सन 1903 ई में वायसराय लार्ड कर्जन द्वारा आयोजित दिल्ली दरबार में मेवाड़ महाराणा फतह सिंह को सम्मिलित होने से रोकने के लिए प्रसिद्ध क्रन्तिकारी बारहठ केशरी सिंह ने उन्हें सम्बोधित कर 'चेतावनी रा चूंगट्या ' नामक कुछ उद्बोधक सोरठे लिखे जिसके फलस्वरूप महाराणा फतह सिंह दिल्ली जाकर भी दरबार में शामिल हुए बिना उदयपुर लोट गये। महाराणा के इस अप्रत्याशित आचरण ने अंग्रेज हुक्मरानों में एक सनसनी तथा देश भक्त स्वाधीनता सेनानियों में राष्ट्रीयता की एक नई लहर पैदा कर दी थी। उक्त घटना से प्रायः सभी साहित्य एवम इतिहास प्रेमी पाठक परचित है, परन्तु बारठ केसरी सिंह को इन सोरठों के सृजन की प्रेरणा किससे व कैसे मिली ,यह इतिहास का एक अज्ञात नही ,तो अल्पज्ञात रहस्य है ,जिसकी हमारे स्वाधीनता आन्दोलन के सन्दर्भ में प्रमाणिक जानकारी वांछनीय है। इस को लिखने की प्रेरणा राजस्थान के एक कट्टर देशभक्त और स्वाभिमानी नरेश सहित कुछ प्रबुद्ध व राष्ट्रिय विचारधारा के पोषक सामन्तो ने दी थी।
कैसी विडम्बना है कि उस महत्वपूर्ण राजनैतिक घटना के असली सूत्रधार और मंत्रदाता इतिहास के नेपथ्य में छिपे पड़े है और हमे केवल रचियता कवी के नाम का ही स्मरण रह गया है।
कौन थे उक्त घटना के सूत्रधार जिन्होंने महाराणा को दिल्ली दरबार में शामिल होने से विरत करने की योजना बनाई ? वे थे कट्टर देशभक्त और महास्वभिमानी अलवर नरेश जय सिंह ,जिनकी प्रेरणा से ही बारहठ केशरी सिंह ने उक्त उद्बोधक सोराठो की रचना की।
विदित हो कि नवयुवक महाराजा जयसिंह अलवर ,राष्ट्रभाषा हिंदी के अनन्य संरक्षक एवं परम देश भक्त नरेश थे। अंग्रेजी राज के कट्टर विरोधी थे किन्तु परिस्थितिवश उसका सक्रीय प्रतिरोध नही कर पा रहे थे। उनकी इस ब्रिटश विरोधी नीति के कारण अंग्रेजी हकुमत उनसे खार खाए बैठी थी ,जिसकी परणीती अंतत उनके राज्य निष्कासन के दंड में हुई,जिसके चलते वे अलवर छोड़ कर पेरिस चले गये ,वंही उन की मृत्यु हुयी।
उक्त अलवर नरेश ने जयसिंह ने जब सुना कि मेवाड़ के महाराणा दिल्ली दरबार में सम्मिलित होने के लिए सहमत हो गये है तो उन के मन को बहुत ठेस पंहुची। 'हिन्दुवा सूरज 'का विरुद धारण करने वाले तथा स्वतंत्रता के लिए आजीवन संघर्ष करने वाले राणा प्रताप के वंशधर के लिए यह बात उन्हें सर्वथा अशोभनिये व मर्यादा विरुद्ध प्रतीत हुई। फलत: उन्होंने अपने परम विश्वस्त एवं योग्य मंत्री कानोता के ठाकुर नारायण सिंह चंपावत को जयपुर भेजा ताकि वे कोटा से बारहठ केसरी सिंह को बुलाये तथा जयपुर के कुछ वरिष्ठ एवं राष्ट्रिय विचार धारा के सरदारो से सम्पर्क कर महाराणा को दिल्ली दरबार में जाने से रोकने का हर सम्भव उपाय करें।
