Monday, September 30, 2013

सर प्रतापसिंह तखतेश -पुत्र की सहनशक्ति



सर प्रताप सिंह जोधपुर के महाराजा तख्त सिंह के छोटे बेटे थे ,पर

जोधपुर में पहले कचहडियां व सचिवालय गुलाबसागर तालाब पर राजमहल में थी। एक बार तालाब भरा नही। खाली तालाब देख कर सर प्रताप बोले 'तालाब क्यों नही भरा अबकी बार '  तो उनके चहते व स्पष्ट वक्ता बारहठ भोपाल दान जी ने कहा :

कने आं रै कचेडियाँ  , तीण सूं खाली तलाव !
का डेरा कागा करो , का भेजो भांडेलाव !!

कचेडीयों( यानि सचिवालीय या कोर्ट ) इस तालाब के पास होने से यह हालत है क्यों की यहाँ न्याय नही अन्याय होता है।सो इन को कागा या भांडेलाव में शिफ्ट करदो (दोनों ही शमशान थे ) जिस से अफसरों को अपना अंतिम स्थान पता रहे।

गुसे में कही गयी बात उपयुक्त नही थी सो उन्होंने  दूसरा दोहा कहा -

बाडो बड़ो घिरावदो , दरवाजा सूं दूर  !
करवाओ उठे कचेडियां, शहर सवायो नूर

           जीवन कर्म सहज भीषण है ,
            उसका सब सुख केवल क्षण है,
             यधपि लक्ष्य अदृश्य धूमिल है ,
             फिर भी वीर ह्रदय  ! हलचल है।
             अंधकार को चीर अभय हो ,
              बढ़ो साहसी ! जग विजयी हो।

                          ( स्वामी विवेकानन्द )

Sunday, September 29, 2013

मुगलों के समय रियासतों के प्रतिनिधि आगरे में रहते थे जिन्हें वकील कहा जाता था ,इन का काम आज के राजदूतो जैसा था। ये लोग अपने राजा व मंत्री को दरबार की गतिविधियों के बारे में सूचित करते रहते थे। 
एक पत्र प्रकाल दास का कल्याण दास को शुक्रवार 23 फरवरी 1666 ई. का -
"शाहजहाँ की मोत इस तरह हुई। पहले वे बीमार हुये ,फिर ठीक हो रहे थे उसने फरमाया 'अब हम नहायेंगे 'और कहा कि ओरंगजेब को लिखो कि तबियत बिगड़ी हुई है। ओरंगजेब ने एक ऐसा हकीम भेजा ,उसने शाहजहाँ  को अर्ज पहुंचाई कि बिना तेल मत नहाना ,भेजे हुए तेल की पहले मालिश करना ,जिस से शरीर में ताकत आये ,उस ने तेल बना कर सुबह भेजा ,उस तेल को लगते ही बादशाह के शरीर की त्वचा फट गयी ,उसमे जहर मिला था। 
बादशाह के पास ओरंगजेब ने अपने बेटे आजम को भेजा था ,वह एक दिन ठहरा ,मृत्यु काल के समय भी वह बादशाह के पास नही आया। खोजे फुम यहाँ था ,यह नाजर था व आगरे का किलादर था। उसने रात में मोरी दरवाजे सेअपमानित अवस्था में जनाजा निकाला।  उमरावो ने कंधा नही दिया और कहारों के कन्धो पर ताबूत देकर बाड़े में लाकर रखा और ताजमहल के मकबरे में गाडा।  

Thursday, September 26, 2013

इतिहास के बारे में क्यों जाने ?

