Sunday, November 11, 2012

फिर याद आयी लालटेन,ढिबरी,चिमनी ,
माचिस की तीली जल न पायी,बुझ गयी,
वह सीलन भरी कोठरी , बहुत याद आई।

याद आयी संझा बाती , वह रंभाती गाय ,
खूंटा तोड़ने को बेताब , बछिया याद आयी
पश्चिम के माथे पर धुल का गुलाल ,
बल गाड़ी की चरर-चूं याद आयी।

अभी तक नही लौटा देखो किधर गया
किता बिगड़ गया छोकरा ,
लाठी टेकती जर जर काया ,
पुछती फिर रही डगर डगर
गुमशुदा वह आवाज , बहुत याद आयी।

बहुत याद आया कांव कांव करता पीपल
एक बींट की मानो, गिरी अभी अभी सिर पर
बहुत याद आयी , बापू की वह मार
याद आयी वह छड़ी ,धमकी, घुड़की
इस कदर आयी हिचकियाँ, लेने लगा रह रह।

न जाने कहाँ गयी व अठनी चवन्नी
सलाम साहब के घिसे चहरे वाली दुअन्नी,
मोर का पंख इमली का चिंया
खतरनाक नो का पहाडा
याद करना भूल जाना
एक स्लेट पानी पोते की डिबिया, बहुत याद आयी।

सचमुच याद आयी, मास्टर जी की कूबडी
हवा में झूलता मदरसे का वह बोर्ड
टाट पट्टी के टुकड़े के लिए
जीवन मरण का संघर्ष
हाथा  पाई करती नन्ही हथेलियों की
गरमाहट बहुत याद आयी।

लगातार बिजली की कटोती के  इन
निर्मम दिनों में लालटन, चिमनी, ढिबरी
व जल न पायी माचिस की तीली  बहुत याद।

( यह कविता मैंने किसी पत्रिका से नोट की थी। )
  



Saturday, November 3, 2012

हरिपुरा का युद्ध


हरिपुरा का युद्ध 


खंडेला के राजा केशरी सिंह व मुग़ल सूबेदार अब्दुल्लाह खां के बीच अमरसर परगने के गाँव देवली व हरिपुरा

के  बीच के मैदान में भीषण रक्त रंजित युद्ध लड़ा गया जो इतिहास में हरिपुरा युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है। इस

युद्ध में प्रतापी राव शेखा के वंशजों की प्राय:सभी शाखा प्रशाखों के लड़ाकू योधाओं ने मुग़ल शाही सेना से युद्ध

लड़ते हुए प्राणों की आहुति अर्पित की थी।

शिखर वन्शोत्पति पीढ़ी वृतिका में लिखा है :-  हरिपुरा युद्ध में राजा केशरी सिंह 70 घावों से क्षत-विक्षत होकर

धराशायी हुआ।भूमि माता को अपने खून से सने मृतिका पिंड अर्पण कर अश्वमेघ यज्ञ का सा महान कार्य

करता हुआ राजा केशरी सिंह कीर्ति शेष हुआ।"
      
साहित्य एवम इतिहास के मूर्धन्य विद्वान डा . संभु सिंह मनोहर ने उस लोमहर्षक अदभुत कृत्य का उल्लेख

इस प्रकार किया है।

"महाप्रतापी राव शेखा  के वंशज शूराग्रणी केशरी सिंह खंडेला अजमेर के शाही सूबेदार से लड़ते हुए अगणित

घावों से घायल हो, रण क्षेत्र में खून से लथपथ बेहोश पड़े थे। शरीर से रक्त धाराये फूट रही थी। काफी देर बाद

जब उन्हें कुछ होश आया तो उन्होंने भूमि माता को अपना रक्त पिंड देने हेतु अपना हाथ बढाया और युद्ध क्षेत्र

से कुछ  मिट्टी ले उसमे अपना रक्त मिलाने के लिए अपने घावो को दबाया और रक्त निकालने की असफल

चेष्टा करने लगे, किन्तु उनके घावों से पहले ही काफी रक्त बह चुका था,अब रक्त कहाँ था।तब तो वीर केशरी

सिंह अपनी तलवार से शरीर के मांस पिंड काटने लगे। फिर भी रक्त नही निकला। यह देख कर उनके समीप

ही घायल पड़े उनके काका आलोदा के ठाकुर मोहकम सिंह ने पुछा -आप यह क्या कर रहे हैं।अर्ध मुर्छित

अवस्था में उतर दिया -मै धरती माता को रक्त पिण्ड अर्पण करना चाहता हूँ, पर अब मेरे शरीर में रक्त नही

रहा। यह सुन कर मोहकम सिंह ने कहा -आप के शरीर में नही रहा तो क्या हुआ मेरे शरीर में तो है। आपकी

और मेरी धमनियों में एक ही रक्त बह रहा है।लीजिये, यह कहते हुए अपने शरीर का रक्त निकाल कर उस में

  मिला दिया, जिनके पिण्ड बनाते  बनाते ही केशरी सिंह ने दम तोड़ दिया।"

                " आसन्न मृत्यु के क्षणो में भी जिस धरती के पुत्र मां वसुंधरा को अपना रक्त अर्ध्य भेंट करने की

ऐसी उत्कट साध अपने मन में संजोये रखते हो , उस धरती माता के एक एक  चप्पे के लिए यदि उन्होंने

सो सो सिर निछावर कर दिए हों तो इस में क्या आश्चर्य है। "


      

झाझड


                                                          झाझड


राजा रायसल के चतुर्थ पुत्र भोजराज का जन्म विक्रमी सम्वत 1624 की भाद्रपद शुक्ला एकादशी के दिन हुआ।

ये मेड़ता के शासक राठोड राव विरमदेव के कनिष्ट पुत्र जगमाल के दोहित्र थे। किशोरावस्था में ही भोजराज

को खंडेला में रख कर वहां के  शासन प्रबंध के कार्य पर नियुक्त कर दिया गया था। रायसल जी की मृत्यु वि .

स . 1672 में हुई .  भोजराज जी के  अधिकार में उदयपुर परगने के 45 गाँव जो उनकी जागीर में थे के अलावा

खंडेले परगने के 12 गाँव जो उन्हें भाई बंट में मिले थे उनके स्वामित्व में थे।

भोजराज जी के तीन पुत्र थे जेष्ठ पुत्र टोडरमल के अधिकार में उदयपुर का परगना यथावत बना रहा। ठाकुर

टोडरमल अपने समय के प्रसिद्ध दातार हुये है। उदयपुर (मेवाड़ ) के महाराणा जगत सिंह प्रथम ने टोडरमल की

दानवीरता की ख्याति सुनकर अपने दरबार के चारण कवि मोघडा गाँव के हरिदास सिंढायच को उसकी

दातव्यता  की परिक्षार्थ उदयपुर ( आज की उदयपुरवाटी ) भेजा। इनकी असाधारण उदारता व दातव्यता से

प्रभावित हरिदास ने निम्न दोहा स्रजित कर उन के नाम को इतिहास में अमर बना दिया :-

दोय उदयपुर उजला , दो ही दातार अव्वल !

एकज राणो जगत सिंह , दूजो टोडरमल !!

टोडरमल जी के छह पुत्रो में पुरषोतम सिंघजी जेष्ठ पुत्र थे। इनके वंशज झाझड में है। भीम सिंघजी के वंशज

मंडावरा, धमोरा , गोठडा और हरडिया में है।स्याम सिंघजी के अधिकार में डीडवाना के पास शाहपुर 12 गाँवो से

था, इनके वीर पुत्र सुजाण सिंह खंडेला के दवेमंदिर की रक्षार्थ लड़ते हुए वीरगती प्राप्त हुये। तत्पश्चात राव

जगतसिंह कासली ने शाहपुरा श्याम सिंह से छीन लिया।पैतृक गाँव छापोली भी इनके पास नही रहा, इनके

वंशज मेही मिठाई में हैं।हिम्मत सिंघजी के वंशजो के पास उदयपुर था किन्तु यह भी झुंझार सिंह के पुत्रो ने

छीन लिए।इनके वंशज आज कल कारी ,इखात्यरपुरा,पबना आदि गाँवो में है। झुंझार सिंह के पुत्र जगराम सिंह

के पुत्र शार्दुल सिंह ने 1787 वि . स . में क्यामखानी नवाब से झुंझुनू पर कब्ज़ा कर लिया। शार्दुल सिंह जी के

पुत्रो ने इसे पांच पानो में  बाँट लिया जिसे पंचपना कहते है । इनके मुख्य ठिकाने नवलगढ़ ,बिसाऊ,

खेतड़ी,मंडवा , डूनलोद,अलसीसर .मलसीसर आदि है।

पुरषोतम सिंघजी को  टोडरमल जी के जीवन कल में उन के छोटे भाई ने जहर दे दिया जिस से युवावस्था में

ही इनकी मृत्यु हो गयी। इनके दो संतान थी, सुरूपदे कुंवर बाईसा की शादी रतलाम महाराज कुमार से हुई।

प्रथ्वी सिंघजी ने  अपनी नाबलगी में ही  झाझड में गढ़ी बना कर रहना शुरू किया। विक्रमी सम्वत 1754 की

आश्विनी शुक्ल 13 को  हरिपुरा के युद्ध में बादशाही सेना से रक्त रंजित युद्ध करते हुये  वीर गति को प्राप्त

हुये।

ह्य उपाड़ किधो हलो , भलो हरिपुर जंग।
खागाँ खलां तिल तिल खिरियो , रंग हो पीथल रंग।।

तैं खागां साणी रगत, जुड़ मुगलाणी जंग।
झाझड जस आणी जगत , रंग भोजाणी रंग।।

धरा खंड पुर हेत खागां चंडी नाचय के।
हरिपुर रै खेत , पीथल पोढ़या भोजहर।।

हाडोती आडो बलो , दिल्ली आडा कोट।
झाझड आडो भोजहर , चढ़े नगारे चोट।।

घणी गुडातो गोड ,दादा टोडरमाल री ।
कूरम दान किरोड़ , देतो हाथी दानसी।।

झाझड में यह हमारी पृथ्वी सिंघजी से 9 वी पीढ़ी है।

                            ठाकुर -पृथ्वी सिंघजी
                                         !
फतह सिंघजी -करण सिंघजी -सभासिंघजी  - पदम सिंघजी   
                                                    !
                                           मालूम सिंघजी
                                                     !
   स्वरुप सिंघजी (बाबाजी )  -   चांद सिंघजी
                                                       !
शम्भू सिंघजी -खमाण सिंघजी - लाल सिंघजी
                                                         !
लिछमण सिंघजी -गोपाल सिंघजी -किशन सिंघजी-सुलतान सिंघजी
             !
  गाहड सिंघजी ( 1875 ई .-1950 ई .सन )
             !
   सुरजन सिंघजी (    दिसम्बर '1910  -  मई '1999 )
              !
रघुवीर सिंघजी -राम सिंघजी - मदन सिंह -संग्राम सिंह
                                                     !
                             सरोज -हेमा -गिरिराज -पृथ्वीराज



