Friday, May 17, 2013

सामन्त या जागीरदार

जब से वादों का जन्म हुआ तब से नये बुधि जीवी वर्ग ने समाजवाद साम्यवाद आदि की तर्ज पर एक नया नार गढ़ा सामन्तवाद के नाम का। जब तब राजपूत वर्ग को कोसने के लिए इसका उपयोग होता रहता है। इसकी शुरुआत कांग्रेस पार्टी ने अपने हित साधने के लिए की। प्रचारतन्त्र में माहिर लोगो ने इतनी ज्यादा वैमनस्यता की भावना से राजपूतो को बदनाम किया कि आम जनता इस को सच समझ ने लगी।और इस के लिए जाती विशेष के नाम का उपयोग न  करते हुए  इसे सामन्तवादी तत्व कह कर बदनाम किया गया।
वास्तव में सामंत श्रीमंत से बना शब्द है जिसको राजा ने श्रीमंत बनाया वह सामंत। राजपूतों की रियासतों में स्थिति भिन्न थी।यह राजपूत सामंत नही थे राजा के कूटम्बी थे क्यों कि राजा तो एक ही लड़का हो सकता था बाकि को जागीर देदी  जाती थी।  जागीरदार ,ठिकानेदार ,जमींदार और भूस्वामी अधिकार और कर्तव्य की दृष्टी से न्यूनाधिक अंतर से समानार्थक शब्द है। यह सो दो सो बीघा भूमि से लेकर सो दो सो गाँवो के स्वामी तक होते थे। ये गाँव इन्हें दान दक्सिना में नही मिले थे किन्तु अपने बहुबल से अर्जित थे। राजतंत्रात्मक प्रणाली में इनका बड़ा महत्व था यह राज्य के स्तंभ थे। जागीर क्षेत्र की  प्रजा की चोर लुटेरों से  रक्षा करना जहाँ इनका मुख्य दायत्व था, वहां राज्य पर शत्रुपक्ष के आक्रमण के समय अपने भाई बंधुओं के साथ युद्ध में भाग लेना इनका धर्म था। यह कोई वैतनिक सेना नही थी बल्कि राज्य में अपनी  भागेदारी व अपने कुल की मर्यादा व रक्षा करना कर्तव्य था ,कुल गोरव इस से विमुख होने नही देता था। प्रजा की रक्षा के लिए मरना मारना तो खेल था। जिस गाँव में राजपूत का एक भी घर होता था ,वहां अन्याय नही हो सकता था। 

कुच्छ लोग पुर्वग्रस्त थे बाकि शहरो में लोगो को वस्तुस्थिति मालूम नही थी। गाँवो में हमारे बचपन के दिनों में जब जागीर उन्मूलन हुआ ही था , वहां के आम लोग राजपूतो की इन विशेषताओं के कायल थे।

ई.सन  १ ९ ६ ६ से लेकर ई. सन  १ ९ ७ २ तक मैंने ९ वि से लेकर ग्रेजुएशन तक की पढाई नवलगढ़ से की।गाँव से जुडा रहा। लोग बड़ा प्यार व सम्मान देते थे। खेतों में जाना सभी से इंटरेक्ट करना बड़ा अछा लगता था। उस जमाने में कुवे पर टूबवेल लग चूका था। हमारे यहाँ एक माली व एक गुजर कुवे पर सीरी थे। बारानी खेती में चमार ही मुख्य रूप से काम करते थे। वो लोग दादोसा के बारे में जो बात करते थे वो मेरे पूज्य पिताजी ठा . सुरजन सिंघजी की अपने पिताजी यानि मेरे दादोसा के बारे में लिखे इन दोहों से स्पष्ट हो जाती है।

दिव्य मूर्ति मेरे पिता , नमन करूं सतबार !
चार दशक मम आयु के , बीते तव आधार  !!
रजपूती भगती रखी , करी धर्म प्रतिपाल  !
निबल जनां सहायक रह्या , दुष्ट जना ऊर साल !!
मुख मंडल पर ओपतो , रजपूती को तोर !
दाकलता जद धूजता , दुष्ट आवारा चोर !!
संध्या वंदन नित करी , अर्ध सूर्य नै देर  !
गीता रामायण पढ़ी , बेर बेर क्रम फेर  !!
बां चरणा में बैठ , म्हू सिख्यो गीता ज्ञान !
जीवन मरण रा रहस नै , समझण रो सोपान !!
म्हू  अजोगो जोगो बण्यो पिता भक्ति परताप !
याद करूँ जद आज भी , मिटे पाप संताप  !!

रजपूती व भक्ति बड़ा ही सामंजस्य है और इसी लिए राजपूत वीर होने पर भी क्रूर नही हो सकता। यह आज भी उतना ही सत्य है।


             

1 comment:

  1. लोग बिना सोचे समझे राजेताओं के दुष्प्रचार में शामिल हो गये पर सामंती शोषण की मनघडंत कहानियां सुना सामंतवाद को कोसने वाले नेता आज खुद समाज के शोषक बन गये|
    जनता के धन से राज करते है और देश के संसाधनों को लुटते है ऐसा सामंत तो कदाचित नहीं करते थे राज्य भी अपना व अपने स्वजनों का बलिदान देकर पाते थे |

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