Sunday, December 21, 2014

भरतपुर के जाट राजा सूर्यमल्ल की मृत्यु का वृतांत - " शाही दृश्य " लेखक  माखन लाल गुप्ता  गर्क। यह पुस्तक नागरी प्रचारणी सभा ,काशी से १९२६ ई  में प्रकाशित हुयी है।

फ़्रांसिसी समरू  की सहायता क्या प्राप्त हुयी  वह फूलकर कुप्पा हो गया,जिसके कारण उसकी दूरदर्शिता व बुद्धि का हास हो गया। उसने बादशाह के सामने फरुखनगर की फौजदारी मांगी। नजीबखां ने जाट राजा से शीघ्र बिगाड़ करना ठीक नही समझा और एक दूत उसको समझाने भेजा। मुग़ल दूत व जाट राजा के बीच जो अदभुत वार्ता हुयी वह उल्लेख योग्य है। 
एलची जो भेंट लेकर उपस्थित हुआ उसमे एक फूलदार छींट का थान भी था,जिसे देख कर गंवार नरेश इतना अधिक मग्न व मोहित हुआ की तुरंत ही उसके वस्त्र सिलवाने की आज्ञा देदी। जाट राजा ने उस समय जो कुछ भी वार्तालाप किया ,वह केवल उस थान के बारे में ही किया ,और दूसरी बात करने का दूत को अवसर ही नही दिया। दूत ने मन में सोचकर विदा मांगी की संधि के संबंध में दूसरे समय चर्चा करूंगा। चलते समय उसने कहा - "ठाकुर साहेब ,जल्दी में कुछ कर न बैठना। मैं कल तुमसे फिर मिलूंगा। " परन्तु मुग्ध नरेश ने उत्तर दिया -" जो तुम्हे ऐसी ही बात करनी है तो ,फिर मुझ से मत मिलो " 
दूत ने सारी बात वैसी की वैसी मंत्री नजीबुद्दौला को सुना दी।  मंत्री ने कहा " ऐसी बात है तो हम अवश्य उस काफिर से लड़ेंगे और उसे दण्ड देंगे। "
परन्तु मुग़ल सेनापति दिल्ली से बाहर निकलते उस से पहले ही सूर्यमल्ल शहादरे  के निकट हिण्डोन पर आ लगा जो दिल्ली से ६ मील  दुरी पर है। किन्तु जिस स्थान पर वह आया पुरानी शिकारगाह थी ,उसका इस भूमि पर आने का शायद यह प्रयोजन था की हमने शाही शिकारगाह का शिकार कर लिया। जब वे अचेत होकर टटोल और खोज कर रहे थे ,तब मुगल रिसाले का एक दस्ता भागता हुआ आ पंहुचा।  उसने राजा को पहचान लिया और  अचानक जाटों पर टूट कर  सब को मार डाला और राजा की   लाश उठा कर नजीबखां के पास ले गए ले गये। पहले  वजीर को इस अकस्मात सफलता पर विश्वास नही  हुआ। पर जब उस दूत ने  जो थोड़े समय पहले जाटों  शिविर से लौट कर आया था ,लाश के उन कपड़ों को देख कर अनुमोदन किया ,जो उस छींट के थान के बने थे। 
इसी बीच जाट सेना अपने मनमाने झूठे संरक्षण में सूर्यमल्ल के पुत्र जवाहर सिंह के नीचे सिकंदराबाद से कूच कर रही थी कि उस पर अचानक मुग़ल सेना के हरावल ने छापा मारा जिसके एक  सवार ने  बल्लम पर सूर्यमल्ल का कटा सिर झंडे के रूप में लगा हुआ था। इस अमंगल दृश्य को देखने से हलचल  मची  उस ने  जाटों के पाँव उखाड़ दिए ,जिससे हट कर वे अपने देश को आ गए।  






Friday, December 19, 2014

देविदास जी ढूसर वंशीय वश्ये थे .राजा रायसल जी खण्डेला के दीवान .बहुत ही योग्य व्यक्ति।  इन्होने नीति के दोहे / कवित  लिखे हैं।  कुछ इस प्रकार हैं-

छोटे छोटे पेड़न को सुलन की बार करो,
         पातरे से पौधा जिन्हे पानी दे के पारिबो।
नीचे  गिर गये तिन्हे देदे टेक ऊँचे करो ,
                 ऊँचे बढ़ गए ते जरूर काट डारिबो।
फूले फूले -फूल सब बीन एक ठौर करो ,
               घने घने रूंख एक ठौर ते उखारिबो।
राजन को मालिन को नित्य प्रति देवीदास ,
               चार घडी रात रहे इतनो विचार बो। १।.

कौन यह देश कौन काल कौन बैरी मेरो ,
             कौन हेतु कौन मोहि ढिग तेन टारिबो।
केतो आय केतो खर्च केतो बल ,
             ताही उनमान मोहि मुखते निकारबो।
संपत के आवन को कौन मेरे अवरोध ,
              ताहि को उपाय यह दाव उर धारिबो।
राजनीति राजन को दिन प्रति देवीदास ,
              चार घडी रात रहे इतनो विचारबो।। २।.


      

Tuesday, November 11, 2014

सेर सलूणो चून ले सीस करै बगसीस


सेर सलूणो चून ले सीस करै बगसीस 

एक ऐतिहासिक घटना जिसको राणी लक्ष्मी कुमारी जी चुण्डावत ने अपनी पुस्तक 'गिरी ऊंचा -ऊँचा गढ़ां 'में राजस्थानी में लिखा है। कहानी की भाव भूमि व राणी साहेबा की भाषा पढ़ते ही बनती है। मैं इसका हिंदी रूपांतरण यहाँ दे रहा हूँ। अनुवाद में वो आनंद तो नही आयेगा किन्तु ज्यादातर लोग इसको पढ़ व समझ पायें इस के लिए प्रयास है।

पाली ठाकुर मुकंद सिंघजी जोधपुर के प्रधान। सारी मारवाड़ उनके हिलाने से हिले ऐसा प्रभाव। इधर जोधपुर में 

राज  महाराजा अजित सिंह जी का।  राजा व प्रधान दोनों एक से  बढ़कर एक । पत्थर से पत्थर टकराये तो आग

 निकले। अजित सिंघजी मन में पाली ठाकुर से नाराज सो चूक कर मरवाने की सोची सो  काम के बहाने पाली 

से जोधपुर बुलाया। ये पाली से रवाना हो जोधपुर के लिए चले ,पाली से ८ -१० कोस पर पहला पड़ाव दिया। गाँव 

वालों ने घास पानी की आवभगत की। साथवाले बकरे लेने के लिये रेवड़ में गए वंहा खेत में एक ढाणी 

जंहा बकरों का रेवड़ चर रहा ,एक औरत उसकी रखवाली कर रही। मुकंद सिंघजी के आदमियों ने तो न पूछा न 

ताछा व दो बकरे पकड़ लिए। रूखाली करने वाली औरत ने उनको मना किया पर वे कंहा मानने वाले। कहावत 

है " रावला घोड़ा अर बावळा सवार " यानी राजा के घोड़े और उन पर पागल सवार कोई रास्ता नही देखते व न 

किसी की सुनते हैं। 

औरत ने कहा -'बकरों पर हाथ मत डालो। धनजी -भीवजी बाहर गए हुए हैं। आने वाले ही हैं ,उन से पूछ कर ले 

जाना ,नही तो वो आपको इस धृष्टता की खबर पटक देंगे। ' 

"अरे देखे तुम्हारे धनजी -भींवजी ! खबर पटक देंगे ! जानती है, हम पाली ठाकुर मुकंद सिंघजी के आदमी हैं। "