       आमेर ( आज का जयपुर) राज्य के छोटे राजकुमार  राव बालोजी को बरवाडा की जागीर 12 गाँवो से दी।
उनके पुत्र राव मोकल अमरसर में रहने लगे। उनके पुत्र राव शेखा ने अपने बाहुबल से आस पास के  360 गाँव   जीत कर एक विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया व अपने पैत्रिक राज्य आमेर के बराबर हसियत बनाली।
सभी शेखावत इन्ही महाराव शेखा के वंशज हैं।उपर वर्णित राजा रायसल इनके प्रपोत्र थे। जागीर समाप्ति सन
1955 ई .स .तक पूरा शेखावाटी प्रदेश इनके वंशजों के अधिकार में था। कर्नल जेम्स टाड ने अपने राजस्थान के इतिहास में इस भूभाग का क्षेत्रफल 5000 वर्गमील माना  है।
                                                   
                                                  राव शेखा
                                                          !
                                                  राव रायमल
                                                            !
                                                   राव सूजा
                                                           !
                                                  राजा रायसल  ( खंडेला )
                                                           !
                                                    ठाकुर भोजराज  ( उदयपुर )
                                                           !
                                                    ठाकुर टोडरमल
                                                            !
                                                    कुंवर पुरषोतम सिंह
                                                                 !
                                                   ठाकुर पृथ्वी सिंह  ( झाझड )
                                                              !
                                                    ठाकुर   सभा सिंह
                                                               !
                                                    ठाकुर मालुम सिंह
                                                                !
                                                     ठाकुर चाँद सिंह
                                                                !
                                                     ठाकुर लाल सिंह
                                                                !
                                                      ठाकुर लक्षमन सिंह
                                                                  !
                                                      ठाकुर गाहड सिंह
                                                                    !
                                                     ठाकुर सुरजन सिंह
                                                                   !
                                                          मदन सिंह





                               

Tuesday, October 30, 2012

हंस व सरोवर


भमतै भमतै हंसडै , दीठा बहु निध नीर !
पण इक धडी न बिसरे , मानसरोवर तीर।।

भावार्थ; घूमते घूमते हंस ने बहुत तालाब देखे ,किन्तु एक घडी के लिए भी मानसरोवर के तट को वह भूल
नही सका।

हँसा सरवर न तजो , जे जल थोडा होय।
डाबर डाबर डोलता , भला न कहसी कोय।।

भावार्थ ;अगर सरोवर में जल थोडा भी हो गया तोभी  हे हंसो सरोवर को मत  छोड़ो क्यों की छोटे छोटे तालाबों
में फिरते तुम भले नही लगोगे।

सरवर केम उतावालो , लामीं छोल न  लेय।
आयां छा उड़ ज्याव स्यां , पांख संवारण देय।।

भावार्थ;  हे सरोवर तूं उतावला क्यों हो रहा है,यह लम्बी लम्बी झोल क्यों मार रहा है,आये हैं फिर उड़ जायेंगे,
             थोड़ी सी पंखों को विश्राम करने दे।
                 
जावो तो बरजूं नही, रैवो तो आ ठोड।
हंसा न सरवर घणा, सरवर हंस  किरोड़।।

भावार्थ;  अगर आप को जाना है तो मेरी तरफ से कोई रुकावट नही,और रहना है तो यह जगह है। अगर हंसों के
            लिए सरवर की कमी नही तो सरोवर के लिए भी करोडो हंस है।

और घणा ही आवसी , चिड़ी कमेडी काग।
हंसा फिर न आवसी,सुण सरवर निरभाग।।

भावार्थ; हे निरभागी सरोवर तुम्हारे पास चिड़ी कामेडी व काग जैसे बहुत से आयेंगे लेकिन हंस फिर नही आयेंगे।

सरवर हंस मनायले , नेडा थकां बहोड़।
जासूं लागे फूटरो, वां सूं तांण म तोड़।। 

भावार्थ; हे सरोवर हंसों को मनाले, अभी कोई देर नही हुई है। जिनसे सुंदर लगते हो उनसे सम्बन्ध नही तोड़ने
            चाहिए।

Wednesday, October 3, 2012

Welcome

Welcome

शेखावाटी का प्राचीन इतिहास

                                   

                                   शेखावाटी का प्राचीन इतिहास    

आमेर (जयपुर ) के शासक कछवाहा राजवंश से प्रादुर्भूत शेखावत क्षत्रियों ने अपने मूल स्थान 

अमरसर से उठ कर विगत तीन सौ वर्षों के लम्बे समय (स .1500-1800 विक्रमी ) से शनैः 

शनैः उन समस्त प्रान्तों को ,उन के तत्कालीन शासकों से जीत कर अपने अधिकार में किया 

और तभी से यह अनेक परगनों वाला विशाल भूभाग शेखावाटी नाम से प्रसिद्ध हुआ।

           किन्तु इस से पहले यह भूभाग किस नाम से जाना जाता था, इस पर किन राजवंशो ने 

शासन किया, इस पर सबसे पहले ठाकुर सुरजन सिंघजी झाझड की पुस्तक "शेखावाटी का 

प्राचीन इतिहास" नामक पुस्तक से प्रकाश पड़ता है। इस पुस्तक का नम्र निवेदन स्वयम 

ठा . सुरजन सिंह जी व भूमिका डॉ . उदयवीर जी शर्मा द्वारा लिखित यहाँ ज्यों कि त्यों उध्रत 

है, 

                                                          नम्र निवेदन

राजस्थान का मरुभूमि वाला  पुर्वोतरी एवम पश्चिमोतरी विशाल भूभाग वैदिक सभ्यता के 

उदय का उषा काल माना जाता है। हजारों वर्ष पूर्व भूगर्भ में विलुप्त वैदिक नदी सरस्वती यहीं 

पर प्रवाह मान थी, जिसके पावन तटों पर   तपस्यालीन आर्य ऋषियों ने वेदों के सूक्तों की 

सरंचना की थी।सिधुघाटी सभ्यता के  अवशेषों एवं विभिन्न संस्कृतियों के परस्पर मिलन 

,विकास उत्थान और पतन की रोचक एवं रोमंचक गौरव गाथाओं को अपने विशाल अंचल में छिपाए यह मरुभूमि 


Sunday, September 30, 2012

राठोड़ दुर्गादास

         

                           राठोड़ दुर्गादास 


                                      माई एह्ड़ा पूत जण , जेहडा दुर्गादास !
                                      मार मंडासो थामियो , बिण खम्बे आकास !!

दुर्गादास राठोड़ अपने ज़माने के असाधारण योद्धा , नितिज्ञ व प्रतिभावान व्यक्ति थे।इनका 

जन्म 13 अगस्त ,1638 ई . आसकरण जी की तीसरी पत्नी के गर्भ से सालवा में हुआ। इनका माँ 

जयमल केलणोत भाटी की पोती थी ,जिसकी वीरता के किस्से प्रसिद्ध थे और इसी से प्रभावित हो कर

आसकरण जी ने इस भटियानी से विवाह किया था।किन्तु भटियानी जी के  उग्र स्वभाव की वजह से ज्यादा

 दिन निभ नही पाई। सो पारिवारिक तनाव को कम करने के लिये आसकरण जी ने  माँ बेटो के रहने की 

व्यवस्था सालवा से 2कोस की दूरी पर लूँणवां गाव में कर  दी। यही दुर्गादास जी का बचपन बीता और इसी 

गाँव में इन्हें शिक्षा भी मिली।आजीविका के लिए जो  थोड़ी बहुत  फसल होती थी उसी पर निर्भर थे।

आयु में बहुत छोटे होते हुए भी दुर्गादास जी अपनी माँ की तरह बहुत साहसी व इरादों के पक्के थे। 

आसकरणजी ने अपने दो बड़े पुत्रों के लिए जोधपुर राज्य  में नोकरी की व्यवस्था करदी , लेकिन दुर्गादास जी 

बिलकुल उपेक्षित ही रहे।किशोरावस्था को पार कर जाने के बाद भी वह अपने उसी गाँव में अज्ञात जीवन 

बिता रहे  थे।

       परन्तु संयोगवश सन 1655 ई . के लगभग एक घटना ने अचानक दुर्गादास राठोड के जीवन और भाग्य 

को बिलकुल ही बदल दिया। अपने गाँव में ही इन्होने जोधपुर राज के रबारी की हत्या ऊँटो  को चराने के मामले

को ले कर कर दी।जब महाराजा जसवन्त सिंह जी को मालूम पड़ा की यह हत्या आसकरण जी के पुत्र ने की है

तो महाराजा ने उन से स्पष्टीकरण मांगा। आसकरण जी ने उस गाँव में अपने पुत्र के होने से इनकार कर

दिया, परिणामस्वरूप दुर्गादास जी को महाराज के सामने  हाजिर होने का आदेश हुआ।  महाराजा के सामने

दुर्गादासजी ने अपना अपराध तो स्विकार कर लिया पर साथ ही इस को उचित ठहराते हुए  कहा की रबारी

की लापरवाही की वजह से ऊंट किसानो की खड़ी फसल को रूंद रहे थे ,और जब ऊँटो को बाहर निकाल ने के

लिए कहा गया तो उस ने बदतमीजी की और यहाँ तक की उस ने जोधपुर दुर्ग को भी बिना छत का सफेद खंडर

कहा जो असहनीय था। महाराजा जसवंत सिंह जी उन की निर्भीकता  व जोधपुर के प्रति निष्ठां से काफी

प्रभावित हुए व दुर्गादास जी को अपने पास रखलिया। इन्होने महाराजा का इतना विस्वास जीत लीया की

