राजस्थानी का बात साहित्य
राजस्थानी भाषा का पध्य साहित्य जिस परिणाम में विपुल व समृद्ध है उसी प्रकार राजस्थानी गद्य साहित्य
भी प्रचुर व वैवध्य पूर्ण है। ख्यातें ,बातें ,पत्र -परवाने ,वंश वृतांत ,गप्पें ,ओखण (व्यंग ) आदि प्रसिद्ध हैं।
ख्यातों ,वंश वृतान्तो एवं पत्र -परवानो आदि में एतिहासिक चरित्रों ,घटनाओं व प्रसंगो का विवरण मिलता है।
और बात क्रम में एतिहासिक व काल्पनिक दोनों प्रकार की रचनाये उपलब्ध होती हैं। इस में बात साहित्य
का बड़ा महत्व है। गद्य का यह अंग शिक्षित और अशिक्षित दोनों कोटि के जन मानस की रुचि तथा पसंद
की वस्तु है। वार्ता साहित्य विषय की दृष्टी से अति विस्तृत और वैविध्य पूर्ण है। इसमें मानव समाज की
धार्मिक प्रवृतियों , राजनैतिक गुथियो ,मानसिक ऊहापोह ,एतिहासिक घटना -चक्रों के वृतांत ,प्रशासनिक
ज्ञातव्य,आदर्श नीति और उपदेश के अनेकानेक प्रसंग गुंफित हैं। इतना ही नही बल्कि लोक मानस की
भावनाये एवं रुचियों की समग्र परिचित प्रच्छन -अप्रच्छन रूप से बातों में भरी पड़ी हैं। बातों में मानव तो
क्या पशु पक्षियो ,देवी देवताओं तथा गन्धर्व ,यक्ष ,किन्नरों तक को मानव भाषा में बाते करते प्रगट किये गये
हैं। पशु पक्षि मानव भाषा बोलते हैं। वे मानव पात्र की भांति अपने आश्रय दाता की प्र्तुहता से रक्षा करते हैं।
प्रवसन काल में सुख दुःख के सन्देश लाते लेजाते हैं। इस प्रकार पक्षियो का मानवीकरण कर मानव समाज
के मित्र एवं हितेषी के रूप में उनका चित्रण किया गया है।
बातों में युद्ध की भयानकता ,रूप सोंदर्य ,हास्य विनोद के गुद गुदा देने वाले छींटे और वज्र कठोर हृदय तक को
पिघला कर द्रवित करने वाले अनेक प्रकरण प्राप्त होते हैं। करुना के स्वर बातों में अनेक स्थलों को भिगोते
मिलते हैं। बात साहित्य में करुणा के प्रसंग मोटे तोर पर कन्या की विदाई ,सास ननद के कठोर व्यवहार
,सोतिया डाह,वंध्यापन का लांछन, पति वियोग ,ठग चोर ,दुराचारियों के कैतवपाश में पड़ जाने ,मिथ्या
आरोप और प्रियजनों की मृत्यु आदि के प्रसंगो में आते हैं।मृत्यु के विभित्स रूप का वर्णन भयावह होता है
परन्तु राजस्थानी साहित्य की यह अनूठी खूबी है की युद्ध में वीरगति प्राप्त प्रियजनों के प्रति विलाप करने का
वर्णन नही किया जाता है। रणस्थल की मृत्यु पर मांगलिक तथा वरेण्य रूप अंकित किया गया है। जुन्झारों
की मृत्यु पर क्रन्दन करने की राजस्थान की परम्परा नही है। युद्ध मृत्यु को शिवलोक ,ब्रह्मलोक ,विष्णुलोक
सूर्यलोक के अलौकिक वैभव के प्रदाता के रूप में चित्रित किया गया है। इस प्रकार युद्ध में वीरगति प्राप्त करने
के पिछे भारतीय दर्शन की परंपरा का परिपालन लक्षित होता है।
राजस्थानी भाषा की जिन बातों में एतिहासिक तथ्यों को आधार माना गया है उन बातों को "परबीती बात"
और जिन कहानियों में कल्पना के पंख लगाये गये उन्हें" घर बीती" के नाम से अभिहित किया। ये दोनों दोनों
ही प्रकार की कहानिया ,राजस्थानी में हजारों की संख्या में कही -सुनी जाती हैं। सदियों तक मौखिक परम्परा
