Saturday, August 24, 2013

महाराजा अजित सिंह को दिल्ली से निकालने व दिल्ली की लड़ाई व पलायन का रोमंचक वर्णन

महाराजा अजित सिंह को दिल्ली से निकालने व दिल्ली की लड़ाई व पलायन का रोमंचक वर्णन 


महाराजा जसवंत सिंह खैबर दरे के मुहाने पर जमरूद चोकी पर अपने २५०० घुड़सवारो के साथ तैनात थे।  इस सेना ने खैबर दर्रे को खुला रखने में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की।  किन्तु मारवाड़ की समस्त सेना के ठहरने के लिये यह स्थान उपयुक्त नही था इस लिए महाराजा जसवंत सिंह जी ने काबुल के सूबे पेशावर शहर को अपना मुख्यालय बनाया।  यधपि जसवंत सिंह जी ने अपने जीवन के ५२ वर्ष भी पुरे नही किये थे परन्तु कुछ दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे।  २८ नवम्बर ,१६७८ ई. को इन का स्वर्गवास हो गया। इन्ह का दाह संस्कार उसी बाग में किया गया जहाँ इनका शिविर लगा हुआ था।

उनकी दो महारानिया ,करोली के राजा छत्रमण की पोत्री  जसकंवर जदुण और कंकोड उनियारा के फतह  सिंह नरुका की पुत्री कछवाही रानी उस समय जसवंत सिंह जी के साथ पेशावर में ही थी। दोनों अपने पति के साथ  के लिए उत्सुक थी। किन्तु  चूँकि दोनों गर्भवती थी ,अत: मारवाड़ के ऊँचे अधिकारीयों व सामंतो ने उन्हें परामर्श दिया की वो सती  न हों,क्यों की मारवाड़ के सारे वंश का भविष्य उन्ही बच्चों पर निर्भर था।  दुर्गादास ने इस विचार -विमर्श में और महारानियों को राजी करने में  मुख्य भूमिका निभाई।

महाराजा के क्रियाकर्म  बारहवां के दिन पेशावर में कर जोधपुर का सारा दल वापसी के लिए रवाना हो गया। १९ जनवरी १६७९ ई. को इस दल ने अटक के पास सिन्धु नदी को पार किया। एक सप्ताह बाद ये हसन अब्दाल पंहुचे तो अस्थियो व भस्म को गंगा में प्रवाहित करने के लिए पुरोहित कल्याण दास व पंचोली जयसिंह को आगे भेज दिया। १५ फरवरी ,१६७९ ई. का सारा दल लाहोर पंहुचा और एक हवेली में ठहरा। प्रसव काल नजदीक होने से कुछ दिन लाहोर में ठहरने का निश्चय किया गया।

१९ फरवरी १६७९ ई. के दिन पहले महारानी जदुण जी ने सतमासे पुत्र को जन्म दिया करीब आधे घंटे बाद महारानी  कछवाही ने भी पूर्ण विकसित पुत्र को जन्म दिया। बड़े का नाम अजित सिंह व छोटे का नाम दलथभंण रखा गया। संदेश वाहक जोधपुर भेजे गये जो आठवें दिन पंहुच गये।

ओरंगजेब को  यह खबर अजमेर में २७ फरवरी को मिली। वह व्यंग से मुस्करा दिया और बोला "आदमी कुछ सोचता है और खुद ठीक उस से उल्टा करता है।

यहाँ से मारवाड़ का यह दल दोनों राजकुमारों व रानियों के साथ २८ फरवरी को दिल्ली के लिए रवाना हो गया।
ओरंगजेब का रवैया कड़ा होता जा रहा था।  इधर नागोर के राव अमर  सिंह का पुत्र इंद्र सिंह जोधपुर पर अपनी दावेदारी करने लगा। १८ मार्च १६७९ ई. को ओरंगजेब के सामने हाजिर हो ,दोनों राजकुमारों के बनावटी  होने की अफवाह फैलाने लगा।