प्रत्यक अभियान में ये उन के रहने लगे।

इस घटना के करीब 2 वर्ष उपरांत बादसाह शांहजहां बीमार पड गया ,पुरे सम्राज्य में भांति भांति की अफवाहें

फैल ने लगी। दारा द्वारा सूचनाओं पर पाबंदी लगा देने से पूरे साम्राज्य में भ्रान्ति व अफवा फलने लगी। मुग़ल

साम्राज्य के सिंहासन के उतराधिकारी पद के लिए बड़े पैमाने पर युद्ध की तैयारियां होने लगी। बंगाल में शुजा

ने और गुजरात में मुराद ने स्वयम को सम्राट घोषित कर दिया।उधर दक्षिण में ओरंगजेब सारी स्थिति पर

नजर  रखे हुए प्रतीक्षा करता रहा।

इधर शाहजहाँ पूरी तरह स्वस्थ हो  चूका था। उसने अपने हाथ से तीनो शाजदाओं को पत्र लिखा,पर तीनो का

संदेह दूर नही हुआ।ओरंगजेब  दक्षिण से रवाना हो कर धरमत पंहुच गया ,इस की मुराद से सांठ गांठ हो गयी

दोनों की संयुक्त सेना 15 अप्रेल'1658 ई .को  उज्जैन से करीब 10 कोस दूर  धरमत पंहुच गयी जहाँ शाही सेना

  जसवंत सिंहजी के नेतृत्व में आगरा का रास्ता रोके हुए थी।   इस सेना में आसकरण जी व दुर्गादास दोनों थे।

16 अप्रेल'1658 ई . की प्रातः ही युद्ध शुरू हो गया ,ओरंगजेब के तोपखाने की भयंकर गोलाबारी से अग्रिम

पंक्ति में  जहाँ ज्यादा तर राजपूत थे भयंकर रक्तपात हुआ। यधपि इस शुरू की लड़ाई में शाही सेना की

विजय हुई किन्तु इस में राजपूत सरदारों में से अधिकांश अपनी शूरवीरता और पराक्रम के जोहर  दिखाते हुए

मारे  गये। कासिमखां के अधीन मुग़ल सेना ने राजपूतो की कोई सहायता नही की।आगे चलकर जब जसवंत

सिंह की सेना के कुछ  सेनानायक दूसरी तरफ मिलने लगे तो कुछ राजपूत सेनानायक भी मैदान छोड़ कर

चले गये। मराठा सेनानायक भी भाग खड़े हुए।

जसवंत सिंह अपने राठोड़ वीरों के साथ युद्ध में डटे रहे। आसकरण व दुर्गादास ने राठोड सेना की बागडोर

संभाल ली व जसवंत सिंह की तरफ केन्द्रित होती शत्रु सेना का डट कर प्रतिरोध किया दुर्गादास  असीम

बहादुरी का प्रदर्शन करते हुए घायल हो कर युद्ध भूमि में गिर  पड़े। कुम्भकर्ण सांदू  जो समकालीन कवि

है ने "रतनरासो " में लिखा  है "दुर्गादास राठोड ने एक के बाद एक चार  घोडों  की सवारी की और जब चारों

एक एक कर  के मारे गये तो अंत में वह पांच वे घोड़े पर सवार हुआ ,लेकिन यह पांचवा घोडा भी मारा गया।

तब तक न केवल उसके सारे हथियार टूट चुके थे बल्कि उसका शरीर भी बुरी तरह से घायल हो चुका था।

अंतत:वह भी रणभूमि में गिर पड़ा।एसा लगता था जैसे एक और भीष्म शरसैया पर लेटा है।जसवंत सिंह के

आदेश से दुर्गादास को युद्ध भूमि से हटा लिया गया और जोधपुर भेज दिया। "

अत्यंत वीरता एवं कोशल से लड़ते हुए स्वयम जसवंत सिंह को भी  दो गहरे  घाव लगे। तब उन्होंने युद्ध में

 खेत रहने की ठान ली।परन्तु दोपहर तक , जबकि विजय असम्भव दिखने लगी, आसकरण करनोत व दूसरे

राठोड सेना प्रमुखों ने महाराजा के घोड़े की लगाम पकडली और उसे युद्ध छेत्र से बाहर खींच ले गये।रतन सिंह

राठोड़ ने शेष सेना की बागडोर संभाल ली और अंतिम चरण के युद्ध में लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ।

                   इस समय से लेकर जसवंत सिंह जी के स्वर्गवास तक दुर्गादास  उनके प्रमुख सामन्तो में रहे।

जसवंत सिंह जी की मृत्यु 52 वर्ष की अवस्था में  जमरूद के थाने पर 28 नवम्बर '1678 ई . को हो गयी और

यहीं से दुर्गादास के जीवन का नया और महत्वपूर्ण अध्याय शुरू होता है। महाराजा जसवंत सिंह की मृत्यु के

समय उनका कोई भी पुत्र जीवित नही था। दो रानियाँ गर्भवती थी व पेशावर में उनके साथ  थी। इन

परिस्थितियों में  ओरंगजेब ने जोधपुर को खालसा कर लिया, इधर नागौर के राव इन्द्रसिंह ने जोधपुर पर

अपनी दावेदारी प्रस्तुत की क्यों की यह अमर सिंह का पोत्र था जो कि जसवंत सिंह के जेष्ठ भ्राता थे।

19 फरवरी 1679 ई .को दोनो रानियों के एक एक पुत्र पैदा हुआ , बड़े का नाम अजीतसिंह व छोटे का दलथ्म्भन

रखा गया। यह खबर ओरंगजेब को 27 फरवरी 1679 ई .को अजमेर में मिली जहाँ वह कैम्प किये हुआ था।

उसके मुंह से बरबस निकलपड़ा- "   आदमी कुछ सोचता है खुदा ठीक उसके उल्टा करता है।"

             लाहोर से दोनों महारानियों और राजकुमारों के साथ मारवाड़ का दल दिल्ली के लिए 28 फरवरी को

रवाना  हुआ। इस दल की रक्षा के लिए पेशावर से ही जो सरदार साथ थे उनमे दुर्गादास राठोड़ विशेष प्रतिष्टित

व्यक्ति थे। अप्रेल में यह दल दिल्ली पंहुचा और जोधपुर हवेली में रुका। जोधपुर से भी पंचोली केशरी सिंह ,

भाटी रघुनाथ ,राठोड रूप सिंह उदावत और अन्य कई सरदार दिल्ली पहुंच गये।मई माह में इंद्र सिंह को

जोधपुर का राजा बना दिया और उस के साथ ही महारानियो व राजकुमारों को हवेली खाली कर किशनगढ़ की

हवेली में स्थानांतरिक किया गया।  महारानियों व उनके पुत्रों के प्राणों के संकट को देखते हुए राठोड

रणछोड़दास ,भाटी रघुनाथ ,राठोड रूप सिंह ,दुर्गादास राठोड आदि  मारवाड़  के सरदारों ने राजकुमारों को

 चुपके से दिल्ली से निकाल लेने की योजना बनाई।

                            बलुन्दा के राठोड मोहकम सिंह , खिची मुकंददास तथा मारवाड़ के कुछ अन्य सरदारों ने

बादशाह से मारवाड़ जाने की अनुमति मांगी तो ओरंगजेब को कुछ राहत मिली ,  मोहकम सिंह  व उनका

परिवार  पेशावर से साथ आया था। मोहकम सिंह के एक बच्चे को दोनों राजकुमारों से बदल दिया।इस प्रकार

बड़े कड़े पहरे के बीच दोनों राजकुमारों को दिल्ली से सकुशल बाहर निकाल दिया। दिल्ली में 140 सरदार ,725

घुड़सवार व 150 अन्य कर्मचारी रह गये।

                         इस बात से अनभिग्य  ओरंगजेब ने अपना शिकंजा कसना शुरू किया, और आदेश दिया की

राजकुमारों  को शाही हरम में रख कर शिक्षा दी जाएगी। राठोड़ो ने इसका विरोध किया, ओरंगजेब इस से

भड़क उठा। उसने कोतवाल फोलादखान को आदेश दिया की वे जसवंत सिंह की दोनों महारानियों व

राजकुमारों को रूपसिंह राठोड की हवेली उठाकर नूरगढ़ ले जायें ,राठोड अगर विरोध करे तो उन्हें उचित दंड

दिया जावे। 16 जुलाई 1679 ई . को रूपसिंह की हवेली को एक बड़ी फोज के साथ घेर लिया गया।मृत्यु प्रेमी

राजपूतों को समझाने का काफी प्रयास किया गया, लेकिन सफलता नही मिली। अब मुख्य उदेश्य यही था

कि दोनों महारानियो को दिल्ली से सुरक्षित निकल ले जाये व प्रतिरोध करते हुए अधिक से अधिक मारवाड़ के

सरदारों व घुड़सवारों को बचाया जाये। सझने बुझाने से कोई बात नही बनी और लड़ाई शुरू हो गई। प्रसिद्ध

इतिहासकार यदुनाथ सरकार लिखते है -" जब दोनों और से गोलिया चल रही थी तब जोधपुर के एक भाटी

सरदार रघुनाथ ने एक सो वफादार सैनकों के साथ हवेली के एक तरफ से धावा बोला।चेहरों पर मृत्यु की सी

गंभीरता और हाथों में भाले  लिये वीर राठोड शत्रु पर टूट पड़े।" उनके भयानक आक्रमण से शाही सैनिक

घबरा उठे। क्षणिक हडबडाहट का लाभ उठा कर दुर्गादास  और वफादार घुड़सवारों का दल पुरष वेशी दोनों

महारानियो के साथ निकल कर मारवाड़ की और बढ़ने लगे। " डेढ़ घंटे तक रघुनाथ  भाटी दिल्ली की गलियों

को रक्त रंजित करता रहा और अंत में अपने 70 वीरों के साथ मारा गया।"  अब शाही सैनिको का दल दुर्गादास

के पीछे लगा जो अब तक  करीब 4-5 कोस  की दूरी तय  कर  चुके थे। जब शाही सैनिक दल नजदीक आने

लगा तो अब उन को रोकने की जिम्मेदारी  रणछोड दास जोधा की थी। उसने कुछ सैनिको के साथ  शाही

घुड़सवारों को रोक कर रानियों को बचाने  के लिए बहुमूल्य समय अर्जित किया। जब उन का विरोध शांत हो

