Saturday, August 31, 2013

१८५७ ई. की क्रांति में राजस्थान के आउआ ठाकुर कुशल सिंह से सम्बन्धित दोहे

       

                       १८५७ ई. की क्रांति में राजस्थान के आउवा  ठाकुर कुशल सिंह से सम्बन्धित दोहे 

एरनपुरा व डीग के क्रांतिकारी सैनिक आऊवा  में आकर ठाकुर खुशाल सिंह के नेतृत्व में इकत्रित हो गये। मेवाड़ और मारवाड़ के कई और भी सामंत आ जूटे शेखावाटी से मंडावा ठाकुर ने भी सैन्य सहायत भेजी।
इन वीरों ने निश्चय कर लिया कि अंग्रेजों को यहाँ से निकाल कर देश को आजाद करेंगे।  अंग्रेजी फौजें व जोधपुर की फौजे इनके मुकाबले पर आ पहुंची। जोधपुर की सेना के सेनापति अनाड सिंह व राजमल दोनों मारे गये। सिमली के ठाकुर सगत सिंह ने केप्टन मेसन को मार डाला। जोधपुर से दूसरी सेना जिसके मुसाहिब कुशल राज सिंघवी व दीवान विजयमल थे ,ये दोनों भी युद्ध क्षेत्र से भाग निकले। इस पराजय से लज्जित हो अंग्रेजों  व जोधपुर की विशाल सेनाये अपने तोपखाने के साथ आऊवा  पर चढ़ आयी। ठाकुर कुशल सिंह ने भंयकर युद्ध किया। २००० हजार सैनिको को मार डाला और तोपखाने की तोपे छीन ली। ब्रिगेडियर जनरल सर पैट्रिक लारेंस मैदान छोड़ कर भाग गया। इतनी बड़ी पराजय से फिरंगीयों को होश ऊड  गये। अजमेर ,नसीराबाद ,मऊ व नीमच की छावनियो से फोजे आऊवा  पंहुची। सब ने मिलकर आऊवा   पर हमला बोल दिया। क्रांति कारी सामन्तो के किलों को सुरंग से उड़ा दिया। आउवा को लूटा। सुगली देवी की मूर्ति अंग्रेज उठा ले गये।

चवादा उगनिसे चढे ,जे दल आया जाण। 
रह्या आउवे खेत रण , पुतलिया पहचानण।।

भावार्थ : सवंत १९१४ में अंग्रेज आउवा पर  चढ़ आये और यह चढ़ कर आने वाला दल आउवा में काम आया यानि रण खेत रहा।   इसकी पहचान यहाँ रुपी हुयी पथर प्रतिमाये हैं।

हुआ दुखी हिंदवाण रा , रुकी न गोरां राह। 
विकट लडै सहियो विखो , वाह आऊवा वाह।। 

भावार्थ :गोरों की राह नही रुकी ,पूरा हिदुस्तान दुखी है।  आऊवा के स्वामी ने विपतियाँ झेलकर विकट लडाई  लड़ी ,धन्य है आपको।

फिर दोळा अऴगा फिरंग ,रण मोला पड़ राम। 
ओळा नह ले आउवो ,गोळा रिठण गाम।। 

भावार्थ :फिरंगियों ने बड़ी तेजी से आउवा  गाव को घेर लिया,उसी गति से उन्हें वापस लोटना पडा। हार जाने से उन का नूर उतर गया। युद्ध के डर  से बहाना बनाने वाला  आउवा गाँव नही है।,यह तो गोलों की  बोछार करने वाला गाँव है।

फीटा पड़ भागा फिरंग मेसन अजंट मराये। 
घाले डोली घायलां ,कटक घणे कटवाय।।

भावार्थ : फीटा यानि निर्लज्ज होकर अंग्रेज भाग छुटे ,अपने रेजिडेंट मेसन का मरवाकर। बहुत से सैनिको को मरवाकर घायलों को डोली में दाल कर भाग छुटे ।

काळा सूं मिल खुसलसी , टणके राखी टेक। 
है ठावो हिंदवाण में ,ओ आउवो एक।.

 अजंट अजको आवियो ,ताता चढ़ तोख़ार।
काळा भिडिया कीडक न ढिब लिया खग धार।।

प्रसणा करवा पाधरा ,घट री  काढण छूंछ।
क्रोधिला खुसियाल री ,मिलै भुन्हारा मूंछ।।

थिर रण अरियाँ थोगणी , नधपुर पुगो नाम। 
आऊवो खुसियाल इल ,गावे गांवों गाँव।।

      

Friday, August 30, 2013

राजस्थानी दोहे .

 राजस्थानी दोहे 

कायर ,कुदत ,कपूत ,मेहणों लागे जलमियां।
सूरो सुदत ,सपूत ,नामी इण धर निपजे।।

भावार्थ :कायर ,कंजूस व कपूत इन के जन्म से कुल कलंकित होता है। किन्तु इस राजस्थान कि जमीन पर तो शूरवीर ,दानी व सपूत ही पैदा होते हैं।

 एक राजपूत  खिंवरा बिखे में आ गया यानि विपति में आगया फिर भी अपनी सामर्थ्य को कम नही होने  दिया ,कैसे -

गुधलियो तो ही गंग जल , सांखलियो तोही सिंह।
विखायत तोहि खिंवरो ,खांकलियो तोही दिह।।

भावार्थ : अगर गंगाजल गुधला भी गया हो तो भी उसकी महिमा कम नही होती। अगर सिंघ को सांकलो में जकड़ भी दिया जाये तो भी सिंघ तो सिंघ ही है। इसी तरह खीवसी भी विपति में होने से भी वैसा ही है।  अगर दिन यानि सूर्य आंधी की गर्द से ढका है तो भी दिन ही है।

पक्षपात प्रत्यक युग में अपना प्रभाव दिखता है। चापलूसी से मुर्ख व्यक्ति भी मुंशीगिरी प्राप्त कर लेता है अयोग्य होने पर भी योग्य व्यक्ति के सिर पर जा बैठता है -

कागां सरखा कुमांणसां ,पंखा बळ फळ खाय।
सिंघ सबळ बिण पंख कै ,नीचे फिर फिर जाय।।
पख बड़ा सो नर बड़ा ,पख बिना बड़ा न कोय।
पंख आया कीड़ी उड़े ,गिरवर उड़े न कोय।।
 
भावार्थ :- कौआ जैसा कुमाणस  इस लिये फल खाता है क्यों की उसके पास पंख है और सिंह जैसा सबल बिना पंखो के पेड़ के निचे फिर कर चला जाता है।
जिस व्यक्ति का पक्ष सबल वह बड़ा आदमी ,बिना पक्ष के कोई बड़ा नही हो सकता। पंख आने से कीड़ी भी उड़ने लगती है पर बिना पंखों के पर्वत जैसा शक्ति शाली भी उड़ नही सकता।

हे नरो ! सत्य का मार्ग मत छोड़ो क्यों कि सत्याचरण छोड़ने से स्वयम की कुल की व समाज की प्रतिष्ठा मिट जाएगी -

