Saturday, June 15, 2013

बादळी - चन्द्र सिंह जी बिरकाली

बादळी - (चन्द्र सिंह जी बिरकाली )
राजस्थानी के प्रसिद्ध कवि  चन्द्र सिंह जी बिरकाली की काव्य कृति " बादळी " एक कालजयी रचना है। राजस्थान में वर्षा का महत्व जो भुक्त भोगी है वो ही समझ सकता है। राजस्थान में तो कहावत है कि ' मेहा तो बरसंता ही भला होणी व सो होय ' ग्रामीण परिवेश में आज भी मेह की उडीक होती है क्यों कि आशीर्वाद आट्टा पैकेट में नही मिलता। अनाज खेत से ही आता है।
लम्बी कविता में से कंही कंही से यहाँ उधृत है -

आठूँ पोर उडिकता , बीते दिन ज्यूँ मास !
दरसण दे अब बादळी , मत मुरधर नै तास !!

आस लगायाँ मरुधरा ,देख रही दिन रात !
भागी आ बादळी , आई रुत बरसात  !!

कोरा कोरा धोरिया , डूगा डूगा डैर  !
आय रमां ऐ बादळी , ले ले मुरधर लहर !!

ग्रीखम रुत दाझी धरा , कलप रही दिन रात !
मेह मिलावण बादळी , बरस बरस बरसात !!

नही नदी नाल़ा अठे , नहीं सरवर सरसाय  !
एक आसरो बादळी , मरू सूकी मत जाय !!

खो मत जीवण बावळी , डूंगर खोहाँ जाय !
मिलण पुकारे मरुधरा , रम रम धोरां आय !!

नांव सुण्या सुख उपजे जिवडै हुऴस अपार !
रग रग मांचै कोड मै , दे दरसण  जिण वार !!

आयी घणी उडीकतां , मुरधर कोड करै !
पान फूल सै सुकिया , कांई भेंट धरै  !!

आयी घणी अडिकता , मुरधर कोड करै !
पान फूल सै सुकिया काईँ भेट धरै  !!

आयी आज अडिकता , ,झडिया पान ' र फूल !
सूकी डाल्यां तीणकला , मुरधर वारे समूल  !!

आतां देख उतावली , हिवडे हुयो हुलास !
सिर पर सूकी जावता , छुटी जीवण आस !!

सोनै सूरज उगियो , दिठी बादळीयां !
मुरधर लेवै वारणा ,भर भर आंखडियां !!

सूरज किरण उंतावली , मिलण धरा सूं आज !
बादळीयां रोक्याँ खड़ी , कुण जाणे किण काज !!

सूरज ढकियो बादल्याँ , पडिया पडद अनेक !
तडफै किरणा बापड़ी , छिकै न पड़दो एक !!

सूरजमुखी सै सुकिया ,कंवल रह्या कुमालय !
राख्यो सुगणे सूरज नै ,    बादलीयां बिलमाय !!

छिनेक सूरज निखलियो , बिखरी बदलियाँ !
      

Wednesday, June 12, 2013

महाराणा प्रताप विषयक एक गीत

राणा धीर धरम रखवाला - थुं रजवट रावट वाला !
वीर प्रताप राम रा पोता - जस रा जगत उजाला  !!
भलां पालणो ,खलां खपाणो , चौसठ घडी आप रा चाल़ा !
दो दरयाव तरयो एक साथै , चेटक चढ़बा वाला !
खम्या क्रोड़ दुःख छोड़ सभी सुख - खम्या न खोट खबला !
मेवाडा मेवाड़ बनाई - रजवट री पठशाला  !
एडी ठोड दियो न अंगूठो - बढतो गयो बढ़ला !!
थारो नाम कान सुन होवे ,- मुकन मद दांताला !
मिनख पणों सिखायो सागे - मनख मात्र रा वाला !!
खोटा री छाती में खटके - सात हाथ रा भाला !
एकलिंग रै रिया आसरे - दिया दुश्मण  टाला  !!