गया तब मुग़ल सवार उनकी लाशों को रोंद कर बचे हुए दल के पीछे भागे।

                    अब दुर्गादास व उनका छोटा सा दल वापस मुडकर पीछा करने वालों का सामना करने के लिए

विवश हो गये।वहां भयानक युद्ध हुआ और मुग़ल सैनिकों को कुछ देर के लिए रोका गया,  किन्तु स्थिति काबू

से बहार हो चुकी थी। दिल्ली स्थित हवेली से बाहर निकलते समय दोनो महारानियों को भी युद्ध करना पड़ा

था और वे जख्मी हो चुकी थी।पांचला के चन्द्रभान जोधा जिस पर महारानियों का दायत्व था , के सामने अब

कोई विकल्प नही रहा और उसने दोनों के सर काट दिए। उसने भी भयंकर युद्ध करते हुए मातृभूमि के लिए

प्राण निछावर कर दिए।

             शाम हो चुकी थी। मुग़ल सैनिक तीन  भयानक मुठभेड़ो से थक कर पीछे लोट गये व घायल दुर्गादास

व बचे हुए 7 सैनिको का पिच्छा  नही किया। दुर्गादास ने महारानियो की पार्थिव देह को यमुना में प्रवाहित

कर दिया।

         इंद्र सिंह को राजा बना देने से राठोड़ो में रोष फैल गया। 23 जुलाई '1679 ई . को जब अजीत सिंह को

लेकर राठोड  दुर्गादास , मुकन्द दास  खिची आदि मारवाड़ पहुंच गये,इस खबर से विरोध और बढ़ा। उस समय

दुर्गादास जो सालवा में स्वास्थ्य लाभ कर रहा था स्वाभाविक रूप से राठोड सैन्य शक्तियों का केंद्र तथा

मार्गदर्शक बन गया।

27 वर्ष के सतत संघर्ष के उपरांत 18 मार्च 1707 ई . का अजित सिंह का कब्ज़ा जोधपुर पर हो गया और इस

प्रकार  अनवरत प्रयत्न के बाद दुर्गादास राठोड की जीवन साधना सफल हुई। मारवाड़ पराये शासन से मुक्त

हो एक बार फिर अपने शासकों के आधीन आ गया।परन्तु सफलता की इस घड़ी में भी दुर्गादास राठोड

अजीतसिंह के अस्थिर स्वभाव और उसके अंदर पैठी प्रतिरोध की गहरी दुर्भावना से पूरी तरह परिचित था।

अत: अजीत  सिंह से दूरी बनाये रखना ही उसने उचीत  समझा।  अजीत सिंह ने इन्हें महामंत्री पद सम्भालने

व प्रशासन को अपने हाथ में लेने का आग्रह किया जिसे स्वीकार ने में दुर्गादास ने असमर्थता प्रगट करदी ,

अत :17 अप्रेल '1707 को इन्हें  की अनुमति मिल गई। यहाँ से दुर्गादास परिजनों सहित अपने जागीर के गाँव

सादड़ी चले गये, जो मेवाड़ के आधीन था।       









Sunday, September 16, 2012

हरि जेम हलाड़ो तिम हालीजै

यह डिंगल गीत पृथ्वीराज जी राठोड  बीकानेर  का है।  ये राव कल्याणमल के छोटे पुत्र थे , महाराजा रायसिंह के छोटे भाई , सम्राट अकबर के प्रमुख सेनापति ,दानवीर व डिंगल के प्रसिद्ध कवि। इनकी प्रसिद्ध कृति 'वेळी क्रिसणरुक्मणी री ' राजस्थानी साहित्य की अत्यंत देदीप्यमान व श्रेष्ठ कृति है। महाराणा प्रताप को जो दोहे इन्होने लिख भेजे वो राजस्थान में बहुत प्रसिद्ध है। नीचे लिखा गीत बड़ा ही भाव पूर्ण है। इश्वर  के प्रति गहरी 
निष्ठा का द्योतक है।


                                                      गीत 
हरी ,जेम हलाड़ी तिम हालिजे ,
                कांइ धणिया सूं  जोर क्रिपाल !
महली दिवो ,दिवो छत्र माथै ,
               देवो  सो  लेऊं  स  दयाल   !! 1 !!

भावार्थ: हरी जैसा रखेगा वसे रहना पड़ेगा , हे ! कृपालु मालिक से क्या  जोर।
           पत्नी दी,शीस पर छत्र दिया ,हे! दयालु जो दोगे व सिर माथे।

रीस  करो भांवै रलियावत ,
              गज भांवै  खर चाढ गुलाम  !
माहरै सदा ताहरी माहव ,
             रजा सजा सिर ऊपरि राम  !!2!!

भावर्थ: आप  क्रोध करो चाहे  राजी रखो , हाथी पर चढावो चाहे गधे पर।
           मेरे तो आप की ही महर है, हे !राम  आपकी रजा और सजा सिर माथे।

मूझ  उमेद  बड़ी  महमण ,
          सिन्धुर  पाखे  केम   सरै  !
चितारो  खर  सीस  चित्र  दै ,
            किसूं  पुतलिया पांण करै  !!3!!

तूं स्वामी प्रथिराज ताहरो,
           बळी बीजा को करै  विलाग !
रूड़ो जिको प्रताप रावलो,
             भून्ड़ो जिको अम्हीणो भाग !!4!1

भावार्थ: आप स्वामी हो प्रथ्विराज तो आप का ही है,दूसरी जगह क्या विलाग  करे।
           जो अच्छा है वह आप का प्रताप है,और जो भूंडा है वह मेरा भाग्य है।

                                 गंगाजी (दोहे)

काया लाग्यो काट,  सिकलीगर सुधरै नही !
निरमल होय निराट , तों भेट्यां भागीरथी  !!

भावार्थ: हे!भागीरथी काया पर लगा काट किसी भी सिकलीगर से नही सुधर सकता।
           यह तो निराट निरमल आप में स्नान करने से ही होगा।
( हमारे बचपन के दिनों तक गाँवो में सिकलीगर आते थे , पीतल के बर्तनों में कलि करते थे।)


ताहरूउ अदभुत ताप , मात संसारे मानीयउ !
पाणी मुंहडइ पाप ,   जो तूं जाळइ जान्ह्वी  !!

भावार्थ :  हे माता तुम्हारे अदभुत प्रताप को सारा संसार मानता है, हे! जान्हवी तुम्हारा पानी
            मुंह में जाते ही सारे पाप जल जा ते है।


पुलियइ मग पुलिया , दरस हुवां अदरस हुवा !
जळ पईठा जळीया ,   मंदा क्रम मंदाकनी   !!

भावार्थ : झुण्ड के झुण्ड रास्ते चले जा रहे है।  रास्ते के दुःख दर्द दर्शन होने से ही अदृश्य हो गये।
            मंदाकनी के जल में घुसते ही जो मंदे कर्म है जल गये।

(दरस हुवां अदरस हुवा , मंदा कर्म मंदाकनी -  ) 




 



                 

Thursday, September 13, 2012

धणियां मर न दिधि धरा - धणियां सेती गई धरा

  एक वो मालिक थे जिनहोने मरते दम तक अपनी धरती पर किसी का कब्ज़ा नही होने दिया और एक ये धणी है जिनके जीते रहते धरती चली गई।

बाँकीदास आसीया का जन्म सन 1771 ई . में हुआ। यह अपने समय के ज़माने के डिंगल के  उदभट कवी थे।
राजस्थान के राजाओं ने 1750 ई . के  बाद के समय में मराठों व पिंडारियों के अत्याचारों से त्रस्त हो कर नव आगन्तुक अंग्रेजों से संधि करली। सर्वप्रथम 1798 ई . में जयपुर ने संधि की और उस के बाद तो 1817 ई . के आते आते तो सभी रियासते अंग्रेजों के आधीन हो गई। इस पराधीनता की स्थिति से कवी मन आहत हो उठा।
इस सन्दर्भ में उनका एक गीत है , जो इस प्रकार है :-

आयो इंगरेज मुलक रै ऊपर ,
            आहंस लीधा खैंची उरा   !
धणीया मर न दिधि धरा ,
          धणीया ऊभां गई  धरा  !!1!!

फोजा देख न किधि फोजा ,
          दोयण किया न खला डला  !
खवां खाँच चूडै खावंद रै , 
           उण  ही  चूडै  गई  ईल़ा   !! 2 !!

छत्रपतियां लागी  नह छाणत !
           गढ़पतिया  घर  पर  गुमी   !
बळ नह कियो बापडा बोतां ,
            जोतां  जोतां  गई  जमी  !! 3 !!

दुय चत्र मास  वादियों दिखणी ,
           भोम  गई  सो  लिखत  भवेस !
पूगो नही चाकरी पकड़ी  ,
          दीधो  नही  मरठो  देस  !! 4 !!

बाजियों भलो भरतपुर वालो ,
         गाजै  गजर  धजर  नभ  गोम !
पहिला सिर साहिब रो पडियो ,
          भड़  ऊभा  नह  दिधि  भोम  !! 5 !!

महि जातां चिंचाता महिलां ,
           ऐ  दोय  मरण तणा  अवसाण  !
राखो  रै किंहिक रजपूती ,
          मरद  हिन्दू  की  मुसलमाण  !! 6 !!

पुर जोधाण उदैपुर जैपुर ,
         पहू थारा खुटा  परियाण  !
आकै गई आवसी आंकै ,
         बांकै  आसल किया बखाण  !!7!!
      
   
   

Tuesday, September 11, 2012

अस लेगो अणदाग


  महाराणा प्रताप की म्रत्यु 15'जनवरी 1597 ई .की हुई। जब यह खबर अकबर को मिली तो वह उदास हो गया,  चारण कवी दुरसा आढ़ा ने उनकी म्रत्यु पर जो मरसिया कहा उस को सुनकर बादशाह  भावुक हो उठा।

गीत :- 
अस लेगो अण दाग, पाघ लेगो अण नामी !

गो आड़ा गवड़ाय , जिको बहतो धुर बामी  !!

नव रोजे नह गयो , नगो आतशां नवल्ली  !

न गो झरोखा हेठ , जेथ दुनियाण दहल्ली  !!

गहलोत राण जीती गयो, दसण मूँद रशना डसी !

नीशास मूक भरिया नयण , तो मृत शाह प्रतापसी !! 

