Wednesday, August 28, 2013

संत असंत सार

                                     संत असंत सार 

ऊमरदान जी चारण स्वामी दयानंद जी के समकालीन हुए हैं।  इन को  संसार से विरक्ति हो गयी ,साधू बन गये।  किन्तु इन्होने जब अलग अलग पंथों  में साधुओं की टोलियों के साथ भ्रमण करते ,उनके मठों ,आश्रमों में जब उनके अनैतिक कारनामे देखे तो विरक्ति हो गयी। फिर जोधपुर में ये स्वामी दयानंद जी के सम्पर्क में आये। उनको गुरु बनाया और कहा की ऐसे साधू विरले ही हैं।

इन्होने संत -असंत सार के दोहे , खोटे संतो का खुलासा , असंतो की आरसी व संतो की सोभा आदि कवित लिखे हैं।

ऊमर सत उगणीस में ,बरस छतीसां बीच।
फागण अथवा फरवरी ,निरख्या सतगुरु नीच।।

उमरदानजी ने अपने साधू बनने का वर्ष व नीच गुरु मिलने का वर्णन किया है। इन के इस कवित में से कुछ दोहे -
तंडण कर कविता तणो ,घालूं चंड़ण धूब।
खंड़ण  जोगे भेख रो ,खंडण करणों खूब।।

मोड़ा दुग्गह माळीयां , गावर फोगे ग़ाल।
भोगे सुंदर भामणी , मुफ्त अरोगे माल।।

मां जाई कहे मोडियो , करे कमाई कीर।
बाई कहे जिण बेनरा , बणे जवांई बीर।।

आज काल रा साध रो ,ब्याज बुहारण वेस।
राज मांय झगड़े रुगड ,लाज न आवे लेस।।

बड़ी हवेली बीच में , हेली सूं मिल हाय।
बण सतगुरु छेली बखत , चेली सूं चिप जाय।।

बाम -बाम बकता बहे ,दाम दाम चित देत।
गांव -गाँव नांखे गिंडक ,राम नाम में रेत।।

मारग में मिल जाय ,धुड नाखो धिकारो।
घर माही घुस ज्याय ,लार कुत्ता ललकारो।।

झोली माला झाड ,रोट गिन्ड़का ने रालो।
दो जुत्यांरी दोय ,करो मोडा रो मुंह कालो।।

सांडा ज्यूँ ऐ साधडा ,भांडा ज्यूँ कर भेस।
रांडां में रोता फिरे ,लाज न आवे लेस।।

गृह धारी ओंडा गीणा ,नर थोडा में नेक।
भेक लियोड़ा में भला ,कोड़ा मांही केक।।


  

    

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