Sunday, June 9, 2013

कहावत

१ . एक कहावत कि चिरमिराट मिटज्या पण गिरगिराट कोनी  मीटे।

एक गावं में एक स्यामी आटा मागने के लिए जाया करता था। आटा मांगने के लिए वह एक जाट के घर भी रोज जाता था। जाट के घर एक हट्टी कट्टी खुंडी भैंस थी जिसके सींग बड़े सुंदर थे। स्यामी रोज यही सोचता कि देखूं इन सींगो के बीच मेरा सिर फिट बैठता है या नही ,लेकिन वह रोज हिचक जाता। एक दिन स्यामी जी ने अवसर पाकर भैस के दोनों सींगो में अपना सिर फसा दिया। स्यामी के इस हरकत से भैस भड़क गई और स्यामी को कई दफा उपर निचे पटका।
लोगो ने पूछा यह आप को क्या सूझी जो भैंस के सींगो में सर फसादिया। स्वामीजी ने पीड़ा से कराहते हुए कहा कि " चिरमीराट तो मिट जायेगा पण गिरगिराट नही मिट रहा था। " अब इस बात का गिरगिराट नही है कि मेरा सिर फिट बैठे ग या नही।

२ . एक चमार अपने ससुराल गया। ठण्ड बहुत पड़ रही थी , उसने अपनी सासु को सुनाते हुए कहा :
दो दो मिल सोयो ठंड पडे गी भारी।
सासु भी बड़ी हुंसीयार थी ,उस ने कहा :

अलडी सागे   मलडी सोसी , रामगोपल्यो था सागे !
बुढलियो डण कुवा पर सूं आसी बो पड़ रह सी मांह सागे !!

३ . "बाणया की ताखड़ी चाल्यां बो कोई कै सारे कोनी "
एक बनिया उदास मुंह अपनी दुकान पर बैठा था ,गाँव का ठाकुर उधर से निकला तो उसने पूछा सेठजी आज उदास क्यों बैठे हो। तो बनिया बोला क्या करें आज कल तकड़ी ही नही चलती। इस पर ठाकुर ने व्यंग से कहा कि कल से  हमारे अस्तबल में घोड़ों की लीद तोलना शुरू करदो। बनिये ने सहर्ष स्वीकार कर लिया व दुसरे दिन अस्तबल में जाकर हर घोड़े की लीद तोलने लगा। यह देख कर घोड़ों के अधिकारी ने इस का कारण पूछा तो उसने कहा कि तुम ठिकाने से पैसा तो पूरा लेते हो पर दाना कम खिलाते हो , इसी की जाँच पड़ताल की जाएगी। अधिकारी चोरी करता था सो उसने बनिये का महिना बांध दिया और कहा की ठाकुर से मेरी शिकायत मत करना। दूसरी बार जब ठाकुर उक्त बनिए की दुकान के आगे से निकला तो बनिया प्रसन्न चित था क्यों की उसकी तकड़ी चल गयी थी।

४. बिना मांगे जो भिक्षा मिले वह दूध के समान सात्विक ,जो मागने के बाद मिले वह पानी के समान और जो भिक्षा खीचतान से मिले वह रक्त तुल्य होती है।

अणमांगी सो दूध बरोबर ,मांगी मिले सो पाणी !
व भिच्छा है रगत बरोबर ,जी में टाणाटाणी !!

५. लाख जतन अर कोड बुध , कर देखो किण कोय !
अण होणी होवे नही , होणी हो सो होय  !!

६. अब तो बीरा तनै कह्ग्यो बो मन्नै भी कह्ग्यो।
एक बुढ़िया अपने सामान की गठरी उठाये किसी गाँव जा रही थी ,उसके पास से एक घुड़सवार गुजरा तो बुढ़िया ने उससे कहा की भाई थोड़ी दूर तुम इस गठरी को अपने घोड़े पर रखकर ले चलो तो मुझे कुछ आराम मिल जाये। घुड़सवार ने इनकार करते हुए कहा कि बुढ़िया माई और घुड़सवार  का क्या साथ। पर थोड़ी दूर जाने के बाद उसके मन में कलुष जगा सोचा गठरी को घोड़े पर लेकर भाग चलूं ,बुढ़िया मुझे कंहा पकड़ेगी। यों सोचकर वह वापिस लोट पड़ा। इधर बुढ़िया के मन में भी बात आई कि अगर मैं घुड़सवार को गठरी देती और वो भाग जाता तो मै क्या कर लेती। वापिस लोट कर जब घुड़सवार ने कहा कि ल बूढी माई मैं तेरी गठरी थोड़ी देर अपने घोड़े पर रख कर चलता हूँ। बुढिया ने सहज भाव से कहा 'ना बीरा अब तो जीको तनै कह्गो बो मनै भी कहगो।'

  ७.घर बडो, बर बडो ,बडो कुह्ड दरबार , घर में एक पछेवड़ो ,ओढण आला च्यार !