सत मत छोड़ो हे नरां ,सत छोड्या पत जाय।
सत की बांधी लिछमी ,फेर मिलेगी आय। 

राजस्थानी दोहे ( देह की क्षर्ण भंगुरता व दान के महत्व का )

राजस्थानी दोहे ( देह की क्षर्ण भंगुरता व दान के महत्व का )


१. महाराजा जसवंत सिंह जी जोधपुर कृत :--

खाया सो ही उबरिया ,दिया सो ही सत्थ। 
जसवंत धर पोढ़ावतां ,माल बिराणे हत्थ।।

भावार्थ : आप ने जो खर्च कर लिया  सो बच गया ,दान दे दिया वो मृत्यु के बाद साथ जायेगा।
            जसवंत सिंह कहते हैं कि मृत्यु के बाद जब आपके  शव को धरती पर लिटाया जाते ही आप की सारी                सम्पति किसी और की हो गयी।

दस द्वार को पिंजरों ,तामे पंछी पौन। 
रहन अचंभो है जसा , जात अचंभो कोन।।

भावार्थ :  यह शरीर दस दरवाजो का पिंजरा है ,जिस में यह आत्मा रुपी पंछी पड़ा हुआ है।  हे जसवंत यह आत्मा इस पिजरे में पड़ी वह आश्चर्य है जाने में क्या आश्चर्य है।

जसवंत बास सराय का ,क्यों सोवत भर नैन। 
स्वांस नगारा कूच का ,बाजत है दिन रैन।।

भावार्थ :जसवंत सिंह कहते हैं कि यह तो धर्मशाला में रहने जैसा है सो गहरी नीद में क्यों सोते हो। स्वांस जो आता जाता रहता है यह कूच करने के नगारे हैं ,जो रात दिन बजते रहते हैं।

जसवंत शीशी काच की ,वैसी ही नर की देह। 
जतन करतां जावसी , हर भज लाहो लेह।।

भवार्थ : यह शरीर काच  की बोतल की तरह है ,जो यत्न करते रहने पर भी एक दिन टूट जाती है। इस लिए हरी को भज  कर इस का सदुपयोग करना चाहिए।

२. अन्य जिन के रचनाकारों के बारे में जानकारी नही है।

खाज्यो पिज्यो खर्च ज्यो ,मत कोई करो गरब।
सातां आठां दिहडा, जावाणहार सरब्ब।।

कंह जाये कंह उपने ,कंहा लडाये लाड।
कुण जाणे किण खाड में , पड़े रहेंगे हड्ड।।

सबसो हिल मिल हालणो , गहणो आतम ज्ञान।
दुनिया में दस दिहड़ा , मांढू तू मिजमान।।

 





Thursday, August 29, 2013

राजस्थानी दोहे (वियोग व श्रंगार )

                             राजस्थानी दोहे (वियोग व श्रंगार )

मिलण भलो बिछटण बुरो , मिल बिछुडो मत कोय। 
फिर मिलणा हंस बोलणा , देव करे जद होय।।

भावार्थ : (यह वो जमाना था जब सवांद के आज के से साधन नही थे ) मिलना अच्छा बिछुड़ ना बुरा। अगर एक दफा मिल गये तो ईश्वर उन का विच्छोह न करे। क्यों कि फिर मिलना ,हंस बोलना तो देव करेगा तब ही होगा।

जो धण होती बादली ,तो आभे जाये अडंत। 
पंथ बहन्ता साजना , ऊपर छाह करंत।। 

भावार्थ : पति यात्रा पर निकला है ,धुप हो गयी है। पत्नी कहती है अगर मैं बदली होती तो ऊपर आकाश में अड़ जाती और रस्ते में चलते मेरे साजन पर छांह कर देती।

 आडा डूंगर बन घणा ,  जंहा हमारा मीत। 
देदे दाता पंखडी , मिल मिल आऊं नित।। 

भवार्थ : बहुत से पर्वत और वन मेरे व मेरे प्रियतम की राह में बाधक हैं। हे दाता मेरे पंख देदे सो मैं  रोज उन से मिल आऊं।

बिजलियाँ जलियाँ नही , मेहा तूं तो लज्ज। 
सूनी सेज विदेश पीव ,मधरो -मधरो गज्ज।।

  ऎ बिड़ला ऎ बाग़ , आज लगो अण खांवणा। 
भलो अमीणो भाग , बालम तों बारां बहे।।

धर अम्बर इक धार , पाणी नालां पड़े।
 आलिजो इण बार ,बालमियो बाटां बहे।।

 घसिया बादल धुर दिशा , चंहु दिशियाँ चमकंत। 
मन बसिया आज्यो महल , कामण रसिया कंत।।

घर घर चंगी गोरड़ी ,गावे मंगला चार। 
कंथा मति चुकाय ज्यो ,तीज तणों त्योंहार।।

सावण आवण कह गया , कर गया कोल अनेक। 
गिणता-गिणताघिस गई ,आंगलियां री कोर।।

सूरज थाने पुजस्याँ ,भर मोत्यां रो थाल। 
चिन के मोड़ो आंथियो , बादिलो रमे से शिकार।।

कागद को लिखबो किसो ,कागद सिष्टाचार। 
बो दिन भलो जो उगसी ,मिलस्याँ बांह पसार।।



  


Wednesday, August 28, 2013

क्षत्रियो के सच्चे गुण

                                      क्षत्रियो के सच्चे गुण

किसी कवि ने क्षत्रिय में क्या गुण होने चाहिये ,इस के बारे में निम्न दोहे लिखे हैं -

काछ दृढां कर बरसना ,मन चंगा मुख मिठ।
रण शूरा जग वल्लभा ,सो हम चाहत दिठ।।

रंग लक्षण रज पूत ,बात मुख झूठ न बोले।
रंग लक्षण रज पूत ,काछ पर नार न खोले।।

रंग लक्षण रजपूत ,न्याय धर तुल निज तोले।
रंग लक्षण रजपूत ,अडर केहरि जिम डोले।।

पीरजा पालन पुत्री सम ,लेहण प्राण कपूत रा।
मादक मेले न मुख ,प्रिय लखण रजपूत रा।.

हरख सोच नही हिये ,सुजस निंदा नही सारे।
जीवन मरण जिहान ,लाग्यो है प्राणी लारे।।

रथ रूपी पिंजर रचक सकल नियंता स्याम रो।
और रो डर नही ,डर अवस रात दिवस उण राम रो।.

