था। प्रजा की रक्षा के लिए मरना मारना तो खेल था। जिस गाँव में राजपूत का एक भी घर होता था ,वहां अन्याय नही हो सकता था। 

कुच्छ लोग पुर्वग्रस्त थे बाकि शहरो में लोगो को वस्तुस्थिति मालूम नही थी। गाँवो में हमारे बचपन के दिनों में जब जागीर उन्मूलन हुआ ही था , वहां के आम लोग राजपूतो की इन विशेषताओं के कायल थे।

ई.सन  १ ९ ६ ६ से लेकर ई. सन  १ ९ ७ २ तक मैंने ९ वि से लेकर ग्रेजुएशन तक की पढाई नवलगढ़ से की।गाँव से जुडा रहा। लोग बड़ा प्यार व सम्मान देते थे। खेतों में जाना सभी से इंटरेक्ट करना बड़ा अछा लगता था। उस जमाने में कुवे पर टूबवेल लग चूका था। हमारे यहाँ एक माली व एक गुजर कुवे पर सीरी थे। बारानी खेती में चमार ही मुख्य रूप से काम करते थे। वो लोग दादोसा के बारे में जो बात करते थे वो मेरे पूज्य पिताजी ठा . सुरजन सिंघजी की अपने पिताजी यानि मेरे दादोसा के बारे में लिखे इन दोहों से स्पष्ट हो जाती है।

दिव्य मूर्ति मेरे पिता , नमन करूं सतबार !
चार दशक मम आयु के , बीते तव आधार  !!
रजपूती भगती रखी , करी धर्म प्रतिपाल  !
निबल जनां सहायक रह्या , दुष्ट जना ऊर साल !!
मुख मंडल पर ओपतो , रजपूती को तोर !
दाकलता जद धूजता , दुष्ट आवारा चोर !!
संध्या वंदन नित करी , अर्ध सूर्य नै देर  !
गीता रामायण पढ़ी , बेर बेर क्रम फेर  !!
बां चरणा में बैठ , म्हू सिख्यो गीता ज्ञान !
जीवन मरण रा रहस नै , समझण रो सोपान !!
म्हू  अजोगो जोगो बण्यो पिता भक्ति परताप !
याद करूँ जद आज भी , मिटे पाप संताप  !!

रजपूती व भक्ति बड़ा ही सामंजस्य है और इसी लिए राजपूत वीर होने पर भी क्रूर नही हो सकता। यह आज भी उतना ही सत्य है।