एक सेठ के गरीबी आगयी बच्चो की शादी भी नही हो रही थी। दुसरे शहर में एक सेठ के लडकी थी उस ने इस सेठ का  पहले काफी नाम सुन रखा था सो नाइ को लड़का देखने भेजा।खाने का तो जैसे तैसे बंदोबस्त हो गया किन्तु जब रात को सोने का समय हुआ तो बिस्तर एक ही था सो नाई को दे देदिया।नाई ने वापस आकर सेठ को कहा सब ठीक ही है केवल ओढने का पछेवडा चार जनों के बीच एक है। सेठ को बिना बोले सारी  वस्तु स्थिति समझ में आ गयी।

8. जिसको अपने विषय का ज्ञान नही उस को आप उस विषय को पढ़ाने के लिए कहें तो  अर्थ का अनर्थ कैसे होता है।
एक दिन स्कुल में संस्कृत के अध्यापक नही आये तो हेडमास्टर जी ने अंग्रेजी के आध्यापक को भेज दिया।गाँवो की स्कूलों में यह आम बात थी। मास्टर जी ने  आते ही बच्चों को  पूछा की संस्कृत के आध्यापक आज आप को क्या पढ़ाने वाले थे। बच्चों ने पुस्तक में से एक संस्कृत का श्लोक मास्टरजी को बता दिया जो इस प्रकार था :
 स्त्री स्य चरित्रम पुरषस्य भाग्यम , देवो न जानाति कुतो मनुष्य।

इंग्लिश के अध्यापक ने जो उसकी व्याख्या की वह इस प्रकार थी :
स्त्री का चरित्र सुनकर या देख कर पुरुष तो भाग ही जाता है। देवता तो उस के पास ही नही जाते। अगर मनुष्य चला गया तो कुत्ता हो जाता है।

9. मतलब री  मनवार, न्यूत जिमावे चूरमो !
     बिन मतलब मनवार ,  राब न पावे राजिया  !!
गर्मी में राजस्थान की राबड़ी का स्वाद और उस की सीरत का कोई जवाब नही।


गैला शब्द का हिंदी में अनुवाद नही हो सकता। बावला भी ऐसा ही शब्द है। यह पागल पण कुछ अलग तरह का है। गैला व बावला प्यार से भी कहा जाता है।



१ ० . डा . विद्यासागर शर्मा  की एक कविता को नमूनों -
साग में पानी ही पानी उस में से गोता  लगाकर मटर का दाना ढूढ़ लेना हर किसी के बस की बात नही ,देखिये :

"जान मांय  राजलदेसर गयो जणा जोतो ,
मान्यो कोनी जिद कर'र साथै चढ़गो पोतो ,
छोरो के हो काग हो ,
तरीदार साग हो ,
मटर ल्यायो काढ'र ,मार कटोरी में गोतो !"


१ १ . आंधा स्यामी राम राम !
        कै -आज तेरे ही नुतो है।
१ २ . सेफां बाई राम राम
      राम-मारया तूँ मेरो नाम कैंया जाण्यो।
      तेरी तो सकल ही कवै है.
13.ठाकरां टाबरा रा नाम कांई ?
     परवत सिंह ,पहाड़ सिंह ,गिरवर सिंह डूंगर सिंह।
    सगला भाटा ही भाटा।

फूहड़ व कर्कशा नारी के संबंध में कहावतें -

१ पुरुष बिचारो के करै ,जे घर मैं नार कुनार।
   बो सिंमै दो आंगली बा फाड़ै गज च्यार।।
२ एक सेर की सोला पोई ,सवा सेर की एक।
   बो निगोड्यो सोला खायगो ,मैं बापड़ी एक।.
३  इसी रांड का इसा ही जाया ,
   जिसी खाट बीसा ही पाया।
४ कांसी कुति कुभरजा ,अण छेड़ी कूकन्त।
५ चाकी फोड़ूं चूल्हो फोड़ूं ,घर कै आग लगाउंगी।
   चालै है तो चाल निगोड्या ,मैं तो गंगा नहाऊँगी।।
6. लूखा भोजन मग बहण, बड़का बोली नार।
    मंदर चुवै टपूकड़ा पाप तणा फल च्यार।।
७. धान पुराणों घी नयो ,आज्ञा कारी नार।
    पथ तुरी चढ़ चालणों ,पुण्य तणा फल च्यार।।
८. साठी चावल भैस दूध ,घर सिलवन्ती नार।
    चौथी पीठ तुरंग री ,सुरग निशाणी च्यार।।
९. इज्जत भरम की कमाई करम की लुगाई सरम की।