औरत के ना -ना करते हुए दो बकरे उठा ले गए । थोड़ी देर में धनजी -भींवजी आये तो औरत ने कहा -"बेटा मेरे 

ना -ना कहने के बावजूद पाली ठाकुर के आदमी  जबरदस्ती बकरे उठा ले गए।"

धनजी -भींवजी की आंख्ये तन गयी। " हमारे बकरे जबरदस्ती उठा ले जाये। किस का मुंह है जो हमारे बकरे खा 

जाये "

दोनों उसी वक्त जैसे आये थे वैसे ही उलटे पगों मुकंद सिंघजी के डेरे की तरफ रवाना हो गए। धनजी गहलोत 

और भींवजी चौहाण ,दोनों मामा -भाणेज। सीधे पाली ठाकुर के डेरे में घुस गये। हाथों में तलवार ,मूंछे भुंवारो से 

लग रही ,मूंछो के बाल तण -तण कर रहे। बकरो के रेवड़ में जैसे सिंघ घुसता है वैसे ही दोनों मामा -भाणेज ने

डेरे में प्रवेश किया। सामने बकरो को  खाल उतार कर  लटका रखा था।  धनजी भींवजी ने तो जाते ही टंगे हुए

बकरों को उठा लिया व जैसे आये थे वैसे ही वापस निकल गये।

और जाते -जाते यह  कहते गए  की राजपूत का माल खाना आसान नही है। 

  डेरे में पाली ठाकुर के पचासो सरदार उनको देखते रह गए ,किसी की हिम्मत उनको टोकने की नही हुई। पाली

ठाकुर मुकंद सिंघजी माळा फेर रहे थे। उनकी नजर दोनों मामा -भाणेज पर पड़ी। हाथ  माळा के मणिये पर

ठहर गया। उन्होंने देखा-वे  नाहर की तरह चलते व  निशंक होकर बकरों को उतार कर ले गए वंहा बैठे पचासों

साथ वाले सरदार मुंह बाये रह गये किसी ने एक कदम आगे नही रखा।

मुकंद सिंघजी माळा फेर कर उठे व सीधे उन की ढाणी पर गये। मुकंद सिंघजी को ढाणी में आया देख धनजी -

भींवजी ने आँखों में ललकार भर सामने पग रोपे । किन्तु मुकंद सिंघजी तो सीधे डोकरी के पास गये और डोकरी

से कहा -' मैं पाली का  मकंद सिंह हूँ ,आप से एक  चीज मांगने आया हूँ ! देंगी ?

डोकरी तो पाली ठाकुर को अपने घर आया देख कर खुस हो गयी बोली 'मेरे पास क्या है जो मैं आपको दूँ  ?

मुकंद सिंघजी ने कहा - ' आपके पास दो हीरे हैं ,ये दोनों ही  रत्नो से भी बढ़ कर हैं। मैं इन को अपने भाईयों की

तरह रखूंगा। '

डोकरी ने कहा -' बापजी ये आप के ही हैं -ले जाइये। '

मुकंदसिंघजी दोनों को अपने डेरे ले आये। दूसरे दिन जोधपुर का रास्ता पकड़ा ,धनजी -भींवजी भी साथ आये।

जोधपुर में पहुंचने पर अजित सिंघजी ने मुकंदसिंघजी को किले में बुलाया। साथ में थोड़े आदमी ले ये  किले में

गये। मुकंदसिंघजी व उन के भाई रघुनाथ सिंघजी के किले में घुसते ही दरवाजा बंद कर दिया। साथ वाले बाहर

रह गये। अंदर मुकंदसिंघजी की हत्या का पूरा प्रबंध कर रखा था। छिंपिया के परबत सिंघजी व उन के साथ

 वालों ने दगे से हमला किया।

मुकंदसिंघजी के साथ वाले सभी हतप्रभ हो कर खड़े रह गए किन्तु धनजी भींवजी ने सोचा की हमारे रहते इस

तरह की चूक।   हम ने इन का नमक खाया है ,हम पर भरोस कर केऔर ऐसे अवसरों के लिए  ही तो इन्होने हमे

अपने पास रखा है. किन्तु दरवाजा बंद है क्या करें।

धनजी बोले -'देख दरवाजे के किंवाड़ तो मैं तोड़ रहा हूँ  अंदर जाकर हत्यारों की खबर तूं ले। यह कह धनजी ने तो

 उछल कर किंवाड़ों पर माथे की भेटी मारी। लोह जड़े भारी किंवाड़ चरर की आवाज के साथ टूट कर गिर गये

और साथ ही धनजी का सिर टुकड़े -टुकड़े होकर बिखर गया। भींवजी काल के अवतार की तरह अंदर घुसा ,एक

पहर तक गढ़ में रेल पेल मचादी।

पहर हेक लग पोळ ,जड़ी रही जोधाण री।
गढ़ मैं रोळा रोळ ,भली मचाई भिंवाड़ा।।
गढ़ साखी गहलोत ,कर साखी पातळ कमध।
मुकन रुघा री मौत ,भली सुधारी भींवड़ा।।
आजुणी अधरात ,महल ज रूनी मुकंन  री।
पातळ री परभात ,भली रुंवाणी भींवड़ा।
मुकनो पूछै बात ,को पातळ आया कस्यां।
सुरगापुर मै साथ ,भेळा मेल्या भींवड़ै।।


Saturday, September 20, 2014

उद्दात राजपूत चरित्र की एक मिशाल -ठाकुर नवल सिंह नवलगढ़ का भात भरने के संबध में एक आख्यान -

उद्दात राजपूत चरित्र  की एक मिशाल -ठाकुर नवल सिंह नवलगढ़ का भात भरने के संबध में एक वाकिया  -

१७७४ ई में मुग़ल बादशाह ने  एक फरमान जारी कर  शेखावाटी के सरदारों  नवल सिंह  ,बाघ सिंह ,हनुत सिंह
,व सूरजमल आदि को रूपये साठ  हजार शाही खजाने में सालाना मामला ( कर ) के रूप में जमा करने के लिये
ताकीद की।

       १७७५ ई में पंचपाना के सरदारो ने यह तय किया कि ये रूपये सभी बराबर बाँट कर देंगे व २२००० रूपये
इकठे कर नवल सिंह  को सरकारी खजाने में  जमा कराने के लिए दे दिये।  नवल सिंह  यह रकम लेकर  दादरी
के रास्ते दिल्ली जा रहे थे।  बगड़ -सलामपुर के एक महाजन की लड़की दादरी ब्याही हुई थी उसके पीहर में कोई
 भी ज़िंदा नही था। संयोग की बात की उसी दिन उस महाजन की लड़की की लड़की की शादी हो रही थी ,जब
उसने नवल सिंह की वेशभूषा व पगड़ी देखी तो उसी अपने पीहर व संबंधियों की याद आ गयी। वह जोर -जोर से  रोने लगी ,उसने कहा की आज मेरे पीहर के परिवार में कोई होता तो भात  भरने आता। नवल सिंह को जब इस
बात की खबर हुई तो उन्होंने उस स्त्री को कहलाया की उसे दुखी होने की जरुरत नही है -उसका भाई भात भरने
आया है।  नवल सिंह ने वे बाइस हजार रूपये भात में दिये जो दिल्ली के शाही खजाने में जमा कराने थे ।

      इसका परिणाम यह हुआ की  मामला  नही चुकाने पर बादशाह ने शेखावतों पर फौज भेजी  व
मांडण के रण क्षेत्र  में भयंकर लड़ाई लड़ी गयी जिसमे भोजराज जी का शेखावतों को कोई भी ऐसा परिवार नही
था जिसमे कोई काम न आया हो।