से ये कहानियां राजस्थानी जन मानस में आशा ,अल्हाद, हर्ष -विषाद ,उत्साह-उमंग ,शिक्षा -सदाचार और
आमोद -मनोरंजन के भावों को वितरित करती रही है। राजा से रंक ,निर्धन से धनी , पंडित से अपंडित ,तक
समान रूप से जिन रचनाओं ने कौतुहल उत्पन्न कर सम्मान प्राप्त किया ,उन रचनाओं (बातों ) के लेखकों
का आज प्रयत्न करने पर भी नाम धाम का पता लगा पाना संभव नही है। ऐसी दशा में यह परिचित नही हो
पाता की इन कहानियों का जन्म कब हुआ ? समय पर आलेख बद्ध नही होने के कारण कुछेक एतिहासिक
प्रसंगो वाली बातों के अलावा अन्य के रचना काल ,रचना स्थान ,रचनाकार और रचना काल की भाषा पर भी
विचार नही किया जा सकता। यह तो केवल जन निधि है, जो जन कंठो पर अनुप्रमाणित है। राजस्थानी
कहानियां जन मुखों पर जीवित रही और उन के कहने वालों के कला कौशल से प्रसिद्धि प्राप्त कर सकी ,बस
यही इनकी प्राचीनता का अध्यावधि इतिहास माना जाता रहा है।
राजस्थानी बातों के कहने की भी अपनी एक प्रकार की पद्धति रही है। और वह यह कि श्रोता समाज के
अतिरिक्त "कहानी कहता " व "समर्थन करता " दो मुख्य पात्रों पर यह कहानी चलती है। यदि समर्थन करता
जिसे हुंकारा देने वाला कहा जाता है समर्थन करने में एक बार भी ऊँघ गया तो कहानी का आनंद किर किरा हो
जाता है।
कहानी कहने की कला राजस्थान की कुछ जातियों का परम्परागत पेशा रहा है। जब राजस्थान के टीलों
,घाटियों, नालों और मैदानों में आबाद गांवों में अपनी वृति के लिए आये हुए 'बडवाजी' या इस कहानी कला
का कोई दक्ष वक्ता कलाकार शीतकाल की लम्बी रातों में गाँव के चौपाल की 'कंऊ' ( आज की भाषा में camp
fire ) पर अपना आसन जमा कर जब बात कहना प्रारंभ करते थे ,तब अतीत राजस्थान के गर्वीले
एतिहासिक दिनों की ,रणबांकुरे कर्मवीरों की ,मर कर जीने वाले सपूतों की स्मृतियाँ ताजा बनकर कुछ काल
के लिए चित्र पट की भांति नाच उठती थी। उस समय श्रोताओं के सामने अनेक घटित -अघटित ,लोकिक -
अलौकिक दृश्य घुमने लगते थे। श्रोता अपने को भूल कर अतीत की घटनाओं की भांति युद्ध क्षेत्रो में शत्रु सेना
पर प्रहार करने के भावों की अनुभूति करते जन पड़ते थे। और कहानी के भावों के साथ विचार लोक में
विचरण करते दिखाई पड़ते थे। ये सारी वास्तु स्थिति ,भावाधाराएँ कहानी कहने वाले की निपुणता ,उसके
भाव प्रदर्शन ,कथा के ओज ,प्रसंग व ऊंचे निचे स्वर तथा क्रोध और करुणा आदि भावों के प्रकट करने की
प्रणाली से होता था।
सांयकाल भोजन के बाद गाँव के छोटे बड़े सभी वार्ता प्रेमी ग्रामवासी लोग चौपाल या अन्य जगह जहाँ कहानी
कथा कहने का स्थल होता ,वहां कहानी वक्ता के इर्द गिर्द आ बैठते और हुंकारा देने वाला भी सावधान होकर
वार्ता कार के सामने जम कर बैठ जाता था। वार्ता कार श्रोताओं का ध्यान कथा वस्तु पर केन्द्रित करने के
लिए खानी प्रस्तावना प्रारम्भ करते हुए कहने लगता -
'एक उजाड़ ! उठै बड़ रो बिरछ !उण पेड़ रै एक लाम्बो डालो ! जिण माथै हजारों पंखी सूता अर दोय पंछी जागै!