मिश्रित कहावतें -
१ आये भाण लड़ां ,ठाली बैठी के करां।
२ आँख फरुकै दाहिणी ,लात घमूका सहणी।
   आँख फरुकै बांई ,कै बीर मिलै कै सांई।।
३ एक ओरत हर चीज में पडोसी से होड़ करती थी।  होली का त्योंहार पर पडोसी की होड़। उस ने पोळी यानि दरवाजा व उसमे कमरे बनवाये तो इस ने भी बनाये। अब इस को बेटा पैदा हुआ तो इस ओरत ने ताने में कहा अब होड़ में बेटा भी जण -

"होड़ां होळी ,होड़ां पोळी होड़ां बेटो जण ये भोळी। "

४ जठै भागां भागी जाय बठै भाग अगाऊ जाय।
५ बाईजी महलां सूं उतरया ,भोडळ को भळ को।
  बतलाया बोलै नही, बोलै तो डबको।।
६ एक किसान की बीबी रोज खुद खीर बना कर पति के दोपहर के भोजन के लिये आने से  पहले खाले ती। एक दिन  किसान के हल की कुश टूट गयी सो वह घर जल्दी आ गया।  पत्नी पड़ोसी के  यहां गयी हुयी थी और इसे भूख लगी हुयी थी सो  रसोई  जाकर जब इस ने खीर देखि तो बैठ कर पूरी खा गया व लोहार के पास कुश ठीक कराने चला गया। पीछे से पत्नी आयी और पूरी बात समझ में आ गयी। अब उसने बच ने के लिए पति को ही फसा दिया। राजा के बेटे को सांप ने काट लिया ,इस औरत ने राजा को बताया की मेरा पति सांप का जहर उतारना जानता है। राजा ने उसे पकड़ बुलाया। तब उसने कहा -

" क्यूँ कुश टूटै क्यूँ घर आऊं ,क्यूँ राजा घर बैद कहाऊं।
 ओरूं न खांऊँ रांड की खीर ,सहाय करी मेरा गोगा पीर।।"

गोगाजी साँपों के देवता हैं।

७ सेरे क चून उधारा री , कोई गुड देदे तो।
  गटक मलीदा करल्यूं री ,कोई घी देदे तो।.
 मरती पड़ती खाल्यूं री कोई करदे तो।
८  गुड कोनी गुलगला करती ,ल्याती तेल उधारो।
   पण्डे में पाणी कोनी ,आटे को दुःख न्यारो।
   कडायो तो मांग लियाती , बलितै को दुःख न्यारो।
९ एक औरत ने पिंजारे को रुई पीन ने के लिये दी। पिंजारे ने रुई पिंज दी। औरत जब लेने गयी तो उसे रुई ज्यादा लगी सो उसने कहा की इसको तोलने की कोई जरूरत नही है ,तुमने मेरी रुई ही तो पीनी है। पिंजरा मन ही मन हंसा और सोचा -

तोलैगी जद रोवैगी ,पलड़े घाल पजोवेगी।

१० मैं रांड कुवा मै पड़ो , थे तो जीमल्यो ,कै थारलै कुवा मैं तो मैं पड़गो।

एक किसान की बीबी रोज माल मलीदा बनावे व खाए। किसान जब दोपहर में खाना खाने आवे तो उसको सुखी रोटी कांदे के साथ पकड़ा दे। एक दिन किसान खेत से जल्दी आगया। पत्नी पड़ोस में गयी हुई थी उसने खीर चूरमा खा लिया व वंही सो गया। पत्नी पड़ोस से आई रोटी बनाई व पति को आवाज लगाई की रोटी खालो उसने कहा की तूं ही खाले। उसने रोज की तरह कहा 'मैं रांड कुवा मै पडूँ थे ही खाल्यो ,तब किसान ने कहा की आज तेरे कुये में मै पड़ गया हूँ। चुप चाप खाना खाले।


11. गुण बिन ठाकर ठीकरो ,गुण बिन मीत गंवार।
     गुण बिन चंदन लाकड़ी ,गुण बिन नार कुनार।।