भावार्थ :-
राणा ने अपने घोड़ो पर दाग नही लगने दिया (बादशाह की आधीनता स्वीकार करने वालो के घोड़ो को दागा जाता था।) उसकी पगड़ी किसी के सामने झुकी नही (अण नमी पाघ ) जो स्वाधीनता की गाड़ी की बाएँ धुरी को संभाले हुए था वो अपनी जीत के गीत गवा के चला गया।(गो आड़ा गवड़ाय ) (बहतो धुर बामी , यह मुहावरा है।
गीता में अर्जुन को कृष्ण कहते है की हे! अर्जुन तुम भारतों में वर्षभ हो यानि इस युद्ध की गाड़ी को खंच  ने का 
भार तुम्हारे पर ही है।)
तुम कभी नोरोजे के जलसे में नही गये , न बादशाह के डेरों में गए। (  आतशाँ -डेरे ) न बादशाह के झरोके के नीचे जहाँ दुनिया दहलती थी।(अकबर झरोके में बैठता था उस के नीचे राजा व नवाब आकर कोर्निश करते थे।)
हे! प्रतापसी तुम्हारी म्रत्यु पर बादशाह ने  आँखे बंद कर (दसण मूँद ) जबान को दांतों तले दबालिया ,ठंडी सांस 
ली , आँखों में पानी भर आया और कहा गहलोत राणा जीत गया .

  
 


     

Monday, August 6, 2012

राजदंड



                                          

Sunday, July 29, 2012

पत्र प्रकाश (पत्र संख्या -70 )




                                                                                             झाझड
                                                                                          04.02.1984


श्रीमान भाई साहब ठा .सौभाग्य सिंह जी ,
                                                सस्नेह जै गोपीनाथजी की।

बीकानेर से प्रेषित  आप  का कृपा पत्र मिला-एतदर्थ धन्यवाद. मरुभारती में शेखावाटी के युद्धों पर एक प्रमाणिक लेख लिखे जाने का आपका सुझाव सुंदर है। कुछ मानस बनने पर लेख लिखने का प्रयास
करूँगा . इतिहास के अनुसार जौहर व साके इतने स्थानों पर हुए हैं।

1. रणथन्भौर के किले पर चौहान हम्मीरदेव के समय में।
2. जालौर में सोनगरा चौहान कान्हडदेव के समय में।
3. सिवाणा में सोनगिरा चौहान सातल और सोम के समय में।
4. जैसलमेर के भाटियों ने भी उसी समय के लगभग जौहर व साको का आयोजन किया था।
शायद  उन्होंने दो बार ऐसा किया है।
5. गढ़ गागरुण के खिंची अचलदास ने मालवा के सुल्तान होसंगशाह गौरी  से   युद्ध किया तब भी राजपूताणियों ने  जौहर किया था।
6. बहादुरशाह गुजराती ने जब रायसेन मालवा के किले को घेरा तो सलह्दी तंवर की राणीयों ने जौहर
कीया था।
7. चंदेरी के किले पर बाबर के आक्रमण के समय पर मेदनिराय चौहान युद्ध करके मारा गया
तब किले में रहने वाली ओरतों ने जौहर किया।
8. चितौड  में तीन बार जौहर साकों का आयोजन हुआ -
  1.प्रथम रावल रत्न सिंह व अल्लाऊद्दीन के युद्ध के समय रानी पद्मिनी ने अन्य राजपुत बालाओं के
    साथ जौहर किया।
  2. बहादुरशाह गुजरती ने चित्तोड़ घेरा तो राणी कर्मेति हाड़ी ने राजपूतानियो के साथ जौहर किया।
  3. बादशाह अकबर ने 1624 वि. में चित्तोड़ घेरा तब राजपूतानियों ने जौहर किया।

तुर्क आक्रमणों से पूर्व हिन्दू राजा परस्पर युद्ध करते रहते थे किन्तु तब उनके अंत:पुर सुरक्षित समझे जाते
थे।तुर्कों के आक्रमण  के समयसे ही युद्ध विजय  से निराश होने पर राजपूत अपनी ओरतों को जलाकर युद्ध में
प्राण होम देते थे। जौहर साकों का यह क्रम महमूद गजनवी  (स.1080 वि. ) से अलाउदीन खिलजी
( वि.स.1370 ) तक खूब प्रचलित था। चितोड़ में उस समय के बाद भी दो जौहर साके हुए , फिर तो किलो में घिर कर युद्ध करने की प्रणाली को उपयोगी न समझ कर मेवाड़ के राजपूतों ने भी
पहाड़ो में छिपकर छापामार युदधों का आश्रय लिया था और यही कारण था की राणा प्रताप  और उन के पुत्र
अमर  सिंह ने अकबर जैसे शत्रु से वर्षों तक लोहा लिया था। खैर।
          जोधपुर,बीकानेर व आमेर के किलों पर कभी जौहर नही हुआ.जोधपुर के राठोड़ों ने बड़े बड़े भयंकर
युद्ध लड़े ,तोपों पर घोड़े उठाकर मरने में उन्होंने नाम कमाया किन्तु जौहर कहीं भी नही हुआ।कल्ला रायमलोत
सिवाणा में जूझ मरा किन्तु स्त्रियों को पहले ही निकाल दिया था। दिल्ली में महाराजा जसवंत सिंह के रणवास पर बादशाही पहरा बैठ जाने पर औरतों को काटकर राजपूतों ने प्रतिशोध किया था किन्तु वह जौहर नही कहा जा सकता।
             बीकानेर के राव मालदेव से लड़कर मारे  गये  थे किन्तु उन्होंने इस से पूर्व ही अपने अंत:पुर तथा पुत्रों
 को सिरसा भेज दिया था। भूकर का के ठाकुरसिंह  ने बीकानेर की रक्षार्थ युद्ध लड़ा था किन्तु उस के समय में जोहर होने का कोई सवाल नही था।
      भटनेर पर बीकानेर के भाई बंधु राठोड़ों के विरुद्ध तीन आक्रमण हुये थे। प्रथम खेतसी अरडकमलोत
कांधलोत पर कामरां की सेना का,दूसरा ठाकुरसी जैतसिंघोत के उपर बादशाह अकबर की सेना का
और तीसरा दलपत के उमराव जसवंत सोनगिरा पर बादशाही सेना का , तीनो ही बार राठोड़ों ने भयंकर
युद्ध कर प्राण होमे थे किन्तु जौहर नही किया।
         आमेर पर राजा राजदेव के समय सुलतान  नासुरूद्दीन ने आक्रमण किया और लूटा . राजा राजदेव
ने तदन्तर आमेर के चोतरफ परकोटा बनाकर सामरिक दृढ़ता प्रदान की . राजदेव के बाद उनके पुत्र किल्हन
देव बैठे, उनके पीछे पुत्र कुंतल देव सिंहासनारूढ़ हुये .कुंतल देव ने आमेर की गिरी पर कुंतलगढ़ का निर्माण करवाया .राजा कुंतल देव के शासन काल में ई.1327 में दिल्ली के सुल्तान मोहम्मद बिन
तुगलक ने आमेर पर ससैन्य चढाई की परन्तु वह आमेर की सुदृढ़ किले बंदी को ध्वस्त  नही कर  सका।
तब वह अजमेर की तरफ कूच कर गया, मार्ग में उसने कुंतल के पुत्र भड सिंह के संस्थान चाटसू पर धावा
मारा . भड़सी सुल्तान के सामने टिक न  सका और अपने साथियों के साथ सुल्तान की सेना से लड़कर काम
आया।उसकी पारिवारिक क्षत्रिय नारियों ने   जोहर कर  अपने प्राण विसर्जन किये . इसके अतिरिक्त आमेर के कछवाहों द्वारा साका अथवा जौहर करने का कभी अवसर नही आया।
शेखावतों ने अपने उत्थान काल  में युद्ध तो बहुतेरे लड़े हैं। किन्तु गढ़ में घिरकर ऐसा युद्ध नही लड़ा
जहाँ निराश होकर औरतों को जौहर करना पड़ा हो और उन्हें साका करना पड़ा हो। कोट सिकराय के
किले में हणवंत सिंह खंडेला लड़कर मारे  गये किन्तु  वहां औरतें नही थी। हरिपुरा का 1754 वि. का युद्ध मैदानी था।शेखावतों के फतेपुर ,खाटू ,माँढण,माँवडा,मंडोली आदि युद्ध भी मैदान में लड़े गये थे
और ज्यादातर छापामार तरीके   अपनाकर शेखावतों ने जीते थे।बिसाऊ पर तिन माह तक जयपुर राज्य
की सेना का घेरा रहा परन्तु वह युद्ध ऐसा था जहाँ जौहर का प्रश्न ही नही उठ सकता था।बिना विजय समझोते से किया
समाप्त किया गया।

शेष प्रसन्न ,कृपा पत्र दें।


                                                                                                                        आपका
                                                                                                                      सुरजन सिंह

    
      

Thursday, July 26, 2012

पत्र प्रकाश


इतिहास मनीषी ठाकुर सुरजन सिंघजी झाझड एवम साहित्यकार ठाकुर सौभाग्य सिंघजी भगतपुरा के पत्राचार का प्रकाशन " पत्र प्रकाश ' के नाम से हुआ है .इसमें दोनों विद्वानों के बीच 1960 ई. से
1999 ई. तक जो पत्राचार हुआ उसका क्रमबद्ध संकलन ,सम्पादन ,प्रकाशन हुआ है .जिसमे राजस्थान गुजरात मालवा पाकिस्तान के कुछ भाग कश्मीर के तथा खासकर शेखावाटी अंचल के इतिहास ,साहित्य संस्कृति एवम अन्यान्य प्रसंगों से सम्बन्धित सामग्री का सुव्यवस्थित समायोजन
तथा स्पष्टीकरण हो सका है। दोनों मूर्धन्य विद्वान है। दोनों का सम्बन्ध प्रगाढ़ है। दोनों अपने साहित्य,संसकृति,इतिहास के प्रति समर्पित है।उनके शोधपरक अध्ययन के कारण उनके विचार -विमर्श में गहरी विद्वता प्रकट होती है।यह ग्रन्थ शोधर्थियो को मार्ग दर्शन करेगा .अपने शोध क्षेत्र में आगे बढ़ने का आत्मबल प्रदान करेगा .सीमित साधन एवं विपरीत परिस्थितियों में उदेश्य के प्रति निष्ठा
से जूटे रहने का सामर्थ्य देगा।  इस में कुल 188 पत्र है।