संत असंत सार

                                     संत असंत सार 

ऊमरदान जी चारण स्वामी दयानंद जी के समकालीन हुए हैं।  इन को  संसार से विरक्ति हो गयी ,साधू बन गये।  किन्तु इन्होने जब अलग अलग पंथों  में साधुओं की टोलियों के साथ भ्रमण करते ,उनके मठों ,आश्रमों में जब उनके अनैतिक कारनामे देखे तो विरक्ति हो गयी। फिर जोधपुर में ये स्वामी दयानंद जी के सम्पर्क में आये। उनको गुरु बनाया और कहा की ऐसे साधू विरले ही हैं।

इन्होने संत -असंत सार के दोहे , खोटे संतो का खुलासा , असंतो की आरसी व संतो की सोभा आदि कवित लिखे हैं।

ऊमर सत उगणीस में ,बरस छतीसां बीच।
फागण अथवा फरवरी ,निरख्या सतगुरु नीच।।

उमरदानजी ने अपने साधू बनने का वर्ष व नीच गुरु मिलने का वर्णन किया है। इन के इस कवित में से कुछ दोहे -
तंडण कर कविता तणो ,घालूं चंड़ण धूब।
खंड़ण  जोगे भेख रो ,खंडण करणों खूब।।

मोड़ा दुग्गह माळीयां , गावर फोगे ग़ाल।
भोगे सुंदर भामणी , मुफ्त अरोगे माल।।

मां जाई कहे मोडियो , करे कमाई कीर।
बाई कहे जिण बेनरा , बणे जवांई बीर।।

आज काल रा साध रो ,ब्याज बुहारण वेस।
राज मांय झगड़े रुगड ,लाज न आवे लेस।।

बड़ी हवेली बीच में , हेली सूं मिल हाय।
बण सतगुरु छेली बखत , चेली सूं चिप जाय।।

बाम -बाम बकता बहे ,दाम दाम चित देत।
गांव -गाँव नांखे गिंडक ,राम नाम में रेत।।

मारग में मिल जाय ,धुड नाखो धिकारो।
घर माही घुस ज्याय ,लार कुत्ता ललकारो।।

झोली माला झाड ,रोट गिन्ड़का ने रालो।
दो जुत्यांरी दोय ,करो मोडा रो मुंह कालो।।

सांडा ज्यूँ ऐ साधडा ,भांडा ज्यूँ कर भेस।
रांडां में रोता फिरे ,लाज न आवे लेस।।

गृह धारी ओंडा गीणा ,नर थोडा में नेक।
भेक लियोड़ा में भला ,कोड़ा मांही केक।।


  

    

Saturday, August 24, 2013

बात राजा भारमल कछवाहे री

                          बात राजा भारमल कछवाहे री  

राज भारमल आमेर राज करै।  चुहड़ खान बिलोच आठ हजार बिलोच ले -अर चाटसू आय बैठ्यो। कहै चाट्सू म्हारो बसणो छे।   धरती कीं री ? धरती मांटिया-री छे। ईं भांति धरती चौगिरद धो पटे ,खावे।  इयुं करतां  बांहतर रा बड गुजर माचेडी पाय तख्त ,राजा ईशरदास राज करै। ईसरदास कह्यो -चुहड़ खान ! आव म्हारे साथै ,तोनू पाँच लाख रुपया देस्युं।  ताहरां चुहड़ खान आय बड गुजर भेलो हुयो। च्यार हजार सूं बड गुजर आया।  बारह हजार सूं चढ़ अर ढूंढाड  रै कांठे आय उतरिया। आदमी परधान मेलिया। राज भारमल नूं कह -बेटी परणा ईसरदास नूं ,कै पाँच लाख रिपया पेस द्यो ,कै लड़ाई करो। तीनों थोकां में जाणो सो करो।

ताहरां विचार हुवो।  बड़ा बड़ा कछवाह बुलाया।  बीजो ही नानो मोटो कछवाहो बुलायो।  एकठा करि नै बात पूछी -ठाकरां ! सहु को सांभलो ,म्हे ढूढाड रा राजा ,थे ढुंढाड रा उमराव।  कटक आयो विचार करो।  सहू को कहण  लागा ,तांहरां राजा भारमल बोलिया -ऊदोजी ! थे बडेरा छो ,थे कहो सो करां।  तांहरा ऊदो बोलियों -माहराज ! म्हे पुछण सिरखा रहिया नही ,हूँ ऒलद रो कणवारियो  !

ताहरां राजा कह्यो -सो ऊदाजी ! मांह नू चूक छ।  तांहरां ऊदो बोलियो - महाराज ! म्हारो कहियो कि जाणो करो कि न करो  ? तांहरा  राजा भारमल बोलियो - थारो कहियो मेंह करस्यां। ताहरां ऊदो बोल्यो -महाराज ! मांचेडी रा बड गुजरां नूं राजा भारमल री बेटी न द्यो अर दंड पण न दयो।, लड़ाई करस्यां ,अर महाराजा ! परमेसर भलो करसी।  राजा खुस्याल हुवो। तांहरां राजा बोलियो -किसी तरह लड़ाई करस्यो  ? ताहारां कहियो -माहराज तो वांसै रहो ,महँ कटक त्राणतो ले जावस्यां ,कहण सुणण नूं होसी राजा  वांसै छ।

ताहरां लड़ाई रो कहाडियो - बेगा आवो ,लड़स्यां। बड़ा सनध बंध फोज करी ,दे मुंहडा आगे अराबा , बेव फौजां आयी।  संघट्ट हुयो छे , जाणे आसाढ़ री घटा आइ संप्राप्त हुई छे।  एक ऐराकी पूरी पाखरी करी ,जोगेंद्र रूप करि ,घोड़े असवार ऊदो हुवो फौज हूँ आगे आसमान जाय लाग्यो छे।   अराबा तैयार हुवै छे ,छुटा नही छे , छूट छूट हुई कर रह्या छे।

तीसी समय बलभद्र पिरथिराजोत नू कहे  छे ऊदो - आज ढुंढाड रै काम नू , राजा भारमल रै काम नू ,आ देह , आम्बेर निमित ऊदो देह भांजे छ ,अर इसो माहरो सूरातन ,अर स्याम धर्म माहरो आज  इसो छ.जीको मांड रो धणी छे। 
   


महाराजा अजित सिंह को दिल्ली से निकालने व दिल्ली की लड़ाई व पलायन का रोमंचक वर्णन

महाराजा अजित सिंह को दिल्ली से निकालने व दिल्ली की लड़ाई व पलायन का रोमंचक वर्णन 


महाराजा जसवंत सिंह खैबर दरे के मुहाने पर जमरूद चोकी पर अपने २५०० घुड़सवारो के साथ तैनात थे।  इस सेना ने खैबर दर्रे को खुला रखने में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की।  किन्तु मारवाड़ की समस्त सेना के ठहरने के लिये यह स्थान उपयुक्त नही था इस लिए महाराजा जसवंत सिंह जी ने काबुल के सूबे पेशावर शहर को अपना मुख्यालय बनाया।  यधपि जसवंत सिंह जी ने अपने जीवन के ५२ वर्ष भी पुरे नही किये थे परन्तु कुछ दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे।  २८ नवम्बर ,१६७८ ई. को इन का स्वर्गवास हो गया। इन्ह का दाह संस्कार उसी बाग में किया गया जहाँ इनका शिविर लगा हुआ था।

उनकी दो महारानिया ,करोली के राजा छत्रमण की पोत्री  जसकंवर जदुण और कंकोड उनियारा के फतह  सिंह नरुका की पुत्री कछवाही रानी उस समय जसवंत सिंह जी के साथ पेशावर में ही थी। दोनों अपने पति के साथ  के लिए उत्सुक थी। किन्तु  चूँकि दोनों गर्भवती थी ,अत: मारवाड़ के ऊँचे अधिकारीयों व सामंतो ने उन्हें परामर्श दिया की वो सती  न हों,क्यों की मारवाड़ के सारे वंश का भविष्य उन्ही बच्चों पर निर्भर था।  दुर्गादास ने इस विचार -विमर्श में और महारानियों को राजी करने में  मुख्य भूमिका निभाई।