Wednesday, June 5, 2013

डिंगल के सर्व श्रेष्ठ महाकवि हिंगलाज दान जी कविया

राजस्थान पत्रिका में नगर परिक्रमा के नाम से एक स्तम्भ आता था। इस में  लेखक की जगह  'नागरिक ' नाम से एक पारिक जी लिखते थे शायद उनका नाम राजेन्द्र परिक था। उन्होंने हिंगलाज दान जी के बारे में दस - बारह अंको में लिखा है। इन की कटिंग पिताजी ने मुझे भेजी थी , उस समय पढ़ कर रख दी। अब सेवा निवृति के बाद दुबारा पढने का मोका मिल रहा है और व्यापक रूप से इसको शेयर करने के साधन भी आज उपलभ्द हैं  सो उसी के आधार पर सन्क्षिप्त में लिखने का प्रयास है।

हिंगलाज दान कविया सेवापुरा के रामप्रताप कविया के दो पुत्रो में जेष्ठ थे। उनका जन्म माघ शुक्ला १ ३ शनिवार सम्वत १ ९ २ ४  में सेवापुरा में हुआ था। तब उनके दादा नाहर कविया विद्यमान थे और उन्ही से इन्होने अपनी आरंभिक शिक्षा पाई। जब वे साढ़े तीन वर्ष के थे तो पिता बारहठ रामप्रताप कविया ने उन्हें बांडी नदी के बहते हुए जल में खड़ा करके जिव्हा पर सरस्वती मन्त्र लिख दिया था। बांडी सेवापुरा के पास हो कर ही बहती है और इस में बरसात में ही पानी आता है। बहता पानी निर्मल गंगा की तरह ही पावन माना जाता है। बांडी नदी के प्रवाह के प्रति भावना व आस्था के साथ पिता ने जो मन्त्र दिया ,उसने अपना चमत्कारिक प्रभाव दिखाया। पांच वर्ष  अल्पायु में ही हिंगलाज दान की कवित्व -शक्ति प्रस्फुटित हो गयी और अपनी विलक्षण स्मरण शक्ति तथा वंशानुगत संस्कारों के फलस्वरूप वे डिंगल के सर्वश्रेष्ठ महाकवि के रूप में प्रतिष्ठित और मान्य हुए।
डिंगल व पिंगल के विद्वान होने के साथ ये संस्कृत के भी उदभट पंडित थे। उन्हें अमरकोष पुरा कंठस्थ था।

 (अमरकोश संस्क्रत की व्याकरण थी ,शब्द कोष था। पिताजी स्वर्गीय ठा . सुरजन सिंह जी ब्रह्मचर्य आश्रम नवलगढ़ के स्नातक थे , जितना डिंगल व पिंगल का ज्ञान था उतना ही संस्कृत व अंग्रेजी का ज्ञान था। उन्होंने मिशन हाई स्कूल  ,जयपुर से दसवी १ ९ ३ ०  में पास करली थी। प्रथमा व साहित्य भूषण इलाहबाद व काशी से किया था।   अमरकोष के श्लोक जब उनसे सुनता था तो लगता था की आप किसी स्वप्न लोक में खो गये हो - एक श्लोक विष्णु के लिए था  ' अमरा अजरा विभुधा देवा निर्झरा सूरा ----- आगे की पंक्तियाँ भूल रहा हूँ। यह केवल अमरकोष क्या है उस को समझ ने के लिए लिखा है। )

स्मरण शक्ति तो ऐसी थी की दोहा सोरठा जैसे छन्द एक बार सुन लेने लेने पर ही याद  हो जाते थे। छपये ,
कवित और सवैये जैसे छंद भी दो बार सुन लेने के बाद वे अक्षरक्ष सुना देते थे।डिंगल का गीत छंद बड़ा व कठिन होता है , किन्तु वह भी तीन बार सुन लेने पर उन्हें याद हो जाता था। किसी गीत को लय के साथ पांच बार सुना देने पर उसे वे विपरीत क्रम में दोहरा देते थे। हिंगलाज दान जी बड़ी गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे ,कभी कोई शेखी नही बधारते थे किन्तु एक प्रसंग में उन्होंने कह ही दिया कि उन्हें पूरा अमरकोष कंठस्थ है। कवी शब्दकोश 'मानमंजरी ' के चार सो दोहे भी उन्हें कंठस्थ ही नही थे बल्कि वे वे प्रत्येक शब्द का यथोचित उपयोग भी जानते थे।