राव शेखा पुस्तक के प्रथम संस्कर्ण की छपाई के सम्बन्ध में श्री सौभाग्य सिंघजी का एक पत्र 1973 ई .
का  संख्या न. 25 यहाँ उध्रत है।


                                                                                                                                    चोपासनी  
                                                                                                                                   24.8.1973
आदरणीय भाई साहेब सुर्जन सिंह जी ,

आप का कृपा पत्र कुछ दिनों पूर्व मिला था। इधर वर्षा  की अत्यधिकता के कारण उतर में विलम्ब
हुआ राव शेखाजी पुस्तक के 56 पृष्ट छप गये हैं।पिछले सप्ताह वर्षा के कारण प्रूफ लाने लेजाने
में कठिनाई उत्पन हो जाने के कारण मुद्रण रुक सा गया था। अब पुन: नियमित चल पड़ा है और
मैं आशा करता हूँ की दसहरा तक इस कार्य को सम्पन करवा दूं।
भूमिका के लिये भी छापे हुये फर्मो का अध्ययन तथा चिन्तन चल रहा है। आपने इस कार्य को
कितनी निष्ठां व लगन से किया है यह अब पता चलता है।फुटनोट से ज्ञात होता है की आपने समस्त
अप्राप्य सामग्री को अत्यंत ही विवेक से पढ़ तथा पचाकर अपनी बात संतुलित भाषा में व्यक्त की है।
मैं ह्रदय से और सत्यता से आपकी इस महती सेवा की सराहना करता हूँ बड़े बड़े लोग जो कार्य नही कर सके
वह सिमित साधनों के और अपने बल पर आप ने कर दिया .पुस्तक की मेरे सभी विद्वान मित्र प्रसंशा करते हैं।
अक्सर यदा कदा प्रेस में हम मिलते रहते है। तब वे लोग भी , मैं प्रूफ देखता हूँ और उन से चर्चा करता हूँ तो
सराहना करते हैं।
रंगीन चित्र का ब्लॉक और छपाई की व्यवस्था जयपुर ही कर  लानी पड़ेगी . रंगीन ब्लॉक की छपाई सबसे
अछी तो बम्बई में होती है लेकिन ऐसा तो अपनी सामर्थ्य नही है  . फिर जयपुर प्रिंटर्स जयपुर, अच्छा प्रेस
है, वंही छपवाना पड़ेगा। जोधपुर में रंगीन चित्रों की छपाई के लिए अच्छी व्यवस्था नही है।
और सब आनंद है। आप की प्रसन्नता का पत्र दें,पत्रोंत्तर में विलम्ब सकारण ही हो जाता है।
अत: अन्यथा न समझें।


                                                                                                                          आपका भाई
                                                                                                                 सौभाग्य सिंह शेखावत

Monday, July 23, 2012

ओ भारत रा खेतरपालो

ओ भारत रा खेतरपालो
होस संभालो -सींव रुखालो 
(सुमेरसिंघजी सरवडी )


राजघाट रा सूत कतारों
सत्य अहिंसा रा हलकारो !
सस्तर सोधो - बख्तर धारो
हर हर महादेव उच्चारो !
मोल चुकावण नै सुराज रो
माथा माँगे आज हिंवालो !

जाचक री झोली नै फेंको ,
सेल अणया सू बाटी सेको !
  खरी मजूरी रा पग टेको
छोड़ हजूरी रो ठग ठेकों !
नितर पिढ्या भूक मरैली
मस्तक-तिलक लगैलो काल़ो !

दुरसीसां रा घाव न लागे ,
हाका करया न बैरी भागे !
बळ बुध दोनूं ज्यांरै सागै
नमै जमानो वारे आगे !
प्राणा रा बागी बण जूझो
सिर आई विपदा नै टाल़ो !

वीर सिवा रा सूर सपूतो
राजस्थान तणा रजपूतो !
रण पथ रा जोगी अवधूतो ,
मात भोम रा सिंघ -प्रसूतो !
जठे-जठे पापी पग मेलै  
रगत -पनालां इल़ा पखालो !

भुज बळ रै जनमत नै टेरो
गौरव री गीता नै हेरो !
मरजादा रा भाव अटेरो
पुरसारथ रा कटक उछेरो !
कळजुगी रै दुसमी रावण री
उतराधि लंका नै बालो !

    

     

अधुना ओपरी (सेखावत सुमेरसिंह सरवडी )

मुरधर री मरवण ,
पूंगल री पदमण ,
अणखै जुग आखो ,
अपरोघे थारै
नटणी सै नवलै साँग  नै ,
घूँघट बिन सूनी माँग नै  !

माँडेची  मूमल ,
जेसाणी सूमल ,
कीकर तो कोई थने ओलखै -
सडकां पै फिरती ,
मछली सी तिरती -
अणचीतै अधुना भेस में ,
मारू देस में ?

मनडै री मनणा ,
रामू री चनणा ,
तितली बण बैठी ,
बँगलां रै जँगलां आज तूं !
बातां री बीणत ,
ख्यातां री कीरत ,
अब कियाँ पिछाणे
फुटरापो थारो पाछलो ,
सुंदर सांचलो !            

सुगणी घण साभळ
खीवै री आभळ ,
बदल्यो जुग , बदळी लार तूं !
नगरां री नारी ,
अबल़ा सिणगारी ,
कद कठे कटाई
या वेणी वासग नाग सी ,
कजळी बाग सी ?

महिला मरदानी ,
बूची बचकानी ,
फुटपाथां हाँडै गूंगी बावळी ,
गोरी सांवली  ?

गज गामण गजबण ,
लजवंती लजवण ,
सुवटै री मैना ,
बीरा री बै'ना ,
कवियां न लागे अधुना ओपरी ,
सोनल ,छोकरी !               
     




Sunday, July 22, 2012

बैरण बादळी (सेखावत सुमेर सिंघजी सरवडी )


धोराँ री धायड़,
काळजिये री कोर ,
मे'वै री मायड़ ,
तरसै मिरगा मोर ,
बिन बरसी मत जावै  बैरण बादळी !

बिरखा रुत आई ,
लाग्यो अबै अषाढ़ ,
कंठा कुमलाई
मरुधरिये रि माँढ़,
हाल निजर नीं आवै बैरण बादळी !

अंबर गरणावै -
हाकै री हुँकार ,
दमके दामणिया-
खांडै हंदी धार ,
सावण मास , बीरावै बैरण बादळी !   

मकड़ी रै जालै
आभो लोरां लोर ,
मेघा मंड़रावै
जाणे सूना ढोर ,
भादूडै भरमावे, बैरण बादळी !

मोतीडा निपजै
बरसा इंदर, छांट !
तावडियो तांणी
करमां  केरी गांठ ,
आसोजां अळसावै बैरण बादळी1


(राजस्थान के लिए मेह  व बादल़ी का महत्व जितना है वह समझना बाकि हिंदुस्तान के लिए असंभव है .मेघदूत कालिदास ने मध्य भारत में रह कर लिखी किन्तु राजस्थान के कवियों ने जो मेघमाल लिखी वो धोरों की धरती का मार्मिक काव्य है. चन्दर सिंघजी विरकाली ने लिखी या सुमेरसिंह जी ने इस में धरती की सोरभ है।  

      

   

Monday, July 16, 2012

मरू-मंगल

सेखावत सुमेर सिंघजी सरवडी की मरु मंगल 1982 ई. में प्रकाशित हुई , यह राजस्थानी काव्य संग्रह है.कविताये बहुत ही सटीक व भावपूर्ण है राजस्थानी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान श्री रावत जी सारस्वत ने इस की भूमिका लिखी है राजस्थानी में लिखी यह भूमिका भी बहुत ऊच्च कोटि की है।

                                                         आमुख
सत खंडे महल रै झरोखे, झीणे रेसमी पड़दै ओ'लै , सात  सहेल्यां रै झुमके बैठी कोई मुग्धा अकन कंवार ,
ज्यों सैंपूर रजवाडी लवाजमै रै बिचुंबीच हाथी रै होदै मुळकतै राजकंवर नै भर नैण निरखै , कै हिंगलू  बरणी ढोळणी पर अळसाक   मरोड़तै, भंवरपटां रै किणी  लांझे छैल री सीबी , ज्यूँ ओलूं -दोलुं हाजरी में ऊभी पदमणिया रा रांग रंगीला बेसां में लिपटी थाकि सीसमहल रा सैंस सैंस काचां मैं पळका मारै,  कै रंगमहल री रोसां मैं मांड्या भांत भंतिला चितराम ,ज्यूँ  ऊमाया नैणा नै निरखण रा हेला मारे -
क्यूँ इसी सी बणगट,इसो ही फूटरापो लखावै सुमेरजी रा छन्दा मै ,जठै नुवै जुनै मुरधर रा जीवता जागता रूप
परतख होता दिखे .

ओ समुचो काव्य  भोपा री फडा में उकेरया गाढ़े रंगा रा चितरामां ज्यूँ  दरसावै ,अर आँ छन्दा रा मुधरा -ओपता बोल भोप्यां रा तीखा सुरां सा गिगनारा चढ़'रै चोफेर गूंजता सा लखावै .झरने री झरण ज्यूँ  खळखलता, कोयल रै इकलैंग साद ज्यों कालजे में कसकता , सावण री साँझ में रूंखां री टूं'कळया सूँ मोर टहूका रों सो मधरास ढोळता अ छंद ठेठ देसी ठाठ में मरुधर री महमा रो बखाण करै .