महाराजा के क्रियाकर्म  बारहवां के दिन पेशावर में कर जोधपुर का सारा दल वापसी के लिए रवाना हो गया। १९ जनवरी १६७९ ई. को इस दल ने अटक के पास सिन्धु नदी को पार किया। एक सप्ताह बाद ये हसन अब्दाल पंहुचे तो अस्थियो व भस्म को गंगा में प्रवाहित करने के लिए पुरोहित कल्याण दास व पंचोली जयसिंह को आगे भेज दिया। १५ फरवरी ,१६७९ ई. का सारा दल लाहोर पंहुचा और एक हवेली में ठहरा। प्रसव काल नजदीक होने से कुछ दिन लाहोर में ठहरने का निश्चय किया गया।

१९ फरवरी १६७९ ई. के दिन पहले महारानी जदुण जी ने सतमासे पुत्र को जन्म दिया करीब आधे घंटे बाद महारानी  कछवाही ने भी पूर्ण विकसित पुत्र को जन्म दिया। बड़े का नाम अजित सिंह व छोटे का नाम दलथभंण रखा गया। संदेश वाहक जोधपुर भेजे गये जो आठवें दिन पंहुच गये।

ओरंगजेब को  यह खबर अजमेर में २७ फरवरी को मिली। वह व्यंग से मुस्करा दिया और बोला "आदमी कुछ सोचता है और खुद ठीक उस से उल्टा करता है।

यहाँ से मारवाड़ का यह दल दोनों राजकुमारों व रानियों के साथ २८ फरवरी को दिल्ली के लिए रवाना हो गया।
ओरंगजेब का रवैया कड़ा होता जा रहा था।  इधर नागोर के राव अमर  सिंह का पुत्र इंद्र सिंह जोधपुर पर अपनी दावेदारी करने लगा। १८ मार्च १६७९ ई. को ओरंगजेब के सामने हाजिर हो ,दोनों राजकुमारों के बनावटी  होने की अफवाह फैलाने लगा।

इधर मारवाड़ का दल १ अप्रेल १६७९ ई. को दिल्ली से ६ मील उतर में बादली गाँव पंहुचा व चार दिन तक वन्ही रुका रहा। दिल्ली में जोधपुर की हवेली खाली कराई गयी व दोनों राजकुमारों व महारानियो को वंहा रखा गया।  इधर अजमेर से पंचोली केसरी सिंह ,भाटी रघुनाथ ,राठोड रूप सिंह उदावत आदि कई अन्य सरदार दिल्ली पंहुच गये।

दुर्गादास के नेतृत्व में यह लोग बादसाह से बार बार अजित सिंह को जोधपुर का अधिकार देने की मांग कर रहे थे  ,जो की खालसा कर लिया गया था। ओरंगजेब जोधपुर राज्य तो क्या उन्हें जोधपुर परगना देने को तैयार नही था। राठोड़ो के बीच फूट डालने के लिए ओरंगजेब ने जसवंत सिंह के भाई के पोते नागौर के राव इंद्र सिंह को जोधपुर का राजा बना दिया। इंद्र सिंह ने महारानियो से दिल्ली की जोधपुर हवेली खली करवाली।  दोनों महारानियाँ उनके पुत्र और जोधपुर का उनका दल किसनगढ़ के राजा रूप सिंह भारमलोत की हवेली में चले गये। स्थिति बड़ी तेजी से नाजुक होती जा रही थी भयानक संघर्ष की संभावना साफ दिखाई दे रही थी। शीघ्र विचार और शीघ्र कारवाई ही वक्त की सबसे बड़ी जरूरत थी।

महारानियों और उनके पुत्रों के प्राणों के संकट को देखते हुये राठोड रणछोड़ दास,  भाटी रघुनाथ ,राठोड रूप सिंह ,दुर्गादास राठोड और मारवाड़ के अन्य सरदारों ने राजकुमारों को चुपके से दिल्ली से निकाल ले जाने की योजना बनाई।

बलुन्दा के राठोड मोहकम सिंह ,खिंची मुकनदास  तथा मारवाड़ के अन्य सरदारों ने बादसाह से मारवाड़ जाने की अनुमति मांगी। ओरंगजेब भी बड़ी संख्या में मारवाड़ी सरदारों की दिल्ली में उपस्थिति से खतरा   महसूस कर रहा था ,सो उसे राहत मिली। मोहकम सिंह के बालबच्चे भी साथ थे। मोहकम सिंह ने एक दुध पीते बच्चे से राजकुमारों को बदल दिया। इस प्रकार कड़े पहरे के बावजूद दोनों राजकुमारों को दिल्ली से बाहर निकाल दिया। और किसी को कानो कान भी खबर नही हुई।

इधर  ओरंगजेब को लगा की अब शिकंजा कसने का समय आगया है। उसने कहलाया की हम दोनों राजकुमारों को शाही हरम में रख कर पालन पोषण करना चाहते है। राठोड़ो के न सहमत होने पर ओरंगजेब ने बल प्रयोग करने का निश्चय किया। उसने शहर कोतवाल फ़ोलाद खां को आदेश दिया की वे जसवंत सिंह की दोनों रानियों व राजकुमारों को रूप सिंह की हवेली उठाकर नूर गढ़ ले जाये। और अगर राठोड इसका विरोध करे तो उन्हें उचित दंड दिया जाये। फ़ोलाद खां ने एक बड़ी फोज के साथ १६ जुलाई ,१६७९ ई. को  रूप सिंह की हवेली को पूरी तरह घेर लिया। शाही सेना ने पहले तो मृत्यु प्रेमी राजपूतों को भड़काने के बजाय समझा बुझा कर काम लेना चाह किन्तु सफलता नही मिली।  सर यदुनाथ सरकार लिखते हैं - "उस दिन उन का मुख्य उद्देश्य यही था की दोनों महारानियो को किसी तरह दिल्ली से सुरक्षित निकाल ले जाये और दुस्साहसिक विरोध और अनेक पृष्ठ रक्षक युधो द्वारा शत्रु को रोककर अपने प्राणों का बलिदान देते हुए अधिक से अधिक मारवाड़ के सरदारों व घुड़सवारो को बचाया जाये। "

समझाने बुझाने से कोई बात बनी नही और लड़ाई शुरू हो गयी। जब दोनों और से गोलिया चल रही थी तब जोधपुर के एक भाटी सरदार रघुनाथ ने एक सो वफादार सैनिको के साथ हवेली के एक तरफ से धावा बोला। चेहरे पर मृत्यु की सी गंभीरता और हाथो में भाले लिए वीर राठोड शत्रु पर टूट पड़े। इस से पूर्व उन्होंने अपने इष्ट देवताओं की पूजा करके अफीम का शांति प्रदायक पार्थिव पेय दुगुनी मात्र में पी लिया था। उनके भयानक आक्रमण के आगे शाही सैनिक घबरा उठे।  क्षणिक हडबडाहट  का लाभ उठा कर दुर्गादास व वफादार घुड़सवारों का दल पुरुष वेशी दोनों महारानियों के साथ निकल गये और मारवाड़ की और  बढ़ने लगे।  "डेढ़ घंटे तक रघुनाथ भाटी दिल्ली की गलियों को रक्त रंजित करता रहा किन्तु अंत में वह अपने ७० वीरो के साथ मारा गया।"