बहुत से व्यक्तियों की यह धारणा है ,की इतिहास के अध्ययन से हमे क्या लाभ ? अतीत में जो हुआ वह बीत गया उसे पढना समय का दुरुपयोग है। कुछ लोग कहते है हुए होंगे पूर्वज ऐसे पर आज के सन्दर्भ में इस का क्या उपयोग? आर्थिक युग है सो समय पैसे कमाने में लगाओ। अत: यह विचारणीय बिंदु है कि इतिहास के अध्ययन व मनन से कोई लाभ है या नही।

इतिहास के अध्ययन से हमे ज्ञात होता है कि हमारे पूर्वजो ने क्या -क्या महान कार्य किये ,वे इतने महान कैसे हुए और उनकी इस महानता का रहस्य क्या था। इस से यह चेतना उत्पन होती है की फिर उन के पद चिन्हों पर चल कर मैं क्यों न प्रभावशाली व महान बनने का प्रयत्न करूं।

रामायण ,महाभारत ,गीता आदि सभी ग्रन्थ भी इतिहास ही तो हैं। महान विद्वानों की जीवनिया भी इतिहासिक ग्रन्थ ही हैं , जिन से हम प्रेरणा लेने की बात करते हैं। भगवान महावीर और चोबिसों तीर्थंकरों की जीवनी व उपदेश ,भगवान बुद्ध की जीवनी व उनके भ्रमण स्थल व उपदेश ,सिख गुरुओं की वाणी उनके कार्यकलाप ,उनके बलिदान इतिहास के अंग ही तो हैं।

इसीलिए जब व्यक्ति को अपने कुल गोरव व वंश परम्परा का ज्ञान होता है तो वह घृणित कार्य करने से पहले ,कोई भी ओछी हरकत करने से पहले सोचेगा जरुर। उसकी आत्मा उसको गलत काम ,मर्यादा विहित आचरण की आज्ञा नही देगी। ऐसे अनेक उधाहर्ण हैं जब देश व धर्म के लिए प्राण उत्सर्ग करने का समय आया तो इसी इतिहास के ज्ञान व वंश के गोरव ने आसन्न मृत्यु के समय भी रण विमुख नही होने दिया।

लार्ड मैकाले का कहना था " जिस जाती को गिरना हो या मिटाना हो उसका इतिहास नष्ट कर दो,वह जाती स्वयम ही मिट जायेगी। " यह ठीक भी है, जिस जाती या व्यक्ति को अपने पूर्वजो के इतिहास का भान व गर्व नही होता वे निचे गिरने से कैसे बच सकते है। शक ,सीथियन व हूण इस देश में आये पर उन्हें अपने पूर्व पुरषों का ज्ञान खत्म हो गया और आज उनका कोई नामो निशान भी बाकी नही है। दूर क्यों जाये ,आमेर पर मीणो का अधिकार था।  कछवाहो ने मीणों को  सत्ता च्युत कर आमेर पर कब्ज़ा कर लिया। उसके बाद उन्हें अपने शासक होने का बोध खत्म हो गया व आज वे अनुसूचित जन जाती में शामिल हो गये।

ठा. सुरजन सिंह जी झाझड ने अपनी पुस्तक "राव शेखा " की प्रस्तावना में लिखा है -"इतिहास इस सत्य का साक्षि है कि गिरकर पुन: उठने वाली जातियों व राष्ट्रों ने सदैव अपने अतीत से  चेतना व प्रेरणा ग्रहण की है। जिस जाति और राष्ट्र का अतीत महान है ,उसका भविष्य महान होने की कल्पना आसानी से की जा सकती
है। राष्ट्र के अतीत की झांकी उसके इतिहास में मिलती है। इतिहास के माध्यम से वर्तमान पीढ़ी अपने पूर्वजों के महान कार्यों का मुल्यांकन कर सकता है। जिस जाति अथवा राष्ट्र के पास अपना इतिहास नही ,वः दरिद्र है या यों कहिये कि उसके पास अपने पूर्वजों की संचित निधि नही है। उसके लिए अपनी सभ्यता ,संस्कृति और पूर्वजों पर अभिमान करने के लिए कोई आधार नही। अत: राष्ट्रिय जन जीवन में इतिहास की अनिवार्यता शाश्वत सत्य के रूप में विद्यमान है एवं रहेगी। "