    आज के बुद्धिमान लोग इसे पागलपन कहेंगे ,पर यही जीवन दर्शन था जिसने राजपूत जाती को मर कर भी
अमरता  प्रदान की बाकी तो उम्र पाकर सभी मरते है व खत्म हो जाते हैं।

Saturday, August 23, 2014

राठोड़ दुर्गादास

दुर्गादास राठोड का जन्म १३ अगस्त ,१६३८ ई के दिन आसकरण जी की भटियाणी ठकुराणी के गर्भ से सालवा ग्राम में हुआ। इनकी माता जयमल केलणोत भाटी की पोती थी। जिसकी वीरता के किस्से उस काल प्रसिद्ध थे। परन्तु दुर्भाग्यवश यह बहादुर  भाटी महिला एक आज्ञाकारी गृस्वामिनी सिद्ध न हो सकी। गृह कलह से बचने के लिए आसकरण जी ने माँ -बेटे के रहने व गुजारे की व्यवस्था लुणवा गाँव में करदी। दुर्गादास अपनी माँ की ही तरह बड़े साहसी व इरादे के पक्के थे।
      संयोगवश सन १६५५ ई की एक घटना ने अचानक दुर्गादास के जीवन व भाग्य को बिल्कुल बदल दिया। इन्हे महाराजा जसवंत सिंह के सामने उपस्थित होने का अवसर मिला। गुणग्राही महाराजा ने इनमे छिपी प्रतिभा को पहचान कर अपने पास रख लिया। 
    १६५८ ई के धरमाट के युद्ध में दुर्गादास ने अद्वितीय वीरता का प्रदर्शन किया। इस युद्ध के प्रत्यक्ष दृष्टा कुम्भकर्ण सांदू ने 'रतन रासो ' में लिखा है :-" दुर्गादास राठोड ने एक के बाद एक चार घोड़ों की सवारी की और जब चारों एक एक कर मारे गये तो अंत में वह पांचवे घोड़े पर सवार हुआ लेकिन यह पांचवा घोडा भी मार गया। तब तक न केवल उसके सारे हथियार टूट चुके थे बल्कि उसका शरीर भी बुरी तरह घायल हो चूका था। अंततः वह भी रणभूमि में गिर पड़ा। ऐसा लगता था जैसे एक और भीष्म शर शैया पर लेटा हुआ हो। जसवंत सिंह के आदेश से घायल दुर्गादास को युद्ध क्षेत्र से हटा लिया गया और जोधपुर भेज दिया गया। "
       दुर्गादास का असली चरित्र जसवंत सिंह जी की मृत्यु के उपरान्त सामने आता है। महाराजा जसवंत सिंह जी की मृत्यु  खैबर दर्रे के पास जमरूद के कैंप में हुयी उस समय उनकी आयु ५२ वर्ष थी। इस समय उनका कोई भी ओरस पुत्र जीवित नही था। परन्तु दो रानियां -रानी जादमन जी व नरुकी जी गर्भवती थी। १९ फ़रवरी ,१६७९ ई को रानियों ने लाहोर के मुकाम पर दो राजकुमारों को जन्म दिया। बड़े का नाम अजित सिंह व छोटे का दलथम्भन रखा गया। 
    जसवंत सिंह की निसंतान  मृत्यु के तुरंत बाद ही जोधपुर को खालसा कर लिया गया था। मारवाड़ में जगह जगह मुगलो के थाने बैठा दिए गए। खुद ओरंगजेब अजमेर में डेरे डाले हुए था। जब उसे अजमेर में राजकुमारों के जन्म की खबर मिली तो उसने व्यंग में कहा -"आदमी कुछ सोचता है ओर खुदा उससे ठीक उल्टा करता है।" और उसने आदेश दिया की राजकुमारों को  मुग़ल बादशाह के हरम में रखे जाकर लालन पालन किया जायेगा। यह प्रस्ताव कुटिलता पूर्वक राजकुमारों को मुसलमान बनाने का था जिस से जोधपुर पर बिना कठिनाई के मुस्लिम धर्म थोपा जा सके।
    लाहोर से रानियां ,राजकुमार व जोधपुर का दल दिल्ली पंहुचा तो पहले तो ये जोधपुर हवेली में ठहरे किन्तु जल्दी ही हवेली खाली करने का आदेश दे दिया गया। उसके बाद ये किसनगढ़ के राजा रूप सिंह की हवेली में चले गए। यहां दुर्गादास राठोड ,राठोड रणछोड़दास ,भाटी रघुनाथ ,राठोड रूप सिंह आदि ने राजकुमारों को चुपके से दिल्ली से निकालने की योजना बनाई। बलूंदा के ठाकुर मोहकम सिंह के दूध पीते बच्चे से राजकुमारों को बदला गया व मुकन्ददास खींची व मोहकम सिंह राठोड ने राजकुमारों को दिल्ली से बाहर निकाल लिया।
   राजकुमारों को व रानियों को दिल्ली से बाहर निकालना बड़ा दुस्साहस पूर्ण कार्य था। हिंदुस्तान की सत्ता के शीर्ष केंद्र से रक्त रंजित संघर्ष के बाद ये लोग मारवाड़ पंहुच गये। इस लोमहर्षक संघर्ष की गाथा इस छोटे से लेख में सम्भव नही है।
        सर यदुनाथ सरकार लिखते हैं - "स्वामिभक्त राठोड सरदार ओरंगजेब के प्रस्ताव पर हक्का बक्का रह गये। उनके धर्म की छल कपट से नष्ट किये जाने का संकट भी पैदा हो गया था। शिशु राजकुमारों का जीवन लालची और धर्मांध संरक्षकों के हाथ में सुरक्षित नही था। सरदारों ने अपने स्वामी के उत्तराधिकारी की रक्षा में अंतिम सिपाही तक लड़ने का निश्चय किया। किन्तु राठोड शूरवीरता के पुष्प दुर्गादास के मार्गदर्शन के बिना राजपूतों की भक्ति और शूरवीरता भी शायद किसी काम न आती। "
       दुर्गादास ने जसवंत सिंह की मृत्यु के पश्चात मारवाड़ को मुग़ल साम्राज्य में विलीनीकरण से बचाया ,अजित सिंह को दिल्ली से निकाल कर सुरक्षित मारवाड़ पंहुचाया व् लम्बे संघर्ष के बाद जोधपुर का राज्य वापस दिलाया। मेवाड़ व मारवाड़ की कटुता को समाप्त कर के महाराणा राज सिंह से संधि की। ओरंगजेब के पुत्र अकबर को विद्रोह के लिए उत्तेजित कर मुग़ल साम्राज्य की दमनकारी शक्ति का विभाजन किया। अकबर को दक्षिण में लेजाकर मराठों व राठोड़ों के बीच गठबंधन का प्रयत्न किया।
         दुर्गादास का जीवन चरित्र मारवाड़ के इतिहास में ही नही अपितु मध्यकालीन भारत के इतिहास में प्रेरणा स्त्रोत के रूप में माना जाता है। वे साहस ,वीरता त्याग ,स्वामिभक्ति एवं देशप्रेम की भवन से ओतप्रोत थे।
     सोलहवीं व सत्रहवीं सताब्दी में राजस्थान में दो महानायक पैदा हुए जिनका देश प्रेम ,वीरता बलिदान व त्याग अविस्मरणीय है। एक हिन्दुवा सूर्य महाराणा प्रताप व दूसरे राठोड दुर्गादास। (इन दोनों के समय में करीब १०० साल का अंतर है ) महाराणा के पास राज्य था वे मेवाड़ के स्वामी थे। वहीँ दुर्गादास एक साधारण राजपूत जिस के पास न राज्य व न अधिकार (authority) . था तो केवल देश प्रेम व मुगलों को मारवाड़ से बाहर निकाल ने की प्रबल इच्छा। और इसीलिए आज भी यह दोहा जन -जन की जबान पर चढ़ा हुआ है -