इधर मारवाड़ का दल १ अप्रेल १६७९ ई. को दिल्ली से ६ मील उतर में बादली गाँव पंहुचा व चार दिन तक वन्ही रुका रहा। दिल्ली में जोधपुर की हवेली खाली कराई गयी व दोनों राजकुमारों व महारानियो को वंहा रखा गया।  इधर अजमेर से पंचोली केसरी सिंह ,भाटी रघुनाथ ,राठोड रूप सिंह उदावत आदि कई अन्य सरदार दिल्ली पंहुच गये।

दुर्गादास के नेतृत्व में यह लोग बादसाह से बार बार अजित सिंह को जोधपुर का अधिकार देने की मांग कर रहे थे  ,जो की खालसा कर लिया गया था। ओरंगजेब जोधपुर राज्य तो क्या उन्हें जोधपुर परगना देने को तैयार नही था। राठोड़ो के बीच फूट डालने के लिए ओरंगजेब ने जसवंत सिंह के भाई के पोते नागौर के राव इंद्र सिंह को जोधपुर का राजा बना दिया। इंद्र सिंह ने महारानियो से दिल्ली की जोधपुर हवेली खली करवाली।  दोनों महारानियाँ उनके पुत्र और जोधपुर का उनका दल किसनगढ़ के राजा रूप सिंह भारमलोत की हवेली में चले गये। स्थिति बड़ी तेजी से नाजुक होती जा रही थी भयानक संघर्ष की संभावना साफ दिखाई दे रही थी। शीघ्र विचार और शीघ्र कारवाई ही वक्त की सबसे बड़ी जरूरत थी।

महारानियों और उनके पुत्रों के प्राणों के संकट को देखते हुये राठोड रणछोड़ दास,  भाटी रघुनाथ ,राठोड रूप सिंह ,दुर्गादास राठोड और मारवाड़ के अन्य सरदारों ने राजकुमारों को चुपके से दिल्ली से निकाल ले जाने की योजना बनाई।

बलुन्दा के राठोड मोहकम सिंह ,खिंची मुकनदास  तथा मारवाड़ के अन्य सरदारों ने बादसाह से मारवाड़ जाने की अनुमति मांगी। ओरंगजेब भी बड़ी संख्या में मारवाड़ी सरदारों की दिल्ली में उपस्थिति से खतरा   महसूस कर रहा था ,सो उसे राहत मिली। मोहकम सिंह के बालबच्चे भी साथ थे। मोहकम सिंह ने एक दुध पीते बच्चे से राजकुमारों को बदल दिया। इस प्रकार कड़े पहरे के बावजूद दोनों राजकुमारों को दिल्ली से बाहर निकाल दिया। और किसी को कानो कान भी खबर नही हुई।

इधर  ओरंगजेब को लगा की अब शिकंजा कसने का समय आगया है। उसने कहलाया की हम दोनों राजकुमारों को शाही हरम में रख कर पालन पोषण करना चाहते है। राठोड़ो के न सहमत होने पर ओरंगजेब ने बल प्रयोग करने का निश्चय किया। उसने शहर कोतवाल फ़ोलाद खां को आदेश दिया की वे जसवंत सिंह की दोनों रानियों व राजकुमारों को रूप सिंह की हवेली उठाकर नूर गढ़ ले जाये। और अगर राठोड इसका विरोध करे तो उन्हें उचित दंड दिया जाये। फ़ोलाद खां ने एक बड़ी फोज के साथ १६ जुलाई ,१६७९ ई. को  रूप सिंह की हवेली को पूरी तरह घेर लिया। शाही सेना ने पहले तो मृत्यु प्रेमी राजपूतों को भड़काने के बजाय समझा बुझा कर काम लेना चाह किन्तु सफलता नही मिली।  सर यदुनाथ सरकार लिखते हैं - "उस दिन उन का मुख्य उद्देश्य यही था की दोनों महारानियो को किसी तरह दिल्ली से सुरक्षित निकाल ले जाये और दुस्साहसिक विरोध और अनेक पृष्ठ रक्षक युधो द्वारा शत्रु को रोककर अपने प्राणों का बलिदान देते हुए अधिक से अधिक मारवाड़ के सरदारों व घुड़सवारो को बचाया जाये। "