उण में एक तो चकवो अर दूजी चकवी ! गुमसुम बैठ्याँ रात न कटती देख चकवी बोली - कहने चकवा बात ,
कटेज्यूँ रात ! ' जद चकवो बोली -घर बीती कंहू कै पर बीती ? चकवी बोली आज तो पर बीती ही कह घर
बीती तो सदा ही कह है। '
इस प्रकार बात की बात में 'बात ' चल पडती है। वक्ता कहता जाता है ,हुंकारा देने वाला हुंकारा देता जाता है
और श्रोता मन्त्र मुग्ध हो कर बात का रस लेते जाते हैं। बात बरसाती सरिता की तरह घुमती ,मचलती ,
इठलाती बल खाती उतार चढाव के साथ चलती ,बात के बीच बीच में दोहे सोरठे उसकी रोचकता का बढ़ाते
रहते हैं। वीर पुरषों के मरण कर्तव्य ,सत पुरषों का अल्पकालीन जीवन होने पर भी कीर्ति अमर रहती है
इसी का प्रतीक बात में प्रयोग होने वाला दोहा द्रष्टव्य है -
मरदां मरणो हक्क है , ऊबरसी गल्लांह।
संपुरुसा रा जीवणा , थोडा ही भल्लाह।।
और साथियों के साहस की बात भी सुनिए -
हूँ बलिहारी साथियां , भाजे नही गयाह।
छिणा मोती हार जिम , पासे ही पडीयाह।।
बात की एतिहासिकता और काल्पनिकता की सूचना जिस प्रकार 'परबीती ' और 'घरबीती ' से दे दी जाती है।
उसी प्रकार बात लम्बी है या छोटी -यह सुचना भी अवतरणिका में ही दे दी जाती है। बात लम्बी और दो चार
रात चलने वाली होती है तो कुछ ऐसी पंक्तियाँ कही जाती हैं।
" कीड़ी की लात ,मान्छर को धको , हाथी पर घात बचै तो बचै नही मरै परभात। कैर को काँटों साढ़ी सोलह हाथ। "
बात के समय समर्थन व समर्थन कर्ता हुंकारा देने वाले के प्रति भी कहा गया है -
"बात कहताँ बार लागे , बात मै हुंकारों लागे।
हुंकारे बात मीठी लागे , फौज में नागारो बाजै।
कडंग ध्री कडंग ध्री , दाल बाटी ऊपर घी।
बात कहने वाला श्रोताओं को भी बात तल्लीनता से सुनने तथा निद्रा से सावधान रहने की हिदायत देता हुये कहता है -
इसे समय बातां का रंग धोरा लागे।
कोई नर सोवे और कोई नर जागे।
सूतोड़ा की पाघडी , जागता ले ले भागे।
जागतां की पाघडी , ढोलिया के पागै।
जिवोजी बात को कहणीयो ,जिवोजी हुंकारे को देणीयो।
बात को चालणो , संजोग को पीवणों।।
इस तरह की अवतरणिका के साथ ये बातें चलती थी। वर्षों से चली आ रही यह मौखिक बात परम्परा अब राजस्थान से लुप्त प्राय हो चुकी है। अब न तो चौपालों पर जमघट दिखाई देता है और न ही बातों के वे ओजस्वी वक्ता रहे।
(यह लेख श्री सौभाग्य सिंह जी शेखावत -भगतपुरा का रणबांकुर से उध्रत )
राजस्थानी भाषा का पध्य साहित्य जिस परिणाम में विपुल व समृद्ध है उसी प्रकार राजस्थानी गद्य साहित्य
भी प्रचुर व वैवध्य पूर्ण है। ख्यातें ,बातें ,पत्र -परवाने ,वंश वृतांत ,गप्पें ,ओखण (व्यंग ) आदि प्रसिद्ध हैं।
ख्यातों ,वंश वृतान्तो एवं पत्र -परवानो आदि में एतिहासिक चरित्रों ,घटनाओं व प्रसंगो का विवरण मिलता है।
और बात क्रम में एतिहासिक व काल्पनिक दोनों प्रकार की रचनाये उपलब्ध होती हैं। इस में बात साहित्य
का बड़ा महत्व है। गद्य का यह अंग शिक्षित और अशिक्षित दोनों कोटि के जन मानस की रुचि तथा पसंद
की वस्तु है। वार्ता साहित्य विषय की दृष्टी से अति विस्तृत और वैविध्य पूर्ण है। इसमें मानव समाज की
धार्मिक प्रवृतियों , राजनैतिक गुथियो ,मानसिक ऊहापोह ,एतिहासिक घटना -चक्रों के वृतांत ,प्रशासनिक
ज्ञातव्य,आदर्श नीति और उपदेश के अनेकानेक प्रसंग गुंफित हैं। इतना ही नही बल्कि लोक मानस की
भावनाये एवं रुचियों की समग्र परिचित प्रच्छन -अप्रच्छन रूप से बातों में भरी पड़ी हैं। बातों में मानव तो
क्या पशु पक्षियो ,देवी देवताओं तथा गन्धर्व ,यक्ष ,किन्नरों तक को मानव भाषा में बाते करते प्रगट किये गये
हैं। पशु पक्षि मानव भाषा बोलते हैं। वे मानव पात्र की भांति अपने आश्रय दाता की प्र्तुहता से रक्षा करते हैं।
प्रवसन काल में सुख दुःख के सन्देश लाते लेजाते हैं। इस प्रकार पक्षियो का मानवीकरण कर मानव समाज
के मित्र एवं हितेषी के रूप में उनका चित्रण किया गया है।
बातों में युद्ध की भयानकता ,रूप सोंदर्य ,हास्य विनोद के गुद गुदा देने वाले छींटे और वज्र कठोर हृदय तक को
पिघला कर द्रवित करने वाले अनेक प्रकरण प्राप्त होते हैं। करुना के स्वर बातों में अनेक स्थलों को भिगोते
मिलते हैं। बात साहित्य में करुणा के प्रसंग मोटे तोर पर कन्या की विदाई ,सास ननद के कठोर व्यवहार
,सोतिया डाह,वंध्यापन का लांछन, पति वियोग ,ठग चोर ,दुराचारियों के कैतवपाश में पड़ जाने ,मिथ्या
आरोप और प्रियजनों की मृत्यु आदि के प्रसंगो में आते हैं।मृत्यु के विभित्स रूप का वर्णन भयावह होता है
परन्तु राजस्थानी साहित्य की यह अनूठी खूबी है की युद्ध में वीरगति प्राप्त प्रियजनों के प्रति विलाप करने का
वर्णन नही किया जाता है। रणस्थल की मृत्यु पर मांगलिक तथा वरेण्य रूप अंकित किया गया है। जुन्झारों
की मृत्यु पर क्रन्दन करने की राजस्थान की परम्परा नही है। युद्ध मृत्यु को शिवलोक ,ब्रह्मलोक ,विष्णुलोक
सूर्यलोक के अलौकिक वैभव के प्रदाता के रूप में चित्रित किया गया है। इस प्रकार युद्ध में वीरगति प्राप्त करने
के पिछे भारतीय दर्शन की परंपरा का परिपालन लक्षित होता है।
राजस्थानी भाषा की जिन बातों में एतिहासिक तथ्यों को आधार माना गया है उन बातों को "परबीती बात"
और जिन कहानियों में कल्पना के पंख लगाये गये उन्हें" घर बीती" के नाम से अभिहित किया। ये दोनों दोनों
ही प्रकार की कहानिया ,राजस्थानी में हजारों की संख्या में कही -सुनी जाती हैं। सदियों तक मौखिक परम्परा
से ये कहानियां राजस्थानी जन मानस में आशा ,अल्हाद, हर्ष -विषाद ,उत्साह-उमंग ,शिक्षा -सदाचार और
आमोद -मनोरंजन के भावों को वितरित करती रही है। राजा से रंक ,निर्धन से धनी , पंडित से अपंडित ,तक
समान रूप से जिन रचनाओं ने कौतुहल उत्पन्न कर सम्मान प्राप्त किया ,उन रचनाओं (बातों ) के लेखकों
का आज प्रयत्न करने पर भी नाम धाम का पता लगा पाना संभव नही है। ऐसी दशा में यह परिचित नही हो
पाता की इन कहानियों का जन्म कब हुआ ? समय पर आलेख बद्ध नही होने के कारण कुछेक एतिहासिक
प्रसंगो वाली बातों के अलावा अन्य के रचना काल ,रचना स्थान ,रचनाकार और रचना काल की भाषा पर भी
विचार नही किया जा सकता। यह तो केवल जन निधि है, जो जन कंठो पर अनुप्रमाणित है। राजस्थानी
कहानियां जन मुखों पर जीवित रही और उन के कहने वालों के कला कौशल से प्रसिद्धि प्राप्त कर सकी ,बस
यही इनकी प्राचीनता का अध्यावधि इतिहास माना जाता रहा है।
राजस्थानी बातों के कहने की भी अपनी एक प्रकार की पद्धति रही है। और वह यह कि श्रोता समाज के
अतिरिक्त "कहानी कहता " व "समर्थन करता " दो मुख्य पात्रों पर यह कहानी चलती है। यदि समर्थन करता
जिसे हुंकारा देने वाला कहा जाता है समर्थन करने में एक बार भी ऊँघ गया तो कहानी का आनंद किर किरा हो
जाता है।
कहानी कहने की कला राजस्थान की कुछ जातियों का परम्परागत पेशा रहा है। जब राजस्थान के टीलों
,घाटियों, नालों और मैदानों में आबाद गांवों में अपनी वृति के लिए आये हुए 'बडवाजी' या इस कहानी कला
का कोई दक्ष वक्ता कलाकार शीतकाल की लम्बी रातों में गाँव के चौपाल की 'कंऊ' ( आज की भाषा में camp
fire ) पर अपना आसन जमा कर जब बात कहना प्रारंभ करते थे ,तब अतीत राजस्थान के गर्वीले
एतिहासिक दिनों की ,रणबांकुरे कर्मवीरों की ,मर कर जीने वाले सपूतों की स्मृतियाँ ताजा बनकर कुछ काल
के लिए चित्र पट की भांति नाच उठती थी। उस समय श्रोताओं के सामने अनेक घटित -अघटित ,लोकिक -
अलौकिक दृश्य घुमने लगते थे। श्रोता अपने को भूल कर अतीत की घटनाओं की भांति युद्ध क्षेत्रो में शत्रु सेना
पर प्रहार करने के भावों की अनुभूति करते जन पड़ते थे। और कहानी के भावों के साथ विचार लोक में
विचरण करते दिखाई पड़ते थे। ये सारी वास्तु स्थिति ,भावाधाराएँ कहानी कहने वाले की निपुणता ,उसके
भाव प्रदर्शन ,कथा के ओज ,प्रसंग व ऊंचे निचे स्वर तथा क्रोध और करुणा आदि भावों के प्रकट करने की
प्रणाली से होता था।
सांयकाल भोजन के बाद गाँव के छोटे बड़े सभी वार्ता प्रेमी ग्रामवासी लोग चौपाल या अन्य जगह जहाँ कहानी
कथा कहने का स्थल होता ,वहां कहानी वक्ता के इर्द गिर्द आ बैठते और हुंकारा देने वाला भी सावधान होकर
वार्ता कार के सामने जम कर बैठ जाता था। वार्ता कार श्रोताओं का ध्यान कथा वस्तु पर केन्द्रित करने के
लिए खानी प्रस्तावना प्रारम्भ करते हुए कहने लगता -
'एक उजाड़ ! उठै बड़ रो बिरछ !उण पेड़ रै एक लाम्बो डालो ! जिण माथै हजारों पंखी सूता अर दोय पंछी जागै!
उण में एक तो चकवो अर दूजी चकवी ! गुमसुम बैठ्याँ रात न कटती देख चकवी बोली - कहने चकवा बात ,
कटेज्यूँ रात ! ' जद चकवो बोली -घर बीती कंहू कै पर बीती ? चकवी बोली आज तो पर बीती ही कह घर
बीती तो सदा ही कह है। '
इस प्रकार बात की बात में 'बात ' चल पडती है। वक्ता कहता जाता है ,हुंकारा देने वाला हुंकारा देता जाता है
और श्रोता मन्त्र मुग्ध हो कर बात का रस लेते जाते हैं। बात बरसाती सरिता की तरह घुमती ,मचलती ,
इठलाती बल खाती उतार चढाव के साथ चलती ,बात के बीच बीच में दोहे सोरठे उसकी रोचकता का बढ़ाते
रहते हैं। वीर पुरषों के मरण कर्तव्य ,सत पुरषों का अल्पकालीन जीवन होने पर भी कीर्ति अमर रहती है
इसी का प्रतीक बात में प्रयोग होने वाला दोहा द्रष्टव्य है -
मरदां मरणो हक्क है , ऊबरसी गल्लांह।
संपुरुसा रा जीवणा , थोडा ही भल्लाह।।
और साथियों के साहस की बात भी सुनिए -
हूँ बलिहारी साथियां , भाजे नही गयाह।
छिणा मोती हार जिम , पासे ही पडीयाह।।
बात की एतिहासिकता और काल्पनिकता की सूचना जिस प्रकार 'परबीती ' और 'घरबीती ' से दे दी जाती है।
उसी प्रकार बात लम्बी है या छोटी -यह सुचना भी अवतरणिका में ही दे दी जाती है। बात लम्बी और दो चार
रात चलने वाली होती है तो कुछ ऐसी पंक्तियाँ कही जाती हैं।
" कीड़ी की लात ,मान्छर को धको , हाथी पर घात बचै तो बचै नही मरै परभात। कैर को काँटों साढ़ी सोलह हाथ। "
बात के समय समर्थन व समर्थन कर्ता हुंकारा देने वाले के प्रति भी कहा गया है -
"बात कहताँ बार लागे , बात मै हुंकारों लागे।
हुंकारे बात मीठी लागे , फौज में नागारो बाजै।
कडंग ध्री कडंग ध्री , दाल बाटी ऊपर घी।
बात कहने वाला श्रोताओं को भी बात तल्लीनता से सुनने तथा निद्रा से सावधान रहने की हिदायत देता हुये कहता है -
इसे समय बातां का रंग धोरा लागे।
कोई नर सोवे और कोई नर जागे।
सूतोड़ा की पाघडी , जागता ले ले भागे।
जागतां की पाघडी , ढोलिया के पागै।
जिवोजी बात को कहणीयो ,जिवोजी हुंकारे को देणीयो।
बात को चालणो , संजोग को पीवणों।।
इस तरह की अवतरणिका के साथ ये बातें चलती थी। वर्षों से चली आ रही यह मौखिक बात परम्परा अब राजस्थान से लुप्त प्राय हो चुकी है। अब न तो चौपालों पर जमघट दिखाई देता है और न ही बातों के वे ओजस्वी वक्ता रहे।
(यह लेख श्री सौभाग्य सिंह जी शेखावत -भगतपुरा का रणबांकुर से उध्रत )
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