         माई एहड़ा पूत जण ,जेहड़ा दुर्गादास।
          मार मँड़ासो थामियो ,बिण थाम्बे आकास।।

हे माताओ ! तुम दुर्गादास जैसे पुत्र को जन्म दो जिसने सिर  दुमाला बाँध कर अकेले ही बिना खम्बो के आकाश को अपने सिर पर थाम लिया।

यही नही आम जन भी सामूहिक गान में गा उठता है -

    ढंबक ढंबक ढोल बाजे ,देदे ठोर नागारां की।
    आसा घर दुरगो नही होतो ,सुन्नत होती सारां की।






Friday, August 22, 2014

महाराजा मान सिंह जी जोधपुर -एक आख्यान

महाराजा मान सिंह जी जोधपुर -एक आख्यान 

महाराजा मान सिंघजी को मज़बूरी में अंग्रेजों से संधि करनी पड़ी। परन्तु उन्होंने अंग्रेजों को अपना सम्प्रभु नही माना।  सन १८०४ में जसवंतराव होल्कर ब्रिटश सत्ता का कोप भाजन बना और पराजित होकर जोधपुर चला आया। महाराजा ने क्षात्र धर्म का पालन करते हुये उसे शरण दी। बांकीदास जी ने इस संबंध में यह दोहा कहा :-
किंग इंद्र जिम कोपियो ,जसवंत मैनाक। 
सरण राखियो समंद ज्यूँ ,पह मान दिल पाक।।

अर्थात इंद्र रूपी ब्रिटिश किंग के कोप से बचाने हेतु मैनाँक पर्वत रूपी जसवंत होल्कर को समुद्र रूपी महाराजा मान सिंह ने शरण देकर उस की रक्षा की।

अंतर कलह व एक मात्र पुत्र की  असामयिक मृत्यु से महाराज विक्सिप्त रहने लगे। गवर्नर जनरल ने असली स्थिति जानने के लिए १८१८ ई में मुंशी बरकत अली व मिस्टर विलडर्स को जोधपुर भेजा। जब ये लोग महाराजा से मिले तो वे विक्षीप्त ही बने रहे और इनके प्रति कोई सम्मान व्यक्त नही किया। उसी समय चारण कवि भोपालदान जी भी वंहा पंहुचे और विरुद -बखान का यह दोहा कहा -

नीव थम्भ केई पाट नृप ,छत कपाट केई छज्ज। 
धरम देवालय कऴस धज ,धिनो मान कमधज्ज।।

अर्थात कुछ राजा तो देवालय की नीवं हैं ,कुछ स्तम्भ हैं ,कुछ पाट हैं कुछ छत हैं कोई छज्जे हैं किन्तु मान सिंह तुम तो  उस धरम देवालय के कलश की ध्वज्जा हो।  तुम्हे धन्य है।

यह दोहा सुनते ही मान सिंघजी खड़े हो गए और चारण का यथोचित सम्मान किया। यह देख कर अंग्रेज अधिकारी नाराज हो गए व कहा की महाराजा पागल पन  का ढोंग कर रहे हैं व अंग्रेजो को सम्मान नही देना चाहते।
इस पर महाराजा ने कहा की इस कवि के पूर्वज हुँपा सांदू के विरदाने पर जैसलमेर के रावल दुर्जनसाल का कटा हुआ मस्तक रणक्षत्र में बोल गया था फिर मैं तो मदहोश अथवा होश जैसा भी हूँ जीवित हूँ। और इसी संदर्भ में उन्होंने यह दोहा कहा -जो विख्यात हो गया :-

सांदू हुँपै सेवियो ,साहब दुरजणसल्ल। 
विरदातां माथो बोलियो ,गीतां दोहां गल्ल।।



Wednesday, August 20, 2014

एक कहावत है " ज्यांका मरग्या बादशाह ,रुलता फिरै वजीर "  इसी से मिलता जुलता एक दोहा है -

थारा मरग्या बादशाह ,म्हारा मरया वजीर।
आये नंदा घर करां , पड़ै जगत में सीर।।

इसकी कहानी इस प्रकार है - चिड़ावा के सेठों की एक बरात हिसार जा रही थी लेकिन बरात वालों ने यह सुन रखा था कि हिसार में नंदा नामकी एक ब्राह्मणी बड़ी चालाक है व किसी बरात को टिकने नही देती। इधर चिड़ावा में भी समो तेली की भी बड़ी प्रसिद्धि थी सो लड़के के बाप ने समो तेली को बरात में साथ ले लिया किन्तु उसके पैरों में नाहरवे निकले हुए थे सो खाट में सुला कर ले गये। जब बारात हिसार पंहुची तो नन्दो ने समो को खाट में देख कर कहा :-

बामण आया बाणिया आया और आया जाट।
मैं तूने बुझूं समा तेली , क्यों कढ़ाई खाट।।

समो ने कहा :-

तूं बैदां की बैदनी ,तूं बैदां की जोय।
म्हारै निकल्या नाहरवा ,बेग नाख खोय।।

तब नन्दो ने जवाब दिया :-

नहारू कै दारु नही ,ये है कच्चा कोढ़।
म्हारा मरग्या बादस्या ,जड़ देई बैदंगी छोड़।।

इस पर समा तेली ने कहा :-

थारा मरग्या बादस्या ,म्हारा मरग्या वजीर।
आये नन्दो घर करां ,पड़ै जगत में सीर।।

इतना सुनते ही नन्दो शर्मा कर भाग गयी।  

Saturday, August 9, 2014

आज के बेटे -रचियता श्री धौंकल सिंह जी चरला

                                          आज के बेटे -रचियता श्री धौंकल सिंह जी चरला 



बाप कहता है -

ऐ बहु बेटा आज रा ,जीव तणा जंजाल।
बेटा सूं  भली ,जड़ कद लेय संभाल।।

ऐ बहु बेटा आज रा ,घर नै समझे सराय।
आवै रैवै दोय दिन ,फुर सूं हुवै फरार।।

अ बेटोजी आज रा ,झूठो काड कसूर।
माँ बापां नै छोड़ कर ,रहाणो चावै दूर।।

अ बेटोजी आज रा ,गिने न भाई भैंण।
मीठा बोलै सासरै ,घर मैं खारा बैंण।।

अ बेटो जी आज रा ,जोरू तणा गुलाम।
सारै न उठणो बैठणो , बीबी हाथ लगाम।।

छोड़ो आस ओलाद री ,खींचो आपो आप।
दोष जमाना ने घणो ,बेटा बणग्या बाप।।

बेटा कहता है -

बुरा बुरा दुनिया कहवे ,बुरा न देख्या कोय।
घर मैं बूढ़ा बाप सूं ,जग में बुरो न कोय।।

हाण ढली हिम्मत हटी ,रहग्यो खाली रोष।
आवै भटका लारला ,  दे बेटां न दोष।।

बैठे हाट बाजार मै ,राखै एको गीत।
बहु बेटां नै भुंडणो , आ बूढ़ां  री रीत।।

काम करै न करण दे ,कह्यो न मानै एक।
करै बखाण विगत रा ,राखै झूठी टेक।।

चोडे बैठ 'र चौखला ,देवै घर रो पोत।
छाने री चौड़े करै ,आव न आनै मोत।।

Tuesday, July 22, 2014

दादीसा ढापा ढकै

         दादीसा ढापा ढकै - हर्ष दान हर्ष की कविता 

पीड रा खेत में अपणा ही ,
जायोड़ा रे हाथां
बोया कुटिल बीजां नै उगता देख रै ,
दादीसा करलापे।
रह्या जिगर रा टूक ,आँख रा  तारा
वा किण विध दुत्कार'र
उण रो परित्याग करै।
अपणो मन मसोसती मन ई मन सोचती ,
या जांघ उघाड़ूं तो या लाजां मरै ,
अर या  उघाड़ूं तो या जांघ लाजां मरै।
लाज रा फेर में अपणी कुख री
अपणा कुटम कबीला री लाज राखण नै
निगोड़ा जायोडां री
नित नुवीं करतूतां रा
दादीसा ढ़ापा ढकै।