बरसांपहलां 'मेघमाळ मै आँ री छंदारी  गुंथावट ,सबदा रो बँधेज,बखाणरी कारीगरी ,अर काळी कांठळ  बण
 उमड़ता घुमड़ता भावाँ रा बरसालू बादल़ा  आज रै राजस्थानी साहित मैं आप री एक निरावली छाप छोड़ी ही .
        घणी उडीक रै पछे मुरधर रो सांगोपांग सरूप ;धोरा ,मगरा,डूंगरां अर आखी जियाजूण री बणराय -सूधो मिनखाचारो ,जूनी ख्यातां रा  सैनाण ,नूँवै निरमाण रा सांपरत होता सुपना ,इण सगला चौफेरै ने
समेटता थकां घणमोला रतन जडाव रा आभुसणा री ज्यूँ छंदा री आ मंजूस खोळ'र साम्हें मेली है. लक्खी
बिणजारै री हाट ज्यूँ   दीपती इण पोथी में मिनखां रा अनोखा करतब अर अनूठी करतूतां बळबँका गायडमल
मरदां री मरदमीं, रणबँका सूरां री  जीत रा 'टोडरमल' गाता  बधावा ,  सेलाँ री अणिया सूँ बाटी सेकता
 घुड़ाला रा असवार ,  ड़ीघापातला ,बादीला, मदछकिया छेलभँवर , मरवण रा कोड़ायत,
   काळी कोसां करला डकाता ढोल कँवर,  तरवारां री धारां   सांपडता साकां रा करणहार , अगन झळl में
सिनान करती सतियाँ रा झुलरा - एक सू एक सोवणी मन मोवणी  मूँडै बोलती छिब निजरां सँजोई है .

चौमासे रा इमरत फळ मतीरा , ऊँडै निरमल जळ रा साठीका कूवा ,सरवर री पालां मँड़ता तीजां गणगोरां
  रा मेला खेला चाक्यां रा घमड़का री तालां पर परभाती गाती भु बेट्याँ रा जूट .  

     
     
                  

Wednesday, June 20, 2012

द्रोपदी - विनय

                                                              करुण - बहतरी 

                                                             ( द्रोपदी - विनय )
श्री रामनाथ जी कविया ने द्रोपदी के चीरहरण को विषय बनाकर ७२ दोहे व् सोरठे लिखे है.जो करुण बहतरी या द्रोपदी विनय के नाम से प्रसिद्ध हैं.कव का जन्म चोखां का बास (सीकर ) में लगभग १८०८ ई.में हुआ ये बड़े ही प्रतिभावान कवि थे.ये महाराजा विजय सिंघजी अलवर के मर्जिदानो में थे,विजय सिंघजी की मृतुउपरांत उन के पुत्र ने कवि को अलवर के किले में कैद में डाल दिया - इस बंधन काल में श्री रामनाथजी ने अपने हृदय की करुण पुकार को द्रोपदी की विनय के सोरठो द्वारा व्यक्त किया जो करुण बहतरी के नाम से प्रसिद्ध है. पांचाली चीरहरण एक ऐसा आलौकिक प्रसंग है जिससे श्रद्धालु भगवद भक्तों को सदैव प्रेरणा मिलती रही है. कवि ने महाभारत के इस उपाख्यान का आश्रय लेकर अपने हृदय की करुण चीत्कार को वाणी दी.
महाभारतकार ने द्रोपदी की कृष्ण से इस करुण विनय को ५-७ पक्तियों में सिमटा दिया है. इसी विनय के करुण प्रसंग को लेकर श्री रामनाथजी ने अनेक दोहों व् सोरठों की रचना की है. सती नारी के आक्रोश की अछी व्यंजना इन सोरठों में हुई है. इन सोरठों की भाषा सरल,प्रवाहमयी तथा चोट करने वाली है.द्रोपदी की उक्तियों में कहीं कहीं मर्यादा का आभाव भले ही खटके किन्तु जब भरी सभा में इस प्रकार नारी का अपमान किया जा रहा हो तो नारी हृदय की इस प्रकार की आक्रोशमय अभिव्यक्ति 
को किसी  भी प्रकार अस्वाभाविक नही कहा जा सकता.  
                                                                                  दोहा
             रामत चोपड़ राज री, है धिक् बार हजार !
             धण सूंपी लून्ठा धकै, धरमराज धिक्कार !!
भावर्थ :- द्रोपदी सबसे पहले युधिष्टर को संबोधित करती हुई कहती है.
               राज री चौपड़ की रमत को हजार बार धिक्कार है .हे धरमराज आप को धिक्कार है जो आप ने अपनी पत्नी को (लून्ठा) यानि जबर्दस्त  शत्रु के समक्ष सोंप दिया.
 .   बेध्यो मछ जिण बार , माण दुजोधन मेटियो !
            खिंचे कच उण खार , थां पारथ  बैठयां थकां !!
भावार्थ :- फिर अर्जुन को संबोधित करते हुए कहती है .  जिस समय तुमने मत्स्य को बेन्धा था और   
              दुर्योधन के  मान को मिटा दिया था तभी से वह खार खाए बैठा था ,उसी द्वेष के कारण 
             आज मेरे बल खींचे जा रहे है.और यह सब तुम्हारे बैठे थकां हो रहा है.
           
             रूठ असी दे रेस , ऊठ महाभड ऊठ अब  !
            कूट गहै छ केस , दूठ वृकोधर देख रै !!
भावर्थ :- भीम को संबोधित करती हुई द्रोपदी कहती है -हे वृकोदर भीम देख यह कूट दुष्ट मेरे
              बाल खिंच रहा है. हे महाभट अब उठ और रुष्ट हो कर इस को ऐसी यातना दे की यह याद
             रखे .
             भव तूं जाणे भेव ,बेध्यो मछ जिण बार रो  !
             देव देव सहदेव , बेल कर तो ओ बखत  !!
भावार्थ :- संसार में उस मत्स्य वेध के रहस्य को तूं भली भांति जनता है. हे देव देव सहदेव ! अगर सहायता   कर सकता है तो यही समय है.
   है तूं बाकि एक , कर पाणप   धर मूंछ कर !
         दूजां सांमो देख  ,  कायर मत होजे नकुल !!
भावर्थ :- हे नकुल मैं और सब पांडवों से प्रार्थना कर चुकी हूँ अब तो तूं अकेला ही बचा है.
              तूं वीर क्षत्रिय की तरह मूंछो पर हाथ रख कर पराक्रम दिखला . अपने दुसरे भाइयों की 
             देखा देखि तू भी कायर मत हो जाना .
         पति गंध्रप हैं पांच , धरता पग धुजै धरा  !
         आवै लाज नै आंच , धर नख सूं कुचरै धवल !!
भावार्थ :- गन्धर्व तुल्य मेरे पांच पति हैं जिनके पैर  रखने से प्रथ्वी भी कांपने लगती किन्तु ये 
               वीर अपने नखों से पृथ्वी को कुरेद रहे है. न इन्हें लज्जा आती है और न (आंच) जोश  
         पंडव जणिया पांच , जिकण पेट थारो जनम !
         जीवत ना आवै लाज , कैरव कच खैंचे करण !!
भावार्थ :- हे -करण जिस माता कुंती के पेट से पांच पांडवों का जनम हुआ है उसी पेट से तुम्हारा जनम
               हुआ है. ये कोरव द्रोपदी के बाल खैंच रहे है तुम जिन्दे हो तुम्हे लज्जा नही आती.
          अण वेहती ह्वे आज ,हुई न आगे होण री !
          कैरव करे अकाज , आज पितामह  इखता !!
  भावार्थ :-आज अनहोनी हो रही है, न तो भूतकाल में कभी ऐसी घटना घटी और न भविष्य में घटित होगी . आज पितामह के    देखते हुए ये कैरव अकार्य कर रहे है.

      धव म्हारा रणधीर , हरण चीर हाथां हुवो !
     नाकां छलियों नीर, द्रोण सभासद देख रै  !!
भावार्थ :- यधपि मेरे पति रणधीर हैं किन्तु इन्होने इस धूत क्रीडा के कारण अपने हाथों चीर हरण करवाया है.   पानी नाक के ऊपर आ गया है. हे -सभासद द्रोणाचार्य आप ही देखो .
    
      मिटसी सह मतिमंद , कलंक  न  मिटसी भरत  कुल !
      अंध  हिया रा अंध , पूत  दुसासन  पाळ  रै !! 
भावार्थ :- धृतराष्ट्र  को  संबोधित  करते हुए द्रोपदी कहती है- हे अंध ! तुम केवल आँखों के ही अंधे नही,   हृदय के भी अंधे हो .हे-मतिमंद सब कुछ नष्ट हो जायेगा परन्तु भरतकुल पर जो यह कलंक
             लग रहा है वह कभी नही मिटेगा.
     सकुनी जीते सार , घण अमृत  विष घोलियो !
     होणहार री हार , करसी भारत रो कदन  !!
भावार्थ :-  चोपड़(सार) के खेल में विजय होकर शकुनी ने घने अमृत में विष घोल दिया . होनहार वश जो पांडवों की  हार हो गई है उस से भारत का विनाश हो जायेगा .
       लो  या बिरियाँ  लाख, धर थारी थे ही धणी !
       निन्दित कृत हकनाक , कुरुकुल भूसन मत करो !!
            
भावार्थ :- यह धरती आपकी है, आप ही इस के स्वामी हो ! इसे   आप लाख  बार lo परन्तु हे कुरुकुल भूसन नाहक ही यह निन्दित   कृत्ये kyon होने दे रहे हो .
       गरडी गन्धारी , जिण न पुछो जाय नै !
       सो कहसी सारीह  , कृत अकृत री कैरवा !!
भावार्थ ;-वृधा गांधारी है उसे जा कर पूछो  वह कौरवों के कार्या कार्य की सब बातें कह देगी
    
          व्यास बिगड्यो वंस , कैरव निपज्या जेण कुल !
          असली व्हेता अंस , सरम न लेता सांवरा !!
भवार्थ :-व्यास ने उस  वंस को बिगाड़ दिया जिस में कोरव उत्पन हुए .अगर ये असली मां बाप की सन्तान होते                तो हे कृष्ण  वे मेरी लाज न लेते.

       निलजी कैरव नार , के उभी मुलक्या करो !
       अतो कुटम्ब उधार , देणा सो लेणा दुरस !१
भावार्थ :- हे निर्लज कैरव नारियो ! खड़ी खड़ी क्या मुस्करा रही हो . जो आज तुम मुझे दे रही हो , ठीक वही तुम्हे  लेना होगा. यह तो कुटम्ब की उधारी है.

      जोवो जेठाणीह , देराणी थे देखल्यो !
     होवे लजाहाणी , बीती मो थां बीतसी !!    
भावार्थ :-हे जेठानियो व देवरानियो तुम देखलो आज मेरी लजा जा रही है लेकिन याद रखना जो आज मेरे  में बीत रही है वो तुम पर भी बीतेगी.