परिक जी ने एक अनुभव लिखा है , उन्ही की भाषा में -
कोई चोपन वर्ष (यह लेख शायद १ ५ - २ ० वर्ष पुराना है )पुराणी बात होगी . सोलह वर्ष का मै दीपवाली की धोक देने के लिए जयपुर के साहित्य मनीषी पुरोहित हरिनारायण शर्मा  बी .ए . विद्याभूषण के पास गया था। मै जब पंहुचा तो एक नाटे कद के वयोवृद्ध सज्जन , जिनकी पगड़ी और अंगरखे का लिबास उनको पुराणपंथी जता रहा था, पुरोहित जी से विदा लेकर वहां से जा रहे थे और पुरोहित जी ,जो उन सज्जन से कद में लगभग डेढ़ नही तो सवाये अवश्य थे ,अपनी झुकी कमर के साथ उठ खड़े हुए थे और बड़े आत्मीय भाव से उनके साथ द्वार  तक जाकर उन्हें विदा कर रहे थे। जब वे चले गये और पुरोहित जी अपने स्थान पर लोट आये तो मेरी और देख कर पूछने लगे  " भाया थे आने जाणो छो ज्यो अबार अबार गया छे ?' मैंने गर्दन हिलाकर न में जवाब दिया , पुरोहित जी ने दूसरा प्रश्न किया " थे मैथली शरण गुप्त न जाणो छो ? " मैंने हाँ में उतर दिया ...... तो पुरोहित जी ने कहा " ये जो गया वै मैथली शरण गुप्त सूं इक्कीस छे , उन्नीस कोनै। बहुत बड़ा कवी छ ये हिंगलाज दान जी कविया "

१ ९ ४ ५ ई . में हरिनारायण जी पुरोहित का निधन हुआ तो उन का श्रधांजलि अंक पारिक जी ने निकाला व हिंगलाज दान जी को अपने परम मित्र के लिए काव्यांजलि लिख कर भेजने का निवेदन किया। उन्होंने जो मरसिया लिख भेजा वो  इस प्रकार है :

इग्यारस सुकल मंगसर वाली , दो हजार पर संवत दुवो !
यण दिन नाम सुमरि नारायण , हरिनारायण सांत हुवो  !!
परम प्रवीण पिरोंथा भूषण , विधा भूषण वृद्ध वयो  !
भगवत भगत उर्जागर भारथ , गुणसागर सुरलोक गयो !!
करि मृत लोक जोखा कान्थडियो , घट छट कायो तीकण घडी !
पुहप झड़ी लागी सुरपुर में , पुर जयपुर में कसर पड़ी !!
भायां ज्यूँ मिलतो बडभागी , घरी आयां करि कोड घनै !
मिलसी हमें सुपने रै मांही , तनय मना पारिक तणे  !!
हाय पिरोथ , अदरसण ऊगो , हाथां पाय सपरसण  हार !
जुनू मित्र सुरगपुर जातां , सुनो सो लागे संसार  !!

मरसिया क्या है , कवी ने अपने प्रिय मित्र के विछोह पर अपना हृदय ही उड़ेल कर रख दिया है। भायां ज्यूँ मिलतो बड भागी , घरि आयां करि कोड घणो और जूनो मित्र सुरगपुर जातां ,सुनो सो लगे संसार  , मार्मिक शोकोदगार हैं।  'पहुप झड़ी लागी सुरपुर में , पुर जयपुर में कसर पडी ' रिक्तता का आभास करा दिया।

मुझे इनकी कविता में रूचि निचे लिखे पद्य को सुनकर हुयी :

झाल्यो बळ झुंपडा , कालजो हाल्यो किलाँ !
दबगी गोफ्याँ देख , टकर खानी गज टिल्ला !!
खग ढाला बिखरी , जेलिया जोड्या जिल्ला !
धणीयारी धातरी , प्रातरी लेवे पुल्ला !
जोड़ता हाथ थाने जिका , उभा हाथ उभारिया !
गढ़ पत्यां आज कैठे गई , थारी तेग घनी तरवारिया !!