इसके बाद केसरी सिंह के जयपुर आने पर ठाकुर भुर सिंह मलसीसर के स्टेशन रोड स्थित डेरे पर मीटिंग हुई।,इस में ठा.नारायण सिंह कानोता ,बारहठ केसरी सिंह, ठा.भूर सिंह मलसीसर,ठा.कर्ण सिंह जोबनेर ,राव गोपाल सिंह खरवा ,राजा सज्जन सिंह खंडेला ,एवं ठा.हरी सिंह खाटू मुख्य थे। इन सब ने मिलकर यह निर्णय लिया कि बारहठ केसरी सिंह कोई ऐसे उद्बोधक दोहे लिखे जिसे पढ़ कर माहाराणा दिल्ली दरबार में सम्मिलित होने का विचार त्याग दें। उन्होंने केसरी सिंह को कहा ' चारण सदा से ही क्षत्रियो को अपने कुलधर्म का स्मरण कराते आये हैं ,आप चारण कुल के रत्न है. अत : इस अवसर पर कर्तव्य बोध की भूमिका आप ही निभाए। '
बारहठ जी ने जो सोरठे लिखे व बहुत ही उद्बोधक है यह एक कालजयी रचना है।
इस को महाराणा के पास पंहुचाने का बीड़ा राव गोपाल सिंह खरवा ने लिया और यह पत्र लेकर ने तत्काल खरवा के लिए रवाना हो गये। वहां पंहुचने पर उन्हें पता चला कि महाराणा की स्पेशल तो दिल्ली के लिए प्रस्थान कर चुकी है। यह जान उन्होंने अपने एक विश्वस्त व्यक्ति को अविलम्ब 'सुरेरी ' के लिए रवाना किया जहाँ स्पेसल ठरने वाली थी।
महाराणा ने जब यह पत्र पढ़ा तो उसका एक एक शब्द उनके सर्वांग को दग्ध कर उठा। उन्हें अपने यशस्वी पूर्वजों राणा सांगा व प्रताप की शोर्य गाथाओं का स्मरण हो आया और उन्हें स्मरण हो आया राणा प्रताप का दिल्ली स्वर के सामने नतमस्तक न होने का अटल संकल्प।
यों भी महाराणा फ़तेह सिंह बहुत ही स्वाभिमानी थे। अंग्रेज रेजिडेंट उनसे सहमता था। एक बार अंग्रेज सरकार ने उन्हें सी. एस.आई. की उपाधि प्रदान की तो उन्होंने इस को लेने से इनकार करते हुए कहा 'ऐसा बिल्ला तो चपरासी पहनते हैं। '
महाराणा पशोपेश में पड गये ,मन में घोर अंतरद्वन्द उठ खडा हुआ। यधपि पत्र की तत्कालीन प्रतिक्रिया उन्हें वहीं से उदयपुर लोट चलने को प्रेरित कर रही थी किन्तु उनके अनुभवी सलाहकारों ने सलाह दी की यह सम्भव नही है और न नीति सम्मत ही। अंतत : महाराणा ने निर्णय लिया की दिल्ली जायेंगे पर दरबार में हिस्सा नही लेंगे। दिल्ली पहुंचते ही अलवर नरेश जय सिंह ने उनसे भेंट कर उन्हें दिल्ली दरबार में शामिल न होने का पुरजोर आग्रह किया। महाराणा दिल्ली दरबार में शामिल हुए बिना उदयपुर लोट गये।
अंग्रेज सरकार लहू का घूंट पीकर इस के विरुद्ध कारवाई नही कर पायी क्यों कि बाकि राजा लोगों ने कहा की अगर कोई कार्यवाही हुई तो स्थिति विस्फोटक हो जाएगी।