      सासू मन्त्र ज साज , पूत जणया पार का !
      ज्यां री पारख आज , साँची होगी सांवरा !१
 भावार्थ :-हे  कृष्ण - मेरी सास ने मन्त्र सिद्ध करके जो दूसरों से  पुत्र उत्पन किये उन की परीक्षा आज सची साबित हो गई .
      जे सासू जणतीह , सुसरा रो एक ही सुतन !
      मूंछ्या तणतीह , साड़ी न तणती सांवरा !१
भावर्थ :-  हे कृष्ण !अगर सासू ने  स्वसुर से एक भी पुत्र पैदा किया होता तो आज साड़ी नही  बल्कि मूंछो पर ताव पड़ता . 
  पूत सास रै पांच , पांचू ही मनै सूंपिया  !
      जिण कुल री आ जाँच , सरम कठे रै सांवरा!!
 भावार्थ :-मेरी सास के पांच पुत्र और सास ने पांचो को ही मुझे सोंप दिया, जिस कुल की यह जाँच है.    हे कृष्ण ! वहां सरम कंहा .
      गंगा मछगंधाह , कुण जाई ब्याही कैठे !
      धुर कुळ अ धंधाह , सरम कहाँ सूं सांवरा !!
भावार्थ :- गंगा और मत्स्यगंधा को किसने पैदा किया और कहाँ इन का विवाह हुआ. हे कृष्ण जिस कुळ में इस तरह के   ढंग है वहां सरम कहाँ से होगी .
       कहो पिता हो कोण ,मात गरभ कुण मेलियो !
       देखै बैठो द्रोण , सो कीं अचरज सांवरा !!
भावार्थ :- कहो द्रोण का पिता कोन था व किस माता ने उसे गरभ में धारण किया था ? सो ऐसा
             द्रोण बैठा देखे तो हे कृष्ण इस में अचरज ही क्या है. (भरद्वाज ऋषी ने एक अप्सरा को गंगास्नान  करते देखा तो उनका शुक्रपात हो गया ऋषी ने शुक्र को द्रोण नामक यज्ञपात्र रख छोड़ा . उसी द्रोण से तेजस्वी  पुत्र उत्पन हुआ, उस का नाम द्रोण पड़ा.
     भिखम मात आभाव , मात गंग कीकर मने !
     सो पखहीण सभाव , सेवट सिटग्यो सांवरा !!
भावार्थ :-भीष्म को माता का आभाव रहा, वह ganga को mata कैसे माने सो इस पक्षहीन स्वभाव से आखिर कमजोर  होना पड़ा है हे सांवरा.
     ससुर नही कोई सास ,अंध सभा न्रप अंध री !
     होणहार उपहास , देखो भिखम द्रोण रो !!
भावार्थ :-अंधे राजा धृतराष्ट्र की यह सभा भी अंधी है.यहाँ न कोई ससुर है न सास .होनहार की बात है की आज भीष्म  व द्रोण दोनों का उपहास हो रहा है.
     देवकी'र   वसुदेव , पख  उजल  मात पिता !
      जिण कुल जनम अजय , सो किम बिसरयो सांवरा !!
भावार्थ :-लेकिन हे कृष्ण ! तुम मुझे कैसे भूल गये ? देवकी व् वासुदेव जसे तुम्हारे माता पिता हैं और उस अजय वंश में तुम्हारा   हुआ है जिस का पक्ष उज्वल है.
      गज ने गहियो ग्राह , तैं सहाय हो तारियो !
      बारी मो बैरोह , बैठ्यो व्हे वसुदेवरा !!
भावार्थ :-हे वासुदेव पुत्र ! जब हाथी को ग्राह ने पकड लिया तो तुमने सहायक हो कर उस का उद्धार किया,  अब जब मेरी बारी  आई तो तुम बहरे क्यों हो गये .
   

     रटीयो हरी गजराज  , तज खगेस धायो तठे !
     आ कांई देरी आज , करी थैं कान्हड़ा  !!
 भावार्थ :- जब गजराज ने हरी की रट लगाई तब आप ने अपनी सवारी गरुड की भी प्रतिक्ष नही की
               और दोड़ कर वहां पहुंच गये. हे कृष्ण आज आप ने यह देरी कैसे करदी . 
    लारै भगतां लाज , लंका गढ़ रघुपति लड्या !
    करण विभिसण काज , सिर दस काट्या सांवरा !!
भावर्थ :- इस के पहले भी भक्तों की लज्जा रखने के लिए लंका के गढ़ में भगवान रामचंद्र ने युद्ध किया था.   अपने भक्त विभीषन के कार्य को करने की लिए हे कृष्ण आपने रावण के दस सिर काट डाले थे.
   रलियो जल सुरराज  , धर अम्बर इक धार सूँ !
   करण अभय ब्रज काज , गिरी नख धारयो कान्हड़ा !!
भावार्थ :-जब सुरराज इंद्र ने मुसलाधार वर्षा की उस समय भी  हे कृष्ण आपने   बृज को अभय करने के लिए गोवर्धन  पर्वत को अंगुली पर उठा लिया .
    विप्र सुदामा काज , कोडां धन लायो कठा !
   बढ़ण चीर विसतार , सरदा घटगी सांवरा  !!
भावार्थ :-  विप्र सुदामा  के काम के लिए करोड़ों का धन कंहा से लाये . मेरे चीर के विस्तार के समय हे कृष्ण आप की   सरदा यानि शक्ति कैसे घट गई.
  ब्रज राखी ब्रजराज  , इंद्र गाज कर आवियो !
      लेवै खल मो लाज  , आज उबारो ईसरा !!
भावार्थ :-हे ब्रजराज  हे कृष्ण जब इंद्र गर्जना करके आया तो आपने ब्रज की रक्ष की
             हे इश्वर ये दुष्ट मेरी लज्जा ले रहे हैं आज इन से मुझे उबारो.
    जाण किसो अणजाण , तीन लोक तारणतरण !
    है द्रोपद री हांण , सरम धरम री सांवरा !!
भावार्थ :-हे सांवरा ! कोन सी जानी हुई चीज तुम से अनजान है? तुम तो तीन लोकों से तारने 
              हो . आज जो हो रहा है उसमे तो द्रोपदी की  सरम व धर्म दोनों की ही हानी है, हे प्रभु .
      अब छोगाला ऊठ  , काला तूं प्रतपाल कर !
     पांचाली री पूठ ,चढ़ रखवाला चतुर्भुज  !!
भावार्थ :- हे छोगावाले यानि छुरंगेवाले ऊठ हे कृष्ण (काला  ) तूं प्रतिपाल कर -रक्षा  कर .
                हे रक्षा करने वाले चतुर्भुज तूं पांचाली की पीठ पर रक्षार्थ आ .

     हारया कर हल्लोह  ,मछ अरजुन बेध्यो मुदे !
   दिन उणरो बदलोह , साझे मोसूं सांवरा  !!
भावार्थ :- मुदे की बात यह की मछली को अरजुन  ने बेंधा था और ये हल्ला गुल्ला  कर  ke भी 
             हार गये . हे कृष्ण उस दिन का बदला ये मुझ से साँझ रहे आसा तज आयाह , पाछा कोरैव पावणा !
उण दिन रा दायाह , सांझे मोसूं सांवरा !!
भावार्थ :-स्वयंबर के समय ye कोरैव पाहुने आसा छोड़ कर वापस आ गये थे . उस दिन की दाह का वैर
mujh से वसूलना चाह रहे है. 

लेवै अबला लाज , सबला हुय बैठा सको  !
गरढ्ह सभा पर गाज , सुणता रालो सांवरा !!
भावार्थ :- आप सब सबलों के बैठे (दुष्ट दुसासन ) मेरी अबला की लाज ले रहा है.इस गरुड़ (बूढों ) सभा पर
            हे कृष्ण मेरी पुकार सुनते ही गाज (वज्र ) डाल दो .
  द्रोपद हेलो देह , वेगो आ वासुदेवरा !
लाज राख जस लेह , लाज गयां व्रद लाजसी !
है ले रहे है .
  

Tuesday, May 29, 2012

बादसाह अकबर ने जब १५६७ में चितोड़ पर आक्रमण किया तो   महाराणा उदय सिंह ने चितोड़ खाली कर पहाड़ों की शरण ली व चितोड़ का किला   राव जयमल जी मेडतिया व पत्ताजी शिसोदिया को रक्षा के 
 लिए सुपुर्द कर दिया. दोना योधाओं ने अपने जीते जी चितोड़ पर दुश्मन का कब्जा नही होने दिया. इस सम्बन्ध में एक डिंगल गीत है:-

                                              गीत  
चवै राव जैमल चितौड मत चल चलै ,
      हेड हूँ अरिदल न दूं हाथै !
ताहरै शीस पग चढ़े नह ताइया ,
     माहरै शीस जे खवां माथै !!१!!
 
भावार्थ : " राव जयमल कहता है - हे चितौड तूं  चल विचलित मत हो
दुश्मनों को मै भगा दूंगा -उन के हाथ तुम्हारे तक नही पहुंच ने
दूंगा.जब तक मेरा  सिर (खवां ) कंधो पर है तब तक दुश्मन के पांव 
तुम्हारे सिर पर नही पड़ेंगे .
 
धडकै मत चित्रगढ़ जोधहर धीरपै ,
       गंज सत्रा दलां कंक गजगाह !
भुजां सूं मुझ जद कमल कमलां मिलै ,
        पछे तो कमल पग दे पातसाह  !!२!!
 
भावार्थ :हे चितोड़गढ़ ! तूं धडक मत ! भयभीत मत हो राव जोधा का पौत्र 
तुझे धीरज बंधाता है. मै शत्रु दल  व इस के हाथियों के समूह ध्वस्त करूंगा. .
मेरा मस्तक जब कटकर महारुद्र के गले में चढ़ जायेगा ,   उस के बाद ही बादसाह 
तेरे मस्तक पर पग रख सकेगा .  
 
दुदै कुल आभरण धुहड़- हर दाखवै ,
      धीर मन डरै मत करै धोको  !
प्रथि पर माहरो सीस पड़ियाँ पछे ,
      जाणजे ताहरै सीस जोखो  !!३!!
 
भावार्थ :  राव दूदा के कुल का आभरण, राव धुहड का वंशधर ,जयमल 
कहता है -हे चितोड़ -धीरज रख , डर मत और मन में किसी प्रकार का
धोका मत ला . प्रथ्वी पर मेरे मस्तक गिरने पर ही तुम्हारे पर कोई जोखिम 
आएगी.