इसी पुस्तक की समीक्षा करते हुए डा.कन्हैया लाल जी सहल ने लिखा - "स्मरण शक्ति खो जाने पर जो हालत किसी व्यक्ति की होती है ,वही  हालत उस राष्ट्र की होती है ,जिसके पास अपना इतिहास नही। मेरी दृष्टी में किसी देश की स्मरण शक्ति का नाम ही इतिहास है। शेखाजी का इतिहास शेखावाटी की स्मरण शक्ति का ही नाम है। "

स्वामी विवेकानंद जी ने 23 जून 1894 ई. को शिकागो से एक पत्र राजा अजीत सिंह जी खेतड़ी को लिखा उसमे इतिहास की अनिवार्यता व महत्व को उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त किया है -" जिस दिन भारत संतान अपने अतीत की कीर्ति कथा को भुला देगी ,उसी दिन उसकी उन्नति का मार्ग बंद हो जायेगा। पूर्वजों के अतीत पूण्य कर्म आने वाली संतान को सुकर्म की शिक्षा देने के लिए अत्यंत सुंदर उद्धाह्र्ण है। जो चला गया वही  भविष्य में आगे आवेगा। " 




Wednesday, September 25, 2013

चेतावनी के चूंटक्या -रचना की एतिहासिक पृष्ठ भूमि

सन 1903 ई में वायसराय लार्ड कर्जन द्वारा आयोजित दिल्ली दरबार में मेवाड़ महाराणा फतह सिंह को सम्मिलित होने से रोकने के लिए प्रसिद्ध क्रन्तिकारी बारहठ केशरी सिंह ने उन्हें सम्बोधित कर 'चेतावनी रा चूंगट्या ' नामक कुछ उद्बोधक सोरठे लिखे जिसके फलस्वरूप महाराणा फतह सिंह दिल्ली जाकर भी दरबार में शामिल हुए बिना उदयपुर लोट गये। महाराणा के इस अप्रत्याशित आचरण ने अंग्रेज हुक्मरानों में एक सनसनी तथा देश भक्त स्वाधीनता सेनानियों में राष्ट्रीयता की एक नई लहर पैदा कर दी थी। उक्त घटना से प्रायः सभी साहित्य एवम इतिहास प्रेमी पाठक परचित है, परन्तु बारठ केसरी सिंह को इन सोरठों के सृजन की प्रेरणा किससे व कैसे मिली ,यह इतिहास का एक अज्ञात नही ,तो अल्पज्ञात रहस्य है ,जिसकी हमारे स्वाधीनता आन्दोलन के सन्दर्भ में प्रमाणिक जानकारी वांछनीय है। इस को लिखने की प्रेरणा राजस्थान के एक कट्टर देशभक्त और स्वाभिमानी नरेश सहित कुछ प्रबुद्ध व राष्ट्रिय विचारधारा के पोषक सामन्तो ने दी थी।
कैसी विडम्बना है कि उस महत्वपूर्ण राजनैतिक घटना के असली सूत्रधार और मंत्रदाता इतिहास के नेपथ्य में छिपे पड़े है और हमे केवल रचियता कवी के नाम का ही स्मरण रह गया है।

कौन थे उक्त घटना के सूत्रधार  जिन्होंने महाराणा को दिल्ली दरबार में शामिल होने से विरत करने की योजना बनाई ? वे थे कट्टर देशभक्त और महास्वभिमानी अलवर नरेश जय सिंह ,जिनकी प्रेरणा से ही बारहठ केशरी सिंह ने उक्त उद्बोधक सोराठो की रचना की।

विदित हो कि नवयुवक महाराजा जयसिंह अलवर ,राष्ट्रभाषा हिंदी के अनन्य संरक्षक एवं परम देश भक्त नरेश थे। अंग्रेजी राज के कट्टर विरोधी थे किन्तु परिस्थितिवश उसका सक्रीय प्रतिरोध नही कर पा रहे थे। उनकी इस ब्रिटश विरोधी नीति के कारण अंग्रेजी हकुमत उनसे खार खाए बैठी थी ,जिसकी परणीती अंतत  उनके राज्य निष्कासन के दंड में हुई,जिसके चलते वे अलवर छोड़ कर पेरिस चले गये ,वंही उन की मृत्यु हुयी।