समझाने बुझाने से कोई बात बनी नही और लड़ाई शुरू हो गयी। जब दोनों और से गोलिया चल रही थी तब जोधपुर के एक भाटी सरदार रघुनाथ ने एक सो वफादार सैनिको के साथ हवेली के एक तरफ से धावा बोला। चेहरे पर मृत्यु की सी गंभीरता और हाथो में भाले लिए वीर राठोड शत्रु पर टूट पड़े। इस से पूर्व उन्होंने अपने इष्ट देवताओं की पूजा करके अफीम का शांति प्रदायक पार्थिव पेय दुगुनी मात्र में पी लिया था। उनके भयानक आक्रमण के आगे शाही सैनिक घबरा उठे।  क्षणिक हडबडाहट  का लाभ उठा कर दुर्गादास व वफादार घुड़सवारों का दल पुरुष वेशी दोनों महारानियों के साथ निकल गये और मारवाड़ की और  बढ़ने लगे।  "डेढ़ घंटे तक रघुनाथ भाटी दिल्ली की गलियों को रक्त रंजित करता रहा किन्तु अंत में वह अपने ७० वीरो के साथ मारा गया।"

दुर्गादास व उसके दल के निकल भागने की सुचना शाही सैनिको को मिल चुकी थी और इस लिए शाही घुड़सवारो ने उन का पीछा  करना शुरू किया। जोधपुर का दल ९ मील की दुरी तय कर चूका था ,तब शाही घुड़सवार उनसे जा लगे।  " अब रणछोड़दास जोधा की बारी थी। उसने कुछ सैनिको के साथ शाही घुड़सवारो को रोक कर रानियों को बचाने के लिए बहुमूल्य समय अर्जित किया। जब उनका विरोध समाप्त हो गया तब मुगल सैनिक उनकी लाशो को रोंद कर बचे हुए दल के पीछे भागे।

अब दुर्गादास व उसके घुड़सवारो का छोटा सा दल वापस मुड  कर पीछा करने वालो का सामना करने के लिए विवश हो गया।  वंहा एक भयानक युद्ध हुआ और मुग़ल सैनिकों को कुछ देर के लिए रोक गया। किन्तु स्थिति काबू से बाहर हो चकी थी।  दिल्ली स्थित हवेली से बाहर निकलते समय दोनों महारानियो को भी युद्ध करना पडा  था और वे भी जख्मी हो चुकी थी। पांचला के चन्द्रभान जोधा जिस पर महारानियो का दायत्व था ,के सामने अब कोई विकल्प नही रहा और उसने दोनों के सर काट दिए। इसके बाद उसने भी युद्ध करते हुए मातृभूमि के लिए प्राण न्योछावर कर दिए।

शाम हो चुकी थी। मुगल सैनिक लम्बी दोड और तीन भयानक मुठभेड़ों के कारण थक गये थे। अत : जब घायल दुर्गादास शेष बचे ७ सैनिको के साथ मारवाड़ की और बढ़ा तो उन्होंने उस का पीछा नही किया। जब दुर्गादास ने देखा की मुगल सैनिक उन का पिच्छा नही कर रहे है तो लोट कर महारानियों के पार्थिव शरीर को उठा कर यमुना की पवित्र धारा में प्रवाहित कर दिया।


 






  

2 comments:

  1. बहुत बढ़िया ऐतिहासिक जानकारी

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    1. ये बनायीं हुई कहानी है, खींची मुकुंदास जसवंत सिंह का पासवान था, देखे जोद्धपुर राज्य की ख्यात

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