Monday, May 13, 2013

फुटकर राजस्थानी दोहे

वेद पढो जोतिग पढो ,चतुराई समरथ।
मेह मोत अर रिजक को, कागद साईं हाथ।। 1

भावार्थ;  कितने ही वेद व ज्योतिष के जानकर हों ,चतुर व समर्थ हो, किन्तु  वर्षा मोत व रिजक ( आमदनी ) इन सब का लेखा तो ईश्वराधीन है।

का पूरण ज्ञानी भलो , कै तो भलो अजाण।
मूढमति अधवीच को ,जळ मां जिसों पखाण।। 2

भावार्थ; या तो पूरा जानकर हो या पूरा अजान हो दोनों ही ठीक है,लेकिन जो मूढ़ आधा जानकर है वह तो जल में पड़े पाषण की तरह है।

चिंता बुधि परखिये , टोटे परखिये त्रिया।
सगा कुबेल्याँ परखिये , ठाकुर गुनाह कियां।। 3

भावार्थ;बुधि की परीक्षा चिंता के समय ,स्त्री की घर में आर्थिक स्थिति ख़राब होने पर ,सम्बन्धियों की ख़राब
            समय आने पर व मालिक की परीक्षा गुनाह करने पर।

धन जोबन अरु ठाकरी , तां ऊपर अविवेक।
अ च्यारूं भेला हुवे, अनरथ करे अनेक।।4

भावार्थ; धन,योवन व अधिकार और इस के उपर अविवेक, ये चारों इक जगह इक्कठे  हो जाये तो अनेक तरह
            के अनर्थ करेंगे।

धर जाता ,धर्म पलटतां , त्रियाँ पडंता ताव।
तीन दिवस मरण रा , कुण रंक कुण राव।।5

भावार्थ; अपनी धरती जा रही हो , धर्म पर आंच आ रही हो, स्त्रियों को सताया जा रहा हो , इन  तीनो ही
अवसरो पर  इनकी रक्षार्थ मरना भी पड़े तो भी आगे आना चाहिए। इस अवसर पर राजा व रंक में कोई भेद
नही।

जो करसी उण री होसी , आसी बिण नूती।
आ न किणी रा बाप री, भगती अर रजपूती।। 6

भावार्थ; भक्ति व रजपूती किसी की बपोती नही है। जो इस का पालन करेगा ऊसके पास यह बिना न्योत्ये
           के आएगी।

खाया सो ही खरचिया , दीना सो ही सत्थ।
जसवंत धर पोढ़ावतां, माल बीरणे हत्थ।। 7

भावार्थ; जसवंत सिंह कहते हैं कि खालिया सो खर्चलिया , दान कर दिया व आपके साथ जायेगा बाकि तो धरती
           पर पोढते ही यानि मृत्यु होते ही माल दूसरे का हो गया।


रोग अगन अर राड , जाण अलप कीजे जतन।
 बधियां पछे बिगाड़ , रोक्यो रहै न रजिया।। 8

भावार्थ ; रोग,आग और झगडा इनको थोडा जानकर ही उससे बचाव  का उपाय करना चाहिए क्यों कि इनके
            बढ़ने पर नुकसान रुक नही सकता है।

कृपण जतन धन रो करे, कायर जीव जतन।
सूर जतन ऊण रो करे, जिण रो खाधो अन्न।।9

भावर्थ; कृपण व्यक्ति अपने धन की रक्षा में लगा रहता है, कायर व्यक्ति अपनी रक्षा में लगा रहता है,
          शूर वीर उसकी रक्षा करता है जिसका अन्न खाया है।

चंगे मारू घर रहियां , ऐ तीन अवगुण होय।
कपड़ा फाटे रिण बढे , नाम न जाने कोय।। 10

भावार्थ : युवा व्यक्ति के घर पर बैठे रहने के ( अकर्मण्य  होने के  )  तीन अवगुण हैं,  व्यक्ति फटे हाल हो जाता है।घर मे कर्जा हो जाता है। और न उस की जान पहचान बढती है।
         

जोबन दरब न खटिया , ज्यां परदेशा जाय।
गमिया यूँही दिहडा , मिनख जमारे आय।। 11

भावार्थ; जिस ने युवावस्था में विदेश में जाकर  कमाई नही की ( यानि घर से बाहर निकल कर कमाई नही की
            उसका मनुष्य जन्म व्यर्थ ही गया।


 तीखां भालां तोल  ,  बैर सको तो पाळज्यो।
मिसलां माथे मोल ,मूला रो करज्यो मती।।     

भावार्थ;  अगर बैर लेना है तो तीक्षण भालो को भुजाओं में उठा कर लेना। मूलजी का मोल  मिसलें  मांड  कर
              मत करना।
        ( मूलजी बिदावत जोधा राठोड़ो के हाथ से मारा गया, इसके चलते बिदवातो व जोधो में
संघर्ष होता रहा, एक दूसरे के गाँव जला देते।इस सघर्ष को ख़त्म करने के लिये जोधपुर महाराजा की पहल पर
समझोते के  लिए पंचायत बैठी , उधर एक चारण आ निकला जब उसको मालूम हुआ कि यह बैठक  मूलजी के बैर  भांजने के लिये हो रही है तो उस ने उपरोक्त दोहा कहा, दोहा सुनते ही तलवारे खिंच गयी ,फिर से सब को शांत कर इस संघर्ष को समाप्त किया गया। )
       
चारण नही होते तो राजपूत मरते कैसे, और मरते नही तो आज तक जिन्दा कैसे रहते।

कुण विरदावे कुण मरे , आंपा दहूँ कपोत।
मांह जिसडा चारण हुआ, थांह जिसडा रजपूत।।

भावार्थ; कोन विरदाये और कोन मरे क्यों कि अपन दोनों ही कपूत है। हमारे जैसे चारण हो गये  और आप जैसे राजपूत।
( नाथू दान जी महरिया ने उपरोक्त दोहा  राजपूत सभा जोधपुर के  अधिवेशन  में शायद 1950-51 ई .में कहा था। )

भरिया सो झलकै नही , झलकै सो आधोह !
मरदां आहिज पारखा , बोल्या अर लाधाह !



धरम बधयाँ धन बढेह , धन बढियां मन बढ़ ज्याय !
मन बढियां महिमा बढे , बढत बढत बढ़ ज्याय  !!


धरम घटयां धन घटे , धन घट मन घट जाय !
मन घटयां महिमा घटे , घटत घटत घट जाय  !!


घोडा और तलवार राजस्थान की वीर संस्कृति में अपना विशेष स्थान रखते  हैं ,कवियों ने इन की तारीफ़ में
दोहों -सोरठों की रचना की है। कुछ दोहे -

लीला बलिहारी थई ,हण टापाँ खल मुंड।
पहलां पडीयो टूक व्हे ,खड़े धणी रै रुण्ड।।

जंग नगारां जाण रव ,अणी धगारां अंग।
तंग लियंता तंडियो , तोन रंग तुरंग।।

उजड़ चाले उतावालो ,रोही गिणे न रन्न।
जावे धरती घूंसतो ,धन्न हो घोडा धन्न।।

तलवार -

ससतर बिये सुधा रहे ,बांका बहती बार।
रात दिवस बांकी रहे ,थैने रंग तरवार।।

नागी तिय पर नर निरख ,सकुचावे सो बार।
अरि निरखत मारे अवस ,थैने रंग तरवार।।

हथलेवो तों सू हुयो ,जुद्ध बण्यो झुंझार।
साथ रही रण सेज में ,थैने रंग तरवार।।

मण्डण ध्रम सत न्याय री ,खंडण अनय अनीत।
खल नाशक शासक प्रजा ,असी थूं जगजीत।।
  

5 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 20 जून 2020 को लिंक की जाएगी ....
    http://halchalwith5links.blogspot.com
    पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

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