( यह ढ़ापा ढकना ऐसा शब्द है जिसका अनुवाद सही सही नही किया जा सकता है। सभी दादी , मातायें अपनी नाजोगी संतानो के अवगुणो को ढकती ही रहती हैं। )
   

Sunday, July 20, 2014

महाराणा कुम्भा बहुत ही पराक्रमी शासक हुये हैं।सन १४१९ ई में राजगद्दी पर बैठे सन १४६९ ई में इन के पुत्र ने इनकी हत्या करदी।   उन्होंने नागौर से मुसलमानो को भगा दिया। मालवा के सुलतान मोहमद ख़िलजी को परास्त कर चितोड़ के किले में विजय स्तम्भ बनवाया। कुम्भलगढ़ का गढ़ इन्ही का बनवाया हुआ है। मुख्यद्वार पर हनुमान पोळ है जिसमे हनुमान जी की विशाल मूर्ति है जो नागौर जीत कर वंहा से लायी गयी थी। ये  खुद संस्कृत के विद्वान थे। राजदरबार में कवियों का सम्मान था।  एक दफा इन्होने एक गाय को ताण्डव करते देखा और सहसा इन के मुख से निकला  "कामधेनु तंडव करिये " किन्तु दूसरी पंक्ति जुड़ नही रही थी। दरबार में आकर बैठे परन्तु वंहा भी बीच -बीच में "कामधेनु तंडव करिये " मुंह से निकल जाये। एक कवि जो दरबार में उपस्थित था ने महाराणा की विक्षिप्त सी स्थिति को समझ कर कवित पूरा किया -

जद धर पर जोवती मन मांह डरंती।
गायत्री संग्रहण -दृष्टी नागौर धरंती।।
सुर तेतीसों कोड -आण निरंता चारो।
नह खावत न चरत -मन करती हहकरो।
कुम्भेण राण हणीया किलम -आंजस उर डर उतरियो।
तिण दीह द्वार शंकर तने -कामधेनु तंडव करिये।।

( गाये मुसलमानो से संत्रस्त थी ,देवता चारा डालते तो भी नही खाती थी। राणा कुम्भा ने मुसलमानो का नाश किया इस से इस के मन का डर जाता रहा और इसलिए शंकर के द्वार पर जा कर गाय ने हर्ष से तांडव किया।) 

Saturday, July 19, 2014

हर्ष व जीण

                                         हर्ष व जीण   

सीकर के पास हरस का पहाड़ है इस पर हर्षनाथ शिव का मंदिर है। इस मंदिर को ओरंगजेब के समय क्षति पंहुचायी गयी। जब शिव ने दानवों  संहार किया तो उन्हें बड़ा हर्ष हुआ व वे नृत्य करने लगे और तब से वे  हर्षनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुये। पास ही दूसरी पहाड़ी पर जीण माता का मंदिर है यह माता जयंती देवी है। ये  मंदिर बहुत ही प्राचीन हैं। यह मंदिर गुप्त काल में भी विध्यमान था। नवमी शताब्दी में चौहान राजा गुवक ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। 

            इस संबंध में एक जन काव्य "हरस व जीण " के नाम से बड़ा प्रसिद्ध है। यह बहिन -भाई के स्नहे को दर्शाता है। 
        चुरू के पास घांघू नामक एक गाँव है जो पुराने समय में बड़ा समृद्ध था। घांघू के चौहान राजा घंघ देव के हरस नामक एक पुत्र व जीण नामक एक पुत्री थी। राजा की मृत्यु के उपरान्त हरस की पत्नी ने अपनी ननद जीण को कुछ ताना मार दिया जिस से रुष्ट होकर घर से निकल गयी व सीकर के पास  पहाड़ी पर तपस्या करने लगी। भाई हरस उसे मनाने आया किन्तु उसने लौटने से मना कर दिया तब तो हरस भी समीप की दूसरी पहाड़ी पर तपस्या करने लगा। इस प्रकार हरस ने जिस पहाड़ी पर तपस्या की उसे हरस का पर्वत व हर्ष को शिव के रूप में व जीण को माता के रूप में पूजा गया।  

Thursday, June 26, 2014

ठाकुर सुरजन सिंह जी झाझड की पुरानी हस्त लिखित कॉपी से

रन बन व्याधि विपति में ,वॄथा डरे जनि कोय।
जो रक्षक जननी जठर ,सो हरी गया न सोय।।

सब सूं हिल मिल चालणो ,गहणो आतम ज्ञान।
 दुनिया में दस दिहडा ,माढू तूं मिजमान।।

खाज्यो पीज्यो खरच ज्यो ,मत  कोई करो गरब।
सातां आठां दिहडा ,जवाण हार सरब।।

कंह जाये कंह उपने ,कंहा लड़ाये लाड़।
कुण जाणे किण खाड में पड़े रहे हाड।।

ईसर आयो ईसरा ,,खोल पडदा यार।
हूँ आयो तुझ कारणे , दिखला दे दीदार।।

संपत सों आपत भली ,जो दिन थोड़ा होय।
मिंत महेली बांधवां ,ठीक पड़ै सब कोय।।

जसवंत सिंघजी जोधपुर के कहे दोहे :-

खाया सो ही उबरिया ,दिया सो ही सत्य।
जसवंत धर पोढवतां ,माल बिराणे हत्थ।।

दस द्वार को पिंजरों ,तामें पंछी पौन।
रहन अचम्भो ह जसा ,जात अचम्भो कौन।।

जसवंत बास सराय का ,क्यों सोवत भर नैन।
स्वांस नगारा कूच का। बाजत है दिन रैन।।

जसवंत सीसी काच की ,वैसी ही नर की देह।
जतन करंता जावसी ,हर भज लावहो लेह।।

पृथ्वी राज जी बीकानेर के कहे दोहे :-

काय लाग्यो काट ,सिकलीगर सुधरे नही।
निर्मल होय निराट ,भेंट्या तों भागीरथी।।

जपियो नाम न जीह ,निज जळ तिण पेख्यो नही।
देवी सगळै दीह ,भूलां थां भागीरथी।।

जाल्या कपिल जकैह ,साठ सहस सागर तणा।
त्यारा तैं हति कैह ,भेळा ही भागीरथी।।

लाखा फुलाणी के संदर्भ से जीवन की श्रृंण भंगुरता के दोहे :-

लाखा फुलाणी :-

मरदो माया माणल्यो ,लाखो कह सुपठ।
घणा दिहडा जावसी ,के सत्ता के अट्ठ।।

भावार्थ :मनुष्यों माया यानि धन द्रव्य आदि को उपभोग करलो क्यों कि जीवन का क्या भरोसा ,यह तो ७ -८ दिन की जिंदगी है।

यह सुन कर उसकी पत्नी ने जवाब दिया :

फुलाणी फेरो घणो ,सत्ता सूं अट्ठ दूर। 
राते देख्या मुलकता ,वे नही उगता सूर।।

भावार्थ : सात आठ दिन तो बहुत होते हैं ,जिनको रात को हँसते देखते हैं वे सुबह नही रहते।