दुर्गादास व उसके दल के निकल भागने की सुचना शाही सैनिको को मिल चुकी थी और इस लिए शाही घुड़सवारो ने उन का पीछा  करना शुरू किया। जोधपुर का दल ९ मील की दुरी तय कर चूका था ,तब शाही घुड़सवार उनसे जा लगे।  " अब रणछोड़दास जोधा की बारी थी। उसने कुछ सैनिको के साथ शाही घुड़सवारो को रोक कर रानियों को बचाने के लिए बहुमूल्य समय अर्जित किया। जब उनका विरोध समाप्त हो गया तब मुगल सैनिक उनकी लाशो को रोंद कर बचे हुए दल के पीछे भागे।

अब दुर्गादास व उसके घुड़सवारो का छोटा सा दल वापस मुड  कर पीछा करने वालो का सामना करने के लिए विवश हो गया।  वंहा एक भयानक युद्ध हुआ और मुग़ल सैनिकों को कुछ देर के लिए रोक गया। किन्तु स्थिति काबू से बाहर हो चकी थी।  दिल्ली स्थित हवेली से बाहर निकलते समय दोनों महारानियो को भी युद्ध करना पडा  था और वे भी जख्मी हो चुकी थी। पांचला के चन्द्रभान जोधा जिस पर महारानियो का दायत्व था ,के सामने अब कोई विकल्प नही रहा और उसने दोनों के सर काट दिए। इसके बाद उसने भी युद्ध करते हुए मातृभूमि के लिए प्राण न्योछावर कर दिए।

शाम हो चुकी थी। मुगल सैनिक लम्बी दोड और तीन भयानक मुठभेड़ों के कारण थक गये थे। अत : जब घायल दुर्गादास शेष बचे ७ सैनिको के साथ मारवाड़ की और बढ़ा तो उन्होंने उस का पीछा नही किया। जब दुर्गादास ने देखा की मुगल सैनिक उन का पिच्छा नही कर रहे है तो लोट कर महारानियों के पार्थिव शरीर को उठा कर यमुना की पवित्र धारा में प्रवाहित कर दिया।


 






  

Sunday, August 18, 2013

राजस्थानी का बात साहित्य

                                  राजस्थानी का बात साहित्य

राजस्थानी भाषा का पध्य साहित्य जिस परिणाम में विपुल व समृद्ध है उसी प्रकार राजस्थानी गद्य साहित्य

भी प्रचुर व वैवध्य पूर्ण है। ख्यातें ,बातें ,पत्र -परवाने ,वंश वृतांत ,गप्पें ,ओखण (व्यंग ) आदि प्रसिद्ध हैं।

ख्यातों ,वंश वृतान्तो एवं पत्र -परवानो आदि में एतिहासिक चरित्रों ,घटनाओं व प्रसंगो का विवरण मिलता है।

और बात क्रम  में एतिहासिक व काल्पनिक दोनों प्रकार की रचनाये उपलब्ध होती  हैं। इस में बात साहित्य

 का बड़ा महत्व है। गद्य का यह अंग शिक्षित और अशिक्षित दोनों कोटि के जन मानस की रुचि तथा पसंद

 की वस्तु है।  वार्ता साहित्य विषय की दृष्टी से अति विस्तृत और वैविध्य पूर्ण है।  इसमें मानव समाज की

धार्मिक प्रवृतियों , राजनैतिक गुथियो ,मानसिक ऊहापोह ,एतिहासिक घटना -चक्रों के वृतांत ,प्रशासनिक

ज्ञातव्य,आदर्श नीति और उपदेश के अनेकानेक प्रसंग गुंफित हैं। इतना ही नही बल्कि लोक मानस की

भावनाये एवं रुचियों की समग्र परिचित प्रच्छन -अप्रच्छन रूप से बातों  में भरी पड़ी हैं।    बातों में मानव तो

क्या पशु पक्षियो ,देवी देवताओं तथा गन्धर्व ,यक्ष ,किन्नरों तक को मानव भाषा में बाते करते प्रगट किये गये

हैं। पशु पक्षि मानव भाषा बोलते हैं।  वे मानव पात्र की भांति अपने आश्रय दाता  की प्र्तुहता से रक्षा करते हैं।  

प्रवसन काल में सुख दुःख के सन्देश लाते लेजाते हैं। इस प्रकार पक्षियो का मानवीकरण कर मानव समाज

के मित्र एवं हितेषी के रूप में उनका चित्रण किया गया है।

बातों में युद्ध की भयानकता ,रूप सोंदर्य ,हास्य विनोद के गुद  गुदा देने वाले छींटे और वज्र कठोर हृदय तक को

पिघला कर द्रवित करने वाले अनेक प्रकरण प्राप्त होते हैं। करुना के स्वर बातों में अनेक स्थलों को भिगोते

मिलते हैं। बात साहित्य में करुणा के प्रसंग मोटे तोर पर कन्या की विदाई ,सास   ननद के कठोर व्यवहार

,सोतिया डाह,वंध्यापन का लांछन, पति वियोग ,ठग चोर ,दुराचारियों के कैतवपाश में पड़ जाने ,मिथ्या

आरोप और प्रियजनों की मृत्यु आदि के प्रसंगो में आते हैं।मृत्यु के विभित्स रूप का वर्णन भयावह होता है

परन्तु राजस्थानी साहित्य की यह अनूठी खूबी है की युद्ध में वीरगति प्राप्त प्रियजनों के प्रति विलाप करने का

वर्णन नही किया जाता है। रणस्थल की मृत्यु पर मांगलिक तथा वरेण्य रूप अंकित किया गया है। जुन्झारों

की मृत्यु पर क्रन्दन करने की राजस्थान की परम्परा नही है। युद्ध मृत्यु को शिवलोक ,ब्रह्मलोक ,विष्णुलोक

सूर्यलोक के अलौकिक वैभव के प्रदाता के रूप में चित्रित किया गया है। इस प्रकार युद्ध में वीरगति प्राप्त करने

के पिछे भारतीय दर्शन की परंपरा का परिपालन लक्षित होता है।

राजस्थानी भाषा की जिन बातों में एतिहासिक तथ्यों को आधार माना गया है उन बातों को "परबीती बात"

और जिन कहानियों में कल्पना के पंख लगाये गये उन्हें" घर बीती" के नाम से अभिहित किया।  ये दोनों दोनों

ही प्रकार की कहानिया ,राजस्थानी में हजारों की संख्या में कही -सुनी जाती हैं। सदियों तक मौखिक परम्परा

से ये कहानियां राजस्थानी जन मानस  में आशा ,अल्हाद, हर्ष -विषाद ,उत्साह-उमंग ,शिक्षा -सदाचार और