इन की रचनाओं में  'मेहाई महिमा ' मृगया -मृगेंद्र ' 'आखेट अपजस '   'दुर्गा बहतरी 'व फुट कर गीत व कवित जिन में कुछ प्रकाशित व अप्रकाशित  है।

मृगया मृगेंद्र  कथा यूँ चलती है - शंकर के शाप से मृत्यु लोक में उत्त्पन मृगराज ने विन्ध्य चल की पर्वत श्रेणी में बड़ा आतंक मचाया और पहाड़ी मार्गो को अवरुद्ध कर दिया। हाडोती के हाडो में कोई ऐसा नही था जो उसका वध करने का साहस दिखाता। वह अपनी सिहनी के साथ घूमता घामता मारवाड़ के कुचामन के पहाड़ की और आ निकला और वंहा एक कन्दरा में रहने लगा। तब कुचामन के ठाकुर केशरी सिंह थे व उनका कुंवर शेर सिंह  बड़ा पराक्रमी व बलि था। यहाँ कवि ने कुचामन नगर का सोंदर्य ,वहां के निवासियों और हाथी घोड़ों -ऊँटो आदि का बड़ा सजीव वर्णन किया है। कुंवर शेर सिंह को जब इस सिंह के आने की खबर मिली तो उन्होंने इसके शिकार की तैयारी की। वन में जाकर उन्होंने सिंह को हकाला -चुनोती दी। सिंह निकलकर आया और शेर सिंह ने उसे अपनी तलवार से ही धराशायी कर दिया।

आखेट का वर्णन बड़ा ही रोचक व सजीव है। भाषा पर हिनगलाज दान  जी का पूर्ण अधिकार था। कुवर शेर सिंह व उनका  शिकारी दल जब निकट आ जाता है  तो ' गजां गाह्णी नाह सूतो जगायो ' , सिंहनी अपने सोते हुये नाथ को जगाती है -

सती रा पती ऊठ रै काय सोवे , जमी रा धणी ताहरी राह जोवे !
बजे सिंधु वो राग फोजां बकारै , थई थाटरां पेर चोफेर थारे  !!
 दलां भंजणा , ऊठ जोधा दकालै , घणा रोस हूँ मो सरां हाथ घालै !
अडिबा खड़े दूर हूँ सूर आया , जुड़ेबा कीसुं जेज लंकाल जाया !!

भावार्थ : हे सती के पति ! हे मृग राज नीद से उठो सो क्यों रहे हो। ये देखो इस जमीन के धणी ,जमीन के मालिक तुम्हारी राह देख रहे हैं।  सिंन्धू राग बज रहा है ,फोज युद्ध घोष कर रही है। सेना ने तुम्हे चोतरफ़ से घेर लिया है। हे दल भन्जन ! उठो ये योद्धा तुमे ललकार रहे है।बड़े क्रोधित हो ये हमारे सिरों पर हाथ ड़ाल रहे है।ये सूर सिंह अड़ कर खड़ा है। हे योद्धा इन से भीड़ में देर कैसी।

बरूंथा गजां गंजणी एम बोली ,खुजाते भुजा डाकि ये आँख खोली !
द्रगां देख सुंडाल झंडा दकुला , प्रलय काळ रूपी हुवो झाल पूलां !
करे पूंछ आछोट  गुंजार किधि , बाड़ेबा अड़े आभ हूँ झंप लिधि !

भावार्थ : सिंहनी से यह सब सुन कर सिंह कुपित होता है , भुजा को खुजाते हुए सिंह ने आँख खोली। गुस्से में भरकर पूंछ को सीधी कर गर्जना की और जैसे आसमन में अडना है वैसे छलांग लगा दी।

फिर सिंह को देख कर शेर सिंह अपनी तलवार लेकर उस पर झपटे , शेर से शेर भिड गया। इस द्वंद का रोमंचक दृश्य है -

लखे सेर नू सेर केवाण लीनी , भुंवारां भिड़ी मोसरां रोस भीनी !
कह्यो साथ नु लोह छुटो न कीजे , लडाई उभै सेर की देख लीजै !!

सिंह के शिकार के बाद सिंहनी का भी शिकार किया गया। कवि की कल्पना देखते ही बनती है। -

सती सिंघणी पोढ़ीयो पेट स्वामी , बणी संग सहगामिणी अंग बामी !
सताबी तजे मद्र रा छुद्र सैला , गया दम्पति अद्र कैलास गेलाँ !!

इस प्रकार मृत्यु लोक में अपना शापित जीवन समाप्त कर सिंह दम्पति पुन: कैलास पर चले गये।