बेटी ने माँ की बात काटते हुए कहा कि -

लाखो भूल्यो लखपति ,मां भी भूली जोय। 
आँख तण फरुखड़े ,क्या जाणे क्या होय।।

भावार्थ : मां भी भोली है जिंदगी का तो आँख फरुके उतना भरोसा भी नही है।

पास में दासी बैठी हुयी थी उसने कहा ;

लाखो आंधो ,धी अंधी ,अंध लखा री जोय। 
सांस बटाऊ पावणो ,आवे न आवण होय।।

भावार्थ : यह लाखा जी अंधे हैं ,इनकी पत्नी व पुत्री भी अंधी है। अरे स्वांस तो महमान की तरह है आये और न आये इतना श्रृंणभंगुर है।


अमर सिंह जी राठोड से सम्बन्धित एक कवित :-

वजन मांह भारी थी के रेख में उतारी थी ,
हाथ से सुधारी थी के सांचे में हूँ ढारी थी ,
शेखजी के गर्द मांह गर्द सी जमाई मर्द ,
पुरे हाथ सीधी थी की जोधपुर संवारी थी ,
हाथ से अटक गयी  गुट्ठी सी गटक गयी ,
फेफड़ा फटक गयी ,आंकी बांकी तारी थी ,
सभा बीच साहजंहा कहे , बतलाओ यारो ,
अमर की कम्मर में ,कंहा की कटारी थी .


वीर रस 
  
भूमि परखो  नरां , कहा  सराहत  बिंद। 
भू बिन भला न निपजै ,कण तण तुरी नरिंद।।

सोढे अमर कोट रै , यों बाहि अबयट। 
जाणे बेहु भाइयां , आथ करी बे बंट।।

रण रंधड़ राजी रहै ,बालै मूंछा बट्ट। 
तरवारयां तेगां झड़ै, जद मांचै गहगट्ट।।

रण राचै जद रांघड़ां , कम्पे धरा कमठ्ठ। 
रथ रोकै बहतो  रवि ,जद मांचै गहगट्ट।।

काछ दृढां कर वरषणा , मन चंगा मुख मिठ्ठ। 
रण शूरा जग वलभा ,सो हम बिरला दिठ्ठ।। 

रण खेती रजपूत री ,वीर न भुलै बाल। 
बारह बरसां बाप रो ,लेह वैर दकाल।।

सूरा रण  में जाय के ,कांई देखो साथ। 
थारा साथी तीन है ,हियो कटारी हाथ।।

जननी जणै तो दोय जण ,कै  दाता कै शूर। 
नितर रहजे बांछड़ी , मत गँवा मुख नूर।।

कटक्कां  तबल खुड़क्किया  ,  होय मरद्दा हल्ल। 
लाज कहे मर जिवडा ,वयस कहे घर चल्ल।।

कृपण जतन धन रो करे ,कायर जीव जतन ,
सूर जतन उण रो करै ,जिणरो खादो अन्न।।

 घर घोड़ां  ढालां पटल , भालां खम्भ बणाय। 
बै ठाकर भोगै जमी , और न दूजा कोय।।

धर जातां धरम पलटतां , त्रियां पडंता ताव। 
तीन दिवस ऐ मरण रा ,कंहा रंक कंहा राव।।

कंकण बंधण रण चढ़ण ,पुत्र  बधाई चाव। 
तीन दीह त्याग रा ,कंहा रंक कंहा राव।।

काया अमर न कोय ,थिर माया थोड़ी रहे। 
इल में बातां दोय , नामां कामां नोपला।।




Sunday, June 22, 2014

मिर्जा राजा जय सिंह का पत्र

 हिन्दू धर्म कैसे इस देश में बचा इसको समझने के लिए राजपूत इतिहास का गहन अध्ययन आवश्यक है और उसके साथ ही इस अध्ययन को  निसपक्ष विद्वानो द्वारा कराया जाना चाहिए। मैंने राजा मान सिंह जी के बारे में पढ़ा तो समझमे आया की मुगलों को अफगानों के विरुद्ध कर उन्होंने बड़ा काम किया। अभी मिर्जा राजा जय सिंह का एक पत्र जसवंत सिंघजी जोधपुर को लिखा पढ़ रहा था। बहुत ही महत्वपूर्ण है और यह सारी सोच ही इस देश में हिन्दुओं को बचा पायी।  
मिर्जा राजा का पत्र इस प्रकार है :-
" आपको इस में क्या लाभ हो सकता है कि इस मंद भाग्य राजकुमार को साहयता देने का प्रयास आप करे ? इस कार्य में लगने में आपका और आपके परिवार का नाश अवश्यंभावी है। इस प्रकार दारा के हितों को भी कोई लाभ न होगा। ओरंगजेब कभी आपको क्षमा नही करेगा। मैं स्वयं राजा हूँ और शपथ पूर्वक विनय करता हूँ कि राजपूतों का रक्त न बहाये। इस आशा में प्रवाहित न हो जाएं कि दूसरे राजाओं को आप अपने दल में मिला लेंगे ,क्यों की ऐसे किसी प्रयास का प्रतिकार करने के साधन मेरे पास हैं। इस कार्य से समस्त हिन्दुओं का संबंध है और आप को वह अग्नि प्रदीप्त करने की अनुमति मैं नही दे सकता  शीघ्र ही समस्त साम्रज्य में फ़ैल जायेगी और जो किसी प्रयास से शांत न हो सकेगी।  --------------------- मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि जो कुछ मैंने कहा है , उसका पूर्णतः पालन होगा। 

Friday, June 20, 2014

कविया रामनाथजी रो एक कागद

राजस्थानी के पद्य साहित्य के साथ ही गद्य साहित्य भी बड़ा समृद्ध है। वैसे ही पत्र लेखन भी बड़ा ही समृद्ध है। रामनाथजी का एक पत्र डॉ.मनोहर जी शर्मा की पुस्तक से :-
यह पत्र रामनाथजी ने अलवर से जोधपुर के तत्कालीन कविराज भारत दान जी को १८५१ ई. में लिखा था।

श्री राम जी
म्हारी मनवारी रो अमल दारु दुनो दध्योड़ो लिरावसो जी
राजश्री कंवरजी चिमनसिंघजी रा मनवारी रो अमल दारू दुणो लिरावास्यो जी

सिद्ध श्री जोधपुर सुभ सुथानेक सदव ओपमा बिराजमान अनेक ओपमा लायक राजश्री कविराजजी श्री भारतदानजी जोग लिखियातुम अलवर सुं कविया रामनाथ स्योनाथ को मुजरी मालुम होयसी
अपरंच अठा का समाचार भला छै आपरा सदा आरोगी चायजै जी अपरंचि कागद आपरो आयो समाचार बांच्या मिलण रो सो सुख उपज्यो और आप लिखी सो ठीक छै  अब आप नै पिरोतजी अठा का समाचार कैसी सो जाणु ला  सो ठाकर साब उमजी और आयसजी माराजजी और आप मालिम करी र पाछो कागद  तीनू ही सरदार लिखवस्योंजि।      

Shekhawat Madan Singh of Jhajhar: पुराने जमाने में चारणा का धरणा अर आज के धरने -एक...

Shekhawat Madan Singh of Jhajhar: पुराने जमाने में चारणा का धरणा अर आज के धरने -एक...:  राजपूत राजा ,महाराज व साधारण राजपूत के यहाँ चारण सदा सम्माननीय रहे हैं ,और उनकी काव्य प्रतिभा के हिसाब से उनको सम्मान भी प्राप्त हुआ है। य...

Shekhawat Madan Singh of Jhajhar: पुराने जमाने में चारणा का धरणा अर आज के धरने -एक...