आमोद -मनोरंजन के भावों को वितरित करती रही है। राजा से रंक ,निर्धन से धनी ,  पंडित से अपंडित ,तक

समान रूप से जिन रचनाओं ने कौतुहल उत्पन्न  कर सम्मान प्राप्त किया ,उन रचनाओं  (बातों ) के लेखकों

का आज प्रयत्न करने पर भी नाम धाम का पता लगा पाना संभव नही है। ऐसी दशा में यह परिचित नही हो

पाता की इन कहानियों का जन्म कब हुआ  ? समय पर आलेख बद्ध नही होने के कारण कुछेक एतिहासिक

प्रसंगो वाली बातों के अलावा अन्य  के रचना काल ,रचना स्थान ,रचनाकार और रचना काल की भाषा पर भी

विचार नही किया जा सकता। यह तो केवल जन निधि है, जो जन कंठो पर अनुप्रमाणित है। राजस्थानी

कहानियां जन मुखों पर जीवित रही और उन के कहने वालों के कला कौशल से प्रसिद्धि प्राप्त कर सकी ,बस

यही इनकी प्राचीनता का अध्यावधि इतिहास माना जाता रहा है।

राजस्थानी बातों के कहने की भी अपनी एक प्रकार की पद्धति रही है। और वह यह कि श्रोता समाज के

अतिरिक्त "कहानी कहता " व  "समर्थन करता " दो मुख्य पात्रों पर यह कहानी चलती है। यदि समर्थन करता

जिसे हुंकारा देने वाला कहा जाता है समर्थन करने में एक बार भी ऊँघ गया तो कहानी का आनंद किर किरा हो

जाता है।

कहानी कहने की कला राजस्थान की कुछ जातियों का परम्परागत पेशा रहा है। जब राजस्थान के टीलों

,घाटियों, नालों और मैदानों में आबाद गांवों में अपनी वृति के लिए आये हुए 'बडवाजी' या इस कहानी कला

का कोई दक्ष वक्ता कलाकार शीतकाल की लम्बी रातों में गाँव के चौपाल की  'कंऊ' ( आज की भाषा में camp

fire  )  पर अपना आसन जमा कर जब बात कहना प्रारंभ करते थे ,तब अतीत राजस्थान के गर्वीले

एतिहासिक दिनों की ,रणबांकुरे कर्मवीरों की ,मर कर जीने वाले सपूतों की स्मृतियाँ ताजा बनकर कुछ काल

के लिए चित्र  पट की भांति नाच उठती थी। उस समय श्रोताओं के सामने अनेक घटित -अघटित ,लोकिक -

अलौकिक दृश्य घुमने लगते थे। श्रोता अपने को भूल कर अतीत की घटनाओं की भांति युद्ध क्षेत्रो में शत्रु सेना

पर प्रहार करने के भावों की अनुभूति करते जन पड़ते थे। और कहानी के भावों के साथ विचार लोक में

 विचरण करते दिखाई पड़ते थे।  ये सारी  वास्तु स्थिति ,भावाधाराएँ कहानी कहने वाले की निपुणता ,उसके

भाव प्रदर्शन ,कथा के ओज ,प्रसंग व ऊंचे निचे स्वर तथा क्रोध और करुणा आदि भावों के प्रकट करने की

प्रणाली से होता था।

सांयकाल भोजन के बाद गाँव के छोटे बड़े सभी वार्ता प्रेमी ग्रामवासी  लोग चौपाल या अन्य जगह जहाँ कहानी

कथा कहने का स्थल होता ,वहां कहानी वक्ता के इर्द गिर्द आ बैठते और हुंकारा देने वाला भी सावधान होकर

वार्ता कार के सामने जम कर बैठ जाता था। वार्ता कार श्रोताओं का ध्यान कथा वस्तु पर केन्द्रित करने के

लिए खानी प्रस्तावना प्रारम्भ करते हुए कहने लगता -

'एक उजाड़ !   उठै बड़ रो बिरछ !उण पेड़ रै एक लाम्बो डालो ! जिण माथै हजारों पंखी सूता अर दोय पंछी जागै!

उण में एक तो चकवो अर दूजी चकवी ! गुमसुम बैठ्याँ रात न कटती देख चकवी बोली - कहने चकवा बात ,

कटेज्यूँ रात ! ' जद चकवो  बोली -घर बीती कंहू कै पर बीती  ? चकवी बोली आज तो पर बीती ही कह घर 

बीती तो सदा ही कह है। '

इस प्रकार बात की बात में 'बात ' चल पडती है। वक्ता कहता जाता है ,हुंकारा देने वाला हुंकारा देता जाता है

और श्रोता मन्त्र मुग्ध हो कर बात का रस लेते जाते हैं। बात बरसाती सरिता की तरह घुमती ,मचलती ,

इठलाती बल खाती उतार चढाव के साथ चलती ,बात के बीच बीच में दोहे सोरठे उसकी रोचकता का बढ़ाते

रहते हैं।  वीर पुरषों के मरण कर्तव्य ,सत पुरषों का अल्पकालीन जीवन होने पर भी कीर्ति अमर  रहती है

इसी का प्रतीक बात में प्रयोग होने वाला  दोहा द्रष्टव्य है -

मरदां मरणो हक्क है , ऊबरसी गल्लांह।

संपुरुसा रा जीवणा ,  थोडा ही भल्लाह।।

और   साथियों  के साहस की बात भी सुनिए -

हूँ बलिहारी साथियां , भाजे नही गयाह।

छिणा मोती हार जिम , पासे ही पडीयाह।।

बात की एतिहासिकता और काल्पनिकता की सूचना जिस प्रकार 'परबीती ' और 'घरबीती ' से  दे दी जाती है।

उसी प्रकार बात लम्बी है या छोटी -यह सुचना भी अवतरणिका में ही दे दी जाती है।  बात लम्बी और दो चार

रात चलने वाली होती है तो कुछ ऐसी पंक्तियाँ कही  जाती हैं।

" कीड़ी की लात ,मान्छर को धको , हाथी पर घात बचै तो बचै नही मरै परभात।  कैर को काँटों साढ़ी सोलह हाथ। "

बात के समय समर्थन व समर्थन कर्ता हुंकारा देने वाले के प्रति भी कहा गया है -

"बात कहताँ बार लागे , बात मै हुंकारों लागे। 
हुंकारे बात मीठी लागे , फौज में नागारो बाजै। 
कडंग ध्री कडंग ध्री , दाल बाटी ऊपर घी।

बात कहने वाला श्रोताओं को भी बात तल्लीनता से सुनने तथा निद्रा से सावधान रहने की हिदायत देता हुये कहता है -

इसे समय बातां का रंग धोरा लागे। 
कोई नर सोवे और कोई नर जागे। 
सूतोड़ा की पाघडी , जागता ले ले भागे। 
जागतां की पाघडी , ढोलिया के पागै। 
जिवोजी बात को कहणीयो ,जिवोजी हुंकारे को देणीयो। 
बात को चालणो , संजोग को पीवणों।।

इस तरह की अवतरणिका के साथ ये बातें चलती थी। वर्षों से चली आ रही यह मौखिक बात परम्परा अब राजस्थान से लुप्त प्राय हो चुकी है। अब न तो चौपालों पर जमघट दिखाई देता है और न ही बातों के वे ओजस्वी वक्ता रहे।

(यह लेख श्री सौभाग्य सिंह जी शेखावत -भगतपुरा का रणबांकुर से उध्रत )


















Thursday, August 15, 2013

सवाई जयसिंह का व्यक्तित्व एवं कृतित्व

( यह लेख जयपुर समारोह के परिपेक्ष में  ठा . सुरजन सिंह जी शेखावत -झाझड द्वरा लिखा गया था व रणबांकुर मासिक पत्रिका के दिसम्बर १ ९ ९ २  के अंक में प्रकाशित हुआ है। )

जयपुर जैसे अद्वितीय महानगर के निर्माता महाराजा सवाई जय सिंह के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर सक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कर देना यहाँ पर विषय सम्बन्ध होगा। सवाई जयसिंह की महान उपलब्धियों ने उसे भारत वर्ष का अपने समय का एक महान इतिहास पुरुष और राजनेता बना दिया था।
                 झुंझुनू और फतेहपुर के मरुस्थलिये कायामख्यानी नवाबी राज्यों के विजेता और अपनी वीरता के लिए सुप्रसिद्ध सेखावतों को मुग़ल नियत्रण से मुक्त करा कर महाराजा सवाई जयसिंह ने अपने करद राज्य व सहायक सामंतो के रूप में प्रस्थापित कर दिया था। इसी प्रकार जांगल प्रदेश के बीकानेर एवं लोहारू राज्यों  की सीमाओं को छुता शेखावाटी का विस्तृत मरू प्रदेश जयपुर राज्य के संरक्षण में आ चूका था। दक्षिण में नर्मदा नदी के तट तक सवाई जयसिंह के राजनैतिक प्रभुत्व और प्रभाव का डंका बज रहा था। मेवात में चुडामण जाट और उस के पुत्र मोहकम सिंह के आतंक का अंत करके जयसिंह ने उसके भतीजे बदन सिंह को प्रश्रय दिया और उसे चुडामण के राज्य का सर्वेसर्वा स्वामी बना दिया। इस सहायता और समर्थन के बदले में बदन सिंह आजीवन जयसिंह का कृतज्ञ राजभक्त एवं सहायक सामंत बना रहा। दिल्ली के सम्राट द्वारा प्रदत उपाधि और सम्मान की उपेक्षा करता हुआ बदन सिंह सवाई जयसिंह को ही अपना स्वामी तथा सहायक मानता था। प्रत्येक वर्ष मनाये जाने वाले विजयदशमी के दरबार में वह जयपुर जाता और राजा को नजर भेंट करता था। उसका पुत्र सूरजमल भी सवाई जयसिंह का राजभक्त व वफादार बना रहा। जब कभी जय सिंह डीग या भरतपुर के नजदीक होकर गुजरता तो सूरजमल एक विनम्र जागीरदार के रूप में उसके सामने उपस्थित होता और अपने प्रसिद्ध किलों की चाबियाँ उसके सामने रख कर कहता था - यह सब सम्पति आप की ही दी हुई है। ये सब उस  सहायता एवं  उपकार के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के रूप में किया जाता था।     

Wednesday, August 14, 2013

राव शेखा व उनकी सन्तति

                               राव शेखा व उनकी सन्तति 
राव शेखा के बारह पुत्र थे जिनमें चार न ओलाद गये , शेष आठों पुत्रो के वंशज शेखावत कहलाते हैं।  उनमे सबसे जेष्ठ दुर्गा जी थे , किन्तु शेखा जी की मृत्यु के उपरान्त  अमरसर की राज गद्दी पर उनके छोटे पुत्र  रायमल जी बैठे।
१. दुर्गाजी इनके वंशज अपनी माता टांकण जी के नाम से टकनेत कहलाये।  इस वंश में अलखाजी अपने समय के परम ईश्वर भक्त व आदर्श व्यक्ति थे।  ये खंडेला राजा गिरधर दास के प्रधान थे।इनके वंशज पिपराली ,खोह , गुंगारा ,अजाडी, तिहावली , जांखड़ा, और भाकरवासी  में बसते हैं।  माधोदास जी के वंशज खोरी ,मंडवरा तथा बाजोर में हैं। सकत सिंह जी के वंशज बारवा ,तिहाय, बाय, ठेडी तथा पिलानी में बसते हैं। अलखा जी के ही वंश की एक शाखा चुरू में है।

२. रतनाजी ये शेखा जी के  द्वितीये पुत्र थे। इनके वंशज रतनावत शेखावत कहलाते हैं।  बैराठ के पास के प्रागपुरा ,पावटा ,बाघावास ,राजनोता ,भूनास ,ठिसकोला ,भामरु गुढ़ा ,जयसिंह पुरा , बडनगर ,जोधपुर आदि में हैं।  शेखाजी द्वारा हरियाणा के चरखी ,दादरी,भिवानी आदि स्थानों पर आक्रमण के समय रतनाजी अद्भुत वीरता प्रदर्शित की , शेखाजी ने वहां जीते ग्रामो का अधिकार रतनाजी को दे दिया। सतनाली के पास के ग्रामो के समूह को रतनावतो का चालीसा कहा जाता है। रतनाजी की एक पुत्री का विवाह जोधपुर राव मालदेव के साथ हुआ था।

३. भरतजी। ४. तिलोकजी।  ५. प्रतापजी।  - निसंतान थे

६. आभाजी अपनी माताजी के बसाये हुए ग्राम मिलकपुर में बसने से मिलकपुरिया कह लाये

७. अचलाजी भी अपने भाई के साथ मिलकपुर में रहते थे सो इनके वंशज भी मिलकपु रिया ही कहलाते हैं।
८. पूरण जी ये घाटवा के युद्ध में शेखाजी के साथ ही लड़ते हुए मारे गये, यह भी निसंतान थे।

९. रिडमलजी -खेजडोली गाँव में बसने से इनके वंशज खेजडोल्या शेखावत कहलाते हैं।

१०. कुम्भा जी के वंशज सतालपोता कहे जाते है पर बाद में इन्हें भी खेजड़ोल्या ही कहा जाने लगा। यह भी खेजड़ोली गाँव में ही रहते थे।  इनकी कोटडिया सीकर के बेरी ,भूमा छोटा ,बासणी ,कटेवा ,भोजासर ,रासू  बड़ी,जेइ पहाड़ी ,सेणु सर ,नवलगढ़ के पास खेजड़ोल्या की ढाणी  आदि गाँवो में है।

११. भारमल जी इन के वंशज भी खेजड़ोल्या ही कहे जाते है।  किन्तु इनके बड़े पुत्र बाघा के वंशज बाघावत कहलाते हैं। ये भरडाटू , पालसर , ढाकास,गरडवा,पटोदा आदि गाँवो में हैं।

१२.राव  रायमल जी - ये शेखाजी के सबसे छोटे पुत्र थे अमरसर का राज्याधिकार इन्हें मिला।  घाटवा के युद्ध में गोड़ो की पराजय हुई किन्तु शेखाजी इस युद्ध में  अत्यंत घायल हो चुके थे।घाटवा से ये सेना सहित रात्रि विश्राम के लिए जिण माता के ओयण के पास रलावता में डेरा किया।  शेखाजी ने अपना अंतिम समय नजदीक समझ कर अपनी ढाल व तलवार रायमल जी को सौंपकर  अमरसर का राज तिलक देने की इच्छा प्रकट की।
रायमल जी शेखावत वंश परम्परा में सर्वाधिक शक्तिशाली और महत्व पूर्ण व्यक्ति हुए हैं। शेरशाह सूरी का पिता मिंया हसनखां इनकी सेना में चाकरी करता था।

इनके ६ पुत्र थे जिनमे जेष्ठ  सुजा जी को अमरसर का राज मिला।

१.  तेजसी के वंशज तेजसी के शेखावत कहलाते है व अलवर जिले के नारायणपुर ,गढ़ी ,मामोड़ और बाणासुर के गाँवो में हैं।

२. सहसमल जी को १२ गांवों से सांईवाड की जागीर मिली थी ,इन के वंशज सहसमल जी के शेखावत कहलाते हैं। इनकी एक पुत्री (मदालसा देवी )  का विवाह आमेट के रावत पत्ताजी चुण्डावत से हुआ था जिन्होंने चितोड़ के तीसरे शाके का नेतृत्व किया था।

३. जगमाल को १२ गाँवो से  में हमीरपुर व हाजीपुर की जागीर मिली जो अलवर जिले में हैं। जगमाल का पुत्र दुदा वीर व उदार राजपूत था उसकी प्रसिधी के कारण इन के वंशज दुदावत शेखावत कहलाते है।

४. ५. सीहा व सुरताण के बारे में कोई जानकारी नही है।

राव सुजा जी : ये अमरसर की गद्दी पर बैठे।  इनके ६ पुत्र हुये।  इनमे लुणकरण जी जेष्ट पुत्र थे और वे ही अमरसर की गद्दी पर बैठे।

. लुणकरण जी के वंशज लुणकरण जी का शेखावत कहलाते हैं। इनके पुत्रो व प्रपोत्रों  के नाम पर सावलदास का ,उग्रसेनण जी का , अचलदास जी का आदि हैं। इनके छोटे पुत्र मनोहरदास जी अमरसर के शासक हुए।
इस समय खेजडोली ,महरोली ,ढोड्सर, करीरी , दोराला गुढ़ा ,सांगसर,सिंगोद छोटी बड़ी जुणस्या व सीकर के पास सबलपुरा आदि व रुन्डल मानपुरा ,लालसर बावड़ी ,रामजीपुरा व झुंझुनू जिले के कई गाँवो में सांवल दास जी के शेखावत है।

 राजा रायसल ये रायमल जी के द्वितीय पुत्र थे।  इन्हें अमरसर से गुजरे की लिये लाम्याँ की छोटी से जागीर दी गयी थी किन्तु यह अपने बहुबल से अपने पैत्रिक राज्य अमरसर के बराबर एक दुसरे राज्य के शासक बन बैठे। इन्होने निरबाणो व चंदेलों का पराभव कर खंडेला ,उदयपुर ,रैवसा और कासली पर अधिकार कर लिया

राजा रायसल के १२ पुत्रो में से सात का वंश चला।  ये सभी रायसलोत शेखावत है और इन्ही से सात प्रशाखाओं का विकास हुआ।

१. लाड़ा जी ये रायसल जी के जेष्ट पुत्र थे किन्तु इन को खंडेला की राजगद्दी नही मिली।इनका नाम लाल सिंह था।  सम्राट अकबर इन्हें प्यार से लाडखां कहता था।   इनके वंशज लाडखानी शेखावत है। खाचरियावास ,रामगढ़ ,लामियां ,बाज्यवास ,धीगपुरा ,लालासरी,हुडिल ,तारपुरा ,खुडी निराधणु ,रोरु ,खाटू ,सांवालोदा ,लाडसर लुमास डाबड़ी ,दिणवा,हेमतसर आदि  लाडखानियो के गाँव है।

२.भोजराज जी : इनको उदयपुर वाटी के ४५ गाव जागीर में मिले थे। इनके वंशज भोजराज जी का कहलाते है। भोजराज जी के प्रपोत्र शार्दुल सिंह जी ने क्यामखानी नवाबों से झुंझुनू छीन ली तो झुंझुनू वाटी का पूरा प्रदेश इन के  कब्जे में आ गया ये सादावत कहलाते है। झाझड ,गोठडा ,धमोरा ,चिराणा ,गुढ़ा  ,छापोली ,उदयपुर
वाटी ,बाघोली ,चला ,मनकसास,गुड़ा ,पोंख,गुहला ,चंवरा ,नांगल ,परसरामपुरा आदि इन के गाँव है जिसको पतालिसा कहा जाता है।  शार्दुल सिंघजी के वंशजो के पास खेतड़ी ,बिसाऊ ,सूरजगढ़ ,नवलगढ़ ,मंडावा डुड़लोद  ,मुकन्दगढ़ ,महनसर चोकड़ी ,मलसीसर ,अलसीसर आदि ठिकाने थे.

३. तिरमल जी इन के वंशज राव जी का शेखावत कहलाते है। इनके सीकर व कासली दो बड़े ठिकाने थे। शिव सिंह जी ने फतेहपुर कायमखानी मुसलमानों से जीत कर सीकर राज्य में मिला लिया।  टाड़ास, फागलवा ,बिजासी ,खाखोली ,पालावास ,तिडोकी ,जुलियासर ,झलमल ,दुजोद ,बाडोलास ,जसुपुरा ,कुमास ,परडोली ,सिहोट ,गाडोदा , बागड़ोदा,शेखसर सिहोट ,माल्यासी ,बेवा ,रोरु,श्यामगढ़ ,बठोट ,पाटोदा ,सखडी ,दीपपुरा आदि राव जी का शेखावतो के गाँव है।

४. हरिरामजी के वंशज हरिरामजी  का शेखावत कहलाते है।  मूंडरु, दादिया ,जेठी आदि इनके गाँव है।   

५. राजा गिरधर जी - ये रायसल जी के छोटे पुत्र थे किन्तु खंडेला की राजगद्दी इन्ही को मिली। इनके वंशज गिरधर जी का शेखावत कहलाते है।  खंडेला के अलावा दांता व खुड इनके मुख्य ठिकाने हैं।  राणोली ,दादिया ,कल्याणपुरा ,तपिपल्या कोछोर ,डुकिया ,भगतपुरा ,रायपुरिया ,तिलोकपुरा ,सुजवास ,रलावता ,पलसाना बानुड़ा ,दुदवा ,रुपगढ़,सांगल्या ,गोडीयावास,जाजोद ठीकरिया ,बावड़ी आदि गिरघर जी के शेखावतो के गाँव हैं।

(सन्दर्भ ग्रन्थ  :राव शेखा -ठाकुर सुरजन सिंह झाझड  )