उक्त अलवर नरेश ने जयसिंह ने जब सुना कि मेवाड़ के महाराणा दिल्ली दरबार में सम्मिलित होने के लिए सहमत हो गये है तो उन के मन को बहुत ठेस पंहुची। 'हिन्दुवा सूरज 'का विरुद धारण करने वाले तथा स्वतंत्रता के लिए आजीवन संघर्ष करने वाले राणा प्रताप के वंशधर के लिए यह बात उन्हें सर्वथा अशोभनिये व मर्यादा विरुद्ध प्रतीत हुई।  फलत: उन्होंने अपने परम विश्वस्त एवं योग्य मंत्री कानोता के ठाकुर नारायण सिंह चंपावत को जयपुर भेजा ताकि वे कोटा से बारहठ केसरी सिंह को बुलाये तथा जयपुर के कुछ वरिष्ठ एवं राष्ट्रिय विचार धारा के सरदारो से सम्पर्क कर महाराणा को दिल्ली दरबार में जाने से रोकने का हर सम्भव उपाय करें।

इसके बाद केसरी सिंह के जयपुर आने पर ठाकुर भुर सिंह मलसीसर के स्टेशन रोड स्थित डेरे पर मीटिंग हुई।,इस में  ठा.नारायण सिंह कानोता ,बारहठ केसरी सिंह, ठा.भूर सिंह मलसीसर,ठा.कर्ण सिंह जोबनेर ,राव गोपाल सिंह खरवा ,राजा सज्जन सिंह खंडेला ,एवं ठा.हरी सिंह खाटू मुख्य थे। इन सब ने मिलकर यह निर्णय लिया कि बारहठ केसरी सिंह कोई ऐसे उद्बोधक दोहे लिखे जिसे पढ़ कर माहाराणा दिल्ली दरबार में सम्मिलित होने का विचार त्याग दें। उन्होंने केसरी सिंह को कहा ' चारण सदा से ही क्षत्रियो को अपने कुलधर्म का स्मरण कराते आये हैं ,आप चारण कुल के रत्न है. अत : इस अवसर पर कर्तव्य बोध की भूमिका आप ही निभाए। '

बारहठ जी ने जो सोरठे लिखे व बहुत ही उद्बोधक है यह एक कालजयी रचना है।

इस को महाराणा के पास पंहुचाने का बीड़ा राव गोपाल सिंह खरवा ने लिया और यह पत्र लेकर ने तत्काल खरवा के लिए रवाना हो गये। वहां पंहुचने पर उन्हें पता चला कि महाराणा की स्पेशल तो दिल्ली के लिए प्रस्थान कर चुकी है। यह जान उन्होंने अपने एक विश्वस्त व्यक्ति को अविलम्ब 'सुरेरी ' के लिए रवाना किया जहाँ स्पेसल ठरने वाली थी।

महाराणा ने  जब यह पत्र पढ़ा तो उसका एक एक शब्द  उनके सर्वांग को दग्ध कर उठा। उन्हें अपने यशस्वी पूर्वजों राणा सांगा व प्रताप की शोर्य गाथाओं का स्मरण हो आया और उन्हें स्मरण हो आया राणा प्रताप का दिल्ली स्वर के सामने नतमस्तक न होने का अटल संकल्प।

यों भी महाराणा फ़तेह सिंह बहुत ही स्वाभिमानी थे। अंग्रेज रेजिडेंट उनसे सहमता था। एक बार अंग्रेज सरकार ने उन्हें सी. एस.आई. की उपाधि प्रदान की तो उन्होंने इस को लेने से इनकार करते हुए कहा 'ऐसा बिल्ला तो चपरासी पहनते हैं। '