Shekhawat Madan Singh of Jhajhar: पुराने जमाने में चारणा का धरणा अर आज के धरने -एक...:  राजपूत राजा ,महाराज व साधारण राजपूत के यहाँ चारण सदा सम्माननीय रहे हैं ,और उनकी काव्य प्रतिभा के हिसाब से उनको सम्मान भी प्राप्त हुआ है। य...

पुराने जमाने में चारणा का धरणा अर आज के धरने -एक अंतर

 राजपूत राजा ,महाराज व साधारण राजपूत के यहाँ चारण सदा सम्माननीय रहे हैं ,और उनकी काव्य प्रतिभा के हिसाब से उनको सम्मान भी प्राप्त हुआ है। युद्ध में वे केवल प्रशश्ति गायक ही नही बल्कि तलवार बजाने में भी पीछे नही रहे। और यही वजह रही की उन का युद्धों संबंधी वर्णन श्रुत नही पर भोग हुआ है। विवाह आदि मांगलिक अवसरों पर चारणो को नेग दस्तूर दिए जाते। गुणी कविसरों को बड़ी संख्या में लाख पसाव मिले हैं।  इसी तरह गाँव भी सांसण में दिए जाते थे। फिर भी कुछ ऐसे अवसर भी आये हैं जब राजा ने नाराज होने पर  सांसण में दिये गये गाँव खालसा कर लिए। ऐसे अवसरों पर चारणो ने सामूहिक धरणे दिये हैं। और सफलता की प्राप्ति के लिए पेट अथवा गले पर छुरी खाने जैसी स्थितियां भी आई हैं। और इस महापाप से बचने के लिए राजाओं ने अपने हुक्म वापस भी लिए हैं। धरने के समय देवी का आव्हान किया जाता था व देवी का स्तुति पाठ किया जाता था।
शायद गांघी  इस धरने से प्रभावित रहा हो और उसने ज्यादा तर भीरु समाज के लिए बिना मरने वाले धरने को प्रोत्साहित किया।
 

रामनाथजी कविया



चारण लोग उनके साथ हुये राजाओं के अन्याय के खिलाप धरना देते थे। यह आमरण अनशन होता था। रामनाथजी कविया ने जब अलवर नरेश विजय सिंघजी ने इनके सांसण के गाँव को  खालसे कर लिया तो धरणा किया। जिस में १०१ चारण आत्मबलिदान के लिए तैयार हुये। यह अलवर का धरणा के नाम से विख्यात है। इस में जैसलमेर का एक चारण जो  घोड़े बेचने के लिए आया था वो भी इस जातीय यज्ञ में शामिल हो गया। अलवर का पोळ पात जैता जगावत भी धरणे पर बैठा था किन्तु उसने पग छोड़ दिए।  इस पर रामनाथ जी ने कहा :-

जागावत जैता जिसा अस्ति भगा अनेक।
कलियो गाडो काढ्बा ,आयो थलियो एक।.
मरस्यां तो मोटे मतै ,सह जग कह सपूत।
जिस्यां तो देस्याँ जरुर , जैता रै सिर जूत।।

जैता जगावत जैसे जैसे कई हस्ती भाग गये। कीचड़ में फसे गाड़े को निकाल ने के लिए एक थालिया यानी थली प्रदेश का आदमी आगे आया। अगर इस बड़े उद्देश्य के लिये मारे  गये तो पूरा जगत सपूत कहेगा। और अगर जिन्दा रह गये तो इस जैता के सर पर जूत जरुर मारेंगे।

Monday, June 16, 2014

ढुँढाड़ का ढंग -मसकरी की मां - कवि उमर दानजी

  आदमी :-

अरे नादिदी यारां कै लार कोडी नै चाली छै यान ,
नठोड़ी निगोड़ी रांड न माने री  नीच।

म्हे भी छा मूंछयाला ,म्हांक पाग छै माथै कै माले ,
माल  जादी  म्हाने के मरया जाण्या मीच।

न्यात छै जात छै म्हाँक पांत छै बरजाँ नी कां ,
हेडो कोको व्हेछै    ल्यांछा  लायणो भी हेर हेर।

 हरामां की  पिल्ली क्यूँ हराम जादी फुट्यो  हियो,
बेरो कोनी नसे गोसे कै दीन्यो सा बार।

टुम टाम छला बिन्टी छीन दारी काढ़द्यूंतो ,
ढोल पड़े चाढद्यूंतो माजनोधिकार .

इके घाल्या कोडी न जावां आबरू उड़ावे छै री ,
लुगांडी कमाव छै री न आवे छै रे लाज।

जीजी ये जीजी की जीजी म्हां कालै दादा की जीजी ,
अरे बारे इस्यूं खियाँ जीतीजे रै आज

औरत ने जवाब दिया :-

क्यूँ रै मोल्या उठायौड़ा  बूझ बालो कुण छै रै तूं ,
म्हांकी खसी होगी जंडे जावांगा हमेस।

राम हो तो गबिडा जेल मैं खना दीजे रै ,
राण्डया रो रै राज मैं तूं तो दला दीज्ये रेस।

बाळ्या बाळ डाडी का उपाड़ ल्यूंगी बाप खाणा ,
भोगना का राल्या बांदा क्यूँ सूझी रै भूंड।

तकादो भोत बताड़े दांत सै तुड़ावै गो तूं ,
माजने सूं रेज्ये देज्ये फुड़ावै गो मूँड़।

लाचारी मर्द की :-

बोलबा की बाण छै बुरो मानजाली बावळी छै ,
अरे भांण की तूं भारयो माँड्यो छै अन्याय।

प्राण प्यारी ओठी लेल्यूं गोध म्हांकी कोन्या पूछ ,
देल्ये गाली बाली म्हाने खाण की छै दाय।

थांकी ज्यो खसी छै जीमे म्हांकी भी खसी छै  थेट,
मोटो पेट कीजे मुने दिज्ये गणा माफ़।

तूं जिसी तो तूंई छरी कालो मुंडो काड्बा मैं ,
सालो छै   कसूर म्हांको जाणबा मैं साफ़।

आग लागी बुझा लेबा ई में छै आंपां की आछी  ,
थ्यावासी तो आथ कोन्या बचारबो थोक।

आज्यों ऊंडी सोचबा की ओरां की न दाय ,
लुगाई थे म्हांकी छोजी म्हेछा थांका लोग।

रात की रात मैं ओठा आजाज्यो रामकुंराजी ,
बात की बात मैं कांई बसावांछा बैर।

थमो तो तावड़ो थे दादा का पाछे मौज थांकी ,
खुँसड़ी  तो पैर जाज्यो पगां माँई खेर।  

Saturday, June 14, 2014

राजस्थानी साहित्य में नीति बोध (श्री सुरजन सिंह शेखावत -झाझड़ )

राजस्थानी साहित्य कि गणना वीर रस प्रधान साहित्य में होती है। किन्तु भक्ति ,करुणा ,श्रंगार आदि अन्य रसों वाली रचनाओं से भी यह साहित्य ओतप्रोत है। निशि दिन कठोर संघर्षों में जूझते हुए दुर्दान्त योद्धाओं कि जन्मभूमि होने के परिणाम स्वरुप वीर भावना यहाँ के वातावरण में नैसर्गिक रूप से व्याप्त रही है।

Thursday, May 29, 2014

गीत राठोड प्रिथिराज रो कह्यो

यह मरसिया प्रिथिराज राठोड बीकानेर ने अपने पिता राजा  कल्याणमल जी बीकानेर की मृत्यु पर कहा था। इस में मृत्यु व उसका जीवन दर्शन बड़े हे सुंदर ढंग से  अभिव्यक्त है -मैंने इस को शब्दिक अर्थ से अनुवाद करने का प्रयत्न किया है जिस से अर्थ अपने आप समझ में आये। अन्यथा भावार्थ सुंदर ढंग से किया जा सकता था। :-

