Friday, August 30, 2013

राजस्थानी दोहे ( देह की क्षर्ण भंगुरता व दान के महत्व का )

राजस्थानी दोहे ( देह की क्षर्ण भंगुरता व दान के महत्व का )


१. महाराजा जसवंत सिंह जी जोधपुर कृत :--

खाया सो ही उबरिया ,दिया सो ही सत्थ। 
जसवंत धर पोढ़ावतां ,माल बिराणे हत्थ।।

भावार्थ : आप ने जो खर्च कर लिया  सो बच गया ,दान दे दिया वो मृत्यु के बाद साथ जायेगा।
            जसवंत सिंह कहते हैं कि मृत्यु के बाद जब आपके  शव को धरती पर लिटाया जाते ही आप की सारी                सम्पति किसी और की हो गयी।

दस द्वार को पिंजरों ,तामे पंछी पौन। 
रहन अचंभो है जसा , जात अचंभो कोन।।

भावार्थ :  यह शरीर दस दरवाजो का पिंजरा है ,जिस में यह आत्मा रुपी पंछी पड़ा हुआ है।  हे जसवंत यह आत्मा इस पिजरे में पड़ी वह आश्चर्य है जाने में क्या आश्चर्य है।

जसवंत बास सराय का ,क्यों सोवत भर नैन। 
स्वांस नगारा कूच का ,बाजत है दिन रैन।।

भावार्थ :जसवंत सिंह कहते हैं कि यह तो धर्मशाला में रहने जैसा है सो गहरी नीद में क्यों सोते हो। स्वांस जो आता जाता रहता है यह कूच करने के नगारे हैं ,जो रात दिन बजते रहते हैं।

जसवंत शीशी काच की ,वैसी ही नर की देह। 
जतन करतां जावसी , हर भज लाहो लेह।।

भवार्थ : यह शरीर काच  की बोतल की तरह है ,जो यत्न करते रहने पर भी एक दिन टूट जाती है। इस लिए हरी को भज  कर इस का सदुपयोग करना चाहिए।

२. अन्य जिन के रचनाकारों के बारे में जानकारी नही है।

खाज्यो पिज्यो खर्च ज्यो ,मत कोई करो गरब।
सातां आठां दिहडा, जावाणहार सरब्ब।।

कंह जाये कंह उपने ,कंहा लडाये लाड।
कुण जाणे किण खाड में , पड़े रहेंगे हड्ड।।

सबसो हिल मिल हालणो , गहणो आतम ज्ञान।
दुनिया में दस दिहड़ा , मांढू तू मिजमान।।

 





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