Tuesday, September 24, 2013

दोहे व उन का सन्दर्भ

रहीम बहुत ही उदार व दानी था। अकबर के  नवरत्नों में था। अछा कवी था। एक दफा कवि  गंग उन से मिलने आये तो उसने कवि को काफी सम्मान व दान दक्षिणा दी -तो गंग ने एक कवित कहा ,जिसका अभिप्राय था की हे नवाब तुमने ऐसा देना कहाँ सीखा कि जैसे -जैसे तुम्हारे हाथ देने के लिए उपर उठते हैं तुम्हारी आँखे नीची हो जाती हैं ,जब कि देने वाले का सिर तो घमंड से ऊँचा उठा रहता  है।

सीखे कहाँ नवाब जू ,ऐसी देनी दैन।
ज्यों ज्यों कर ऊँचो उठे ,त्यों त्यों नीचे नैन।।

रहीम ने जो उतर दिया वह उसकी उदारता व स्वभाव के अनुकूल ही था -कहता है कि देने वाला तो उपर वाला है और लोग मुझ पर भ्रम करते है ,बस यह सोचकर ही आँखे नीची हो जाती हैं।

देनहार कोई और है ,देत रहत दिन रैन।
लोग भ्रम मो पे धरे ,ताते नीचे नैन।।

शांहजहाँ  रहीम से नाराज रहता था  और जब बादशाह बना तो उस ने रहीम खानखाना से जागीर छीन ली। रहीम निर्धन हो गया  व चित्रकूट चले गया। और कहा की जिस पर विपदा पडती है वह चित्रकूट आता है यहाँ अवध नरेश राम रमते है -

चित्रकूट में रम रहे ,रहिमन अवध नरेश।
जा पर विपदा परत है ,सो आवत यही देश।।

मांगने वालों  ने यहाँ भी उसका पीछा नही छोड़ा तो उन से उस ने कहा कि अब म वो रहीम नही रह गया हूँ मैं भी  दर दर फिर कर मांग कर भोजन कर  रहा हूँ

वे रहीम दर दर फिरे , मांग मधुकरी खान्ही।
यारो यारी छोड़ दो , वे रहीम अब नांही।।

  

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