महाराजा अलवर के परम विश्वास पात्र अक्षय सिंह जी रत्नू ने इस एतिहासिक प्रसंग का अपने "केसरी-प्रताप चरित्र " नामक काव्य में विस्तार से वर्णन किया है। इस से आम लोगों में प्रचलित तथा कुछ तथाकथित प्रगतिशील लेखकों व अवसरवादियों द्वारा प्रचलित इस भ्रांत धारणा का भी खंडन होगा कि राजस्थान के रजवाड़े राष्ट्रिय विचारधारा से शून्य और अंग्रेजों के हिमायती थे।
( उपरोक्त लेख डा. शम्भू सिंह जी का 'रणबांकुरा ' के अक्तूबर अंक में छपा था। इस सम्बन्ध में मैं ने मेरे पिताजी ठा.सुरजन सिंह जी से भी काफी सुना था क्यों की उनका इन सभी सरदारों से घनिष्ट व निकट का सम्बन्ध था। )
कैसी विडम्बना है कि उस महत्वपूर्ण राजनैतिक घटना के असली सूत्रधार और मंत्रदाता इतिहास के नेपथ्य में छिपे पड़े है और हमे केवल रचियता कवी के नाम का ही स्मरण रह गया है।
कौन थे उक्त घटना के सूत्रधार जिन्होंने महाराणा को दिल्ली दरबार में शामिल होने से विरत करने की योजना बनाई ? वे थे कट्टर देशभक्त और महास्वभिमानी अलवर नरेश जय सिंह ,जिनकी प्रेरणा से ही बारहठ केशरी सिंह ने उक्त उद्बोधक सोराठो की रचना की।
विदित हो कि नवयुवक महाराजा जयसिंह अलवर ,राष्ट्रभाषा हिंदी के अनन्य संरक्षक एवं परम देश भक्त नरेश थे। अंग्रेजी राज के कट्टर विरोधी थे किन्तु परिस्थितिवश उसका सक्रीय प्रतिरोध नही कर पा रहे थे। उनकी इस ब्रिटश विरोधी नीति के कारण अंग्रेजी हकुमत उनसे खार खाए बैठी थी ,जिसकी परणीती अंतत उनके राज्य निष्कासन के दंड में हुई,जिसके चलते वे अलवर छोड़ कर पेरिस चले गये ,वंही उन की मृत्यु हुयी।
उक्त अलवर नरेश ने जयसिंह ने जब सुना कि मेवाड़ के महाराणा दिल्ली दरबार में सम्मिलित होने के लिए सहमत हो गये है तो उन के मन को बहुत ठेस पंहुची। 'हिन्दुवा सूरज 'का विरुद धारण करने वाले तथा स्वतंत्रता के लिए आजीवन संघर्ष करने वाले राणा प्रताप के वंशधर के लिए यह बात उन्हें सर्वथा अशोभनिये व मर्यादा विरुद्ध प्रतीत हुई। फलत: उन्होंने अपने परम विश्वस्त एवं योग्य मंत्री कानोता के ठाकुर नारायण सिंह चंपावत को जयपुर भेजा ताकि वे कोटा से बारहठ केसरी सिंह को बुलाये तथा जयपुर के कुछ वरिष्ठ एवं राष्ट्रिय विचार धारा के सरदारो से सम्पर्क कर महाराणा को दिल्ली दरबार में जाने से रोकने का हर सम्भव उपाय करें।
इसके बाद केसरी सिंह के जयपुर आने पर ठाकुर भुर सिंह मलसीसर के स्टेशन रोड स्थित डेरे पर मीटिंग हुई।,इस में ठा.नारायण सिंह कानोता ,बारहठ केसरी सिंह, ठा.भूर सिंह मलसीसर,ठा.कर्ण सिंह जोबनेर ,राव गोपाल सिंह खरवा ,राजा सज्जन सिंह खंडेला ,एवं ठा.हरी सिंह खाटू मुख्य थे। इन सब ने मिलकर यह निर्णय लिया कि बारहठ केसरी सिंह कोई ऐसे उद्बोधक दोहे लिखे जिसे पढ़ कर माहाराणा दिल्ली दरबार में सम्मिलित होने का विचार त्याग दें। उन्होंने केसरी सिंह को कहा ' चारण सदा से ही क्षत्रियो को अपने कुलधर्म का स्मरण कराते आये हैं ,आप चारण कुल के रत्न है. अत : इस अवसर पर कर्तव्य बोध की भूमिका आप ही निभाए। '