महाराणा पशोपेश में पड गये ,मन में घोर अंतरद्वन्द उठ खडा हुआ। यधपि पत्र की तत्कालीन प्रतिक्रिया उन्हें वहीं से उदयपुर लोट चलने को प्रेरित कर  रही थी किन्तु उनके अनुभवी सलाहकारों ने सलाह दी की यह सम्भव नही है और न नीति सम्मत ही। अंतत : महाराणा ने निर्णय लिया की दिल्ली जायेंगे पर दरबार में हिस्सा नही लेंगे। दिल्ली पहुंचते ही अलवर नरेश जय सिंह ने उनसे भेंट कर उन्हें दिल्ली दरबार में शामिल न होने का पुरजोर आग्रह किया।  महाराणा दिल्ली दरबार में शामिल हुए बिना उदयपुर लोट गये।

अंग्रेज  सरकार लहू का घूंट पीकर इस के विरुद्ध कारवाई नही कर पायी क्यों कि बाकि राजा लोगों ने कहा की अगर कोई कार्यवाही हुई तो स्थिति विस्फोटक हो जाएगी।

महाराजा अलवर के परम विश्वास पात्र अक्षय सिंह जी रत्नू  ने इस एतिहासिक प्रसंग का अपने "केसरी-प्रताप चरित्र " नामक काव्य में विस्तार से वर्णन किया है। इस से आम लोगों में प्रचलित तथा कुछ तथाकथित प्रगतिशील लेखकों व अवसरवादियों द्वारा प्रचलित इस भ्रांत धारणा का भी खंडन होगा कि राजस्थान के रजवाड़े राष्ट्रिय विचारधारा से शून्य और अंग्रेजों के हिमायती थे।

( उपरोक्त लेख डा. शम्भू सिंह जी का 'रणबांकुरा ' के अक्तूबर अंक में छपा था। इस सम्बन्ध में मैं ने मेरे  पिताजी ठा.सुरजन सिंह जी से भी काफी सुना था क्यों की उनका इन सभी सरदारों से घनिष्ट व निकट का सम्बन्ध था। )







Tuesday, September 24, 2013

दोहे व उन का सन्दर्भ

रहीम बहुत ही उदार व दानी था। अकबर के  नवरत्नों में था। अछा कवी था। एक दफा कवि  गंग उन से मिलने आये तो उसने कवि को काफी सम्मान व दान दक्षिणा दी -तो गंग ने एक कवित कहा ,जिसका अभिप्राय था की हे नवाब तुमने ऐसा देना कहाँ सीखा कि जैसे -जैसे तुम्हारे हाथ देने के लिए उपर उठते हैं तुम्हारी आँखे नीची हो जाती हैं ,जब कि देने वाले का सिर तो घमंड से ऊँचा उठा रहता  है।

सीखे कहाँ नवाब जू ,ऐसी देनी दैन।
ज्यों ज्यों कर ऊँचो उठे ,त्यों त्यों नीचे नैन।।

रहीम ने जो उतर दिया वह उसकी उदारता व स्वभाव के अनुकूल ही था -कहता है कि देने वाला तो उपर वाला है और लोग मुझ पर भ्रम करते है ,बस यह सोचकर ही आँखे नीची हो जाती हैं।

देनहार कोई और है ,देत रहत दिन रैन।
लोग भ्रम मो पे धरे ,ताते नीचे नैन।।

शांहजहाँ  रहीम से नाराज रहता था  और जब बादशाह बना तो उस ने रहीम खानखाना से जागीर छीन ली। रहीम निर्धन हो गया  व चित्रकूट चले गया। और कहा की जिस पर विपदा पडती है वह चित्रकूट आता है यहाँ अवध नरेश राम रमते है -

चित्रकूट में रम रहे ,रहिमन अवध नरेश।
जा पर विपदा परत है ,सो आवत यही देश।।

मांगने वालों  ने यहाँ भी उसका पीछा नही छोड़ा तो उन से उस ने कहा कि अब म वो रहीम नही रह गया हूँ मैं भी  दर दर फिर कर मांग कर भोजन कर  रहा हूँ

वे रहीम दर दर फिरे , मांग मधुकरी खान्ही।
यारो यारी छोड़ दो , वे रहीम अब नांही।।

  

Sunday, September 22, 2013

कर्नल टॉड का शेखावाटी के सम्बन्ध में अपनी पुस्तक "राजस्थान का इतिहास "में उल्लेख -

कर्नल टॉड