सुखरास रमन्ता पास सहेली                   
दास खवास मोकळा दाम 
न लियो नाम पखै नारायण 
कलियो उठ चलियो बेकाम।

भावार्थ :- सुख रास में रमे हुये ,पास में सहेलियाँ ,दास ,खवास ( खवास =नाई ) मोकळा दाम यानी धन। किन्तु अंत तक नारायण का नाम नही लिया और अंत में कल्याण मल उठ चले इस संसार से बेकाम यानि बिना कुछ उपलब्धि के।


माया पास रही मुळकती 
सजि सुंदरी कीधां सिणगार 
बहु परिवार कुट्मब चौ बाघो 
हरि बिन गया जमारो हार।

भावार्थ :- माया पास में मुळकती रही। सुंदरियाँ सज धज व शृंगार कर के खड़ी रहीं।बड़ा परिवार कुटम्ब भी बढ़ा हुआ। किन्तु हरी के नाम के  बिना यह जीवन हार गए।  

हास हसंता रह्या धौलाहर                       
सुख में राजत जे सिणगार 
लाखां धणी प्रयाणै लांबै  
जातां नही भेजिया जुहार। 

भावर्थ :- यह धोलाहर यानि महल हास्य में हँसते रहे जो सुख के  समय शृंगारित रहते थे। ये लाखों का धणी (मालिक ) जब लम्बी यात्रा पर निकला तो किसी ने जाते हुए को नमस्कार भी नही भेजा। (प्रयाणै =प्रयाण ,लाम्बे =लम्बे ,जुहार =झुक कर नमस्कार )


भाई बंध कड़ूंबो भेळो 
पिंड न राखै हेक पुल 
चापरि करे अंग सिर चाढ़ो 
काढो -काढो कहै कुळ।

भावार्थ :- भाई ,बंधु व पूरा कुटम्ब (कड़ूम्बो ) इकठा हो गया (भेळा ) परन्तु इस पिंड को यानि मृत देह को एक पल भी घर में रखना नही चाहते। क्या कह रहे हैं - काढो -काढो कह कुळ और फिर चापर करके यानि जल्दी कर के इस को अंग सर चाढ़ो (अग्नि को समर्पित करो )

असिया रह्या पग आफलता 
मदझर खळहळता मैमंत 
बहलो धणी सिंघासण वाळो 
पाळो होय हालियो पंथ।

भावार्थ :-घोड़े पैर पटकते रह गये।मदझर  मैमंत - मस्त हाथी झूमते रह गए। परन्तु बड़े सिंघासन वाला पैदल ही अपनी अंतिम यात्रा पर चला।  ( पालो =पैदल , हालिया =चला )


देहली लग महली पिण दौड़ी 
फसला लग मा बहण फिरी 
मरघट लगो कुटमब चौ मेळो 
किणयन सुख दुःख बात करी।

भावार्थ :- दहलीज तक स्त्री (महली ) आई। फलसे तक मां व बहन आयी। मरघट पर कुटम्ब का मेला लगा। किन्तु किसी ने भी सुख दुःख की बात नही की। यह नही पूछा कैसे हो ?


कोमल अंग न सह्तो कलियाँ 
ताती झलियां सहै तप 
घड़ी -घडी कर तड़ी धृवियो 
बड़ी बड़ी बलियो बप।

भावार्थ :-कोमल अंग जो फूलों की कलियों को भी नही सहता था ,ताती -गर्म झलों  का ताप सह रहा है। दाह संस्कार के समय घड़ी -घडी लकड़ियों से कुरेदा जा रहा है। ( तड़ी = लकड़ी ,जांटी  की तड़ी,नीम की तड़ी=तड़ी यानि लकड़ी की डाली ) यह जो बप है शरीर है वह बड़ी बड़ी होकर बळा यानि जला।
   

केसर चनण चरचतो काया  
भणहणता ऊपर भ्रमर 
रजियो राख तणै पूगरनै 
घणा मुसाणा बीच घर। 

भावार्थ :-केसर व चंदन से जो शरीर महकता था उस के ऊपर भर्मर गुंजायमान होते थे। उसकी हालत यह हुयी की वह राख के वस्त्रों में लिप्त गया है। उसका घर श्मशान में हो गया है।


खाटी सो दाटी घर खोदै 
साथ न चाली हेक सिळि 
पवन ज जाय पवन बिच पैठो 
माटी माटी मांहि मिली।

भावार्थ :- जो उसने हस्तगत किया उसे खोद कर जमीन में गाड़ कर सुरक्षित किया ,किन्तु उसमे से एक सीली यानी तिनका भी साथ नही गया। हुआ क्या - पवन -पवन में मिल गयी और मिटटी मिटटी में मिल गयी।  
१ भवन -महल -धोलहर
२ लकड़ी -तड़ी 
३ कुरेदा -धृवियो 
४  वस्त्र -पूगरने  

रामदास कछवाह (राजपूत चरित्र )

इधर अकबर की मृत्यु सन्निकट थी उधर दरबार में उत्तराधिकार को लेकर राजदरबार में दो गुट बन गये। एक गुट सलीम को बादशाह बनाना चाहता था व दूसरा गुट उसके बेटे खुशरो को। राजा मान सिंह व आजम खान खुशरो के पक्ष में थे। इन्होने आगरे के किले में राजकोष को अपने कब्जे में लेने का निश्चय किया व महल के उस क्षेत्र में प्रवेश किया। महलो व खजाने की जिम्मेदारी रामदास कछवाह पर थी। उसने इन हालतो में सुरक्षा व्यवस्था मजबूत कर रखी थी।
आजम खां ने जाते ही रामदास से कोष की चाबियां मांगी व प्रलोभन भी दिया। एक पुस्तक है "Raja Mansingh of Amber " written by R .n . Prasad  उसमे रामदास कछवाह ने जवाब दिया उसका बड़ा ही सुंदर वर्णन है -"Ramdas repiled  Thirty five years back ,the emperor had appointed me to guard the palace .I hold that appointment even today .The imperial treasury is laying in the palace .Thus the responsibility of safeguarding it rest on me and i have simply discharge my humble duty .I have posted strong guards at the treasury not for any tempt ion or reward but to satisfy my sense of duty .
राजा मान सिंह पास खड़े सारी बातें सुन रहे थे उनको यह जवाब नागवार गुजरा व उन्होंने कहा -"May I remind you as to who am I and what wonder can I accomplish ?
Ramdas Kachawah replied "No Maharaj ,I have not forgotten you ,how can I forget you ? I do remember that all of us belong to the same family .The same blood flows in our veins .If there can be any difference it is this that one is one is guided by feeling of devotion to duty ."        

Saturday, May 10, 2014

Shekhawat Madan Singh of Jhajhar: पातल व पीथल

Shekhawat Madan Singh of Jhajhar: पातल व पीथल: कन्हैया लाल सेठीया  कि कविता -राणा प्रताप के मानवोचित कमजोरी व कर्त्तव्य का भान होने पर क्षत्रियोचित प्रतिरोध इस कविता कि भाव भूमि है। इतिह...

Shekhawat Madan Singh of Jhajhar: पातल व पीथल

Shekhawat Madan Singh of Jhajhar: पातल व पीथल: कन्हैया लाल सेठीया  कि कविता -राणा प्रताप के मानवोचित कमजोरी व कर्त्तव्य का भान होने पर क्षत्रियोचित प्रतिरोध इस कविता कि भाव भूमि है। इतिह...