बारहठ जी ने जो सोरठे लिखे व बहुत ही उद्बोधक है यह एक कालजयी रचना है।
इस को महाराणा के पास पंहुचाने का बीड़ा राव गोपाल सिंह खरवा ने लिया और यह पत्र लेकर ने तत्काल खरवा के लिए रवाना हो गये। वहां पंहुचने पर उन्हें पता चला कि महाराणा की स्पेशल तो दिल्ली के लिए प्रस्थान कर चुकी है। यह जान उन्होंने अपने एक विश्वस्त व्यक्ति को अविलम्ब 'सुरेरी ' के लिए रवाना किया जहाँ स्पेसल ठरने वाली थी।
महाराणा ने जब यह पत्र पढ़ा तो उसका एक एक शब्द उनके सर्वांग को दग्ध कर उठा। उन्हें अपने यशस्वी पूर्वजों राणा सांगा व प्रताप की शोर्य गाथाओं का स्मरण हो आया और उन्हें स्मरण हो आया राणा प्रताप का दिल्ली स्वर के सामने नतमस्तक न होने का अटल संकल्प।
यों भी महाराणा फ़तेह सिंह बहुत ही स्वाभिमानी थे। अंग्रेज रेजिडेंट उनसे सहमता था। एक बार अंग्रेज सरकार ने उन्हें सी. एस.आई. की उपाधि प्रदान की तो उन्होंने इस को लेने से इनकार करते हुए कहा 'ऐसा बिल्ला तो चपरासी पहनते हैं। '
महाराणा पशोपेश में पड गये ,मन में घोर अंतरद्वन्द उठ खडा हुआ। यधपि पत्र की तत्कालीन प्रतिक्रिया उन्हें वहीं से उदयपुर लोट चलने को प्रेरित कर रही थी किन्तु उनके अनुभवी सलाहकारों ने सलाह दी की यह सम्भव नही है और न नीति सम्मत ही। अंतत : महाराणा ने निर्णय लिया की दिल्ली जायेंगे पर दरबार में हिस्सा नही लेंगे। दिल्ली पहुंचते ही अलवर नरेश जय सिंह ने उनसे भेंट कर उन्हें दिल्ली दरबार में शामिल न होने का पुरजोर आग्रह किया। महाराणा दिल्ली दरबार में शामिल हुए बिना उदयपुर लोट गये।
अंग्रेज सरकार लहू का घूंट पीकर इस के विरुद्ध कारवाई नही कर पायी क्यों कि बाकि राजा लोगों ने कहा की अगर कोई कार्यवाही हुई तो स्थिति विस्फोटक हो जाएगी।
महाराजा अलवर के परम विश्वास पात्र अक्षय सिंह जी रत्नू ने इस एतिहासिक प्रसंग का अपने "केसरी-प्रताप चरित्र " नामक काव्य में विस्तार से वर्णन किया है। इस से आम लोगों में प्रचलित तथा कुछ तथाकथित प्रगतिशील लेखकों व अवसरवादियों द्वारा प्रचलित इस भ्रांत धारणा का भी खंडन होगा कि राजस्थान के रजवाड़े राष्ट्रिय विचारधारा से शून्य और अंग्रेजों के हिमायती थे।
( उपरोक्त लेख डा. शम्भू सिंह जी का 'रणबांकुरा ' के अक्तूबर अंक में छपा था। इस सम्बन्ध में मैं ने मेरे पिताजी ठा.सुरजन सिंह जी से भी काफी सुना था क्यों की उनका इन सभी सरदारों से घनिष्ट व निकट का सम्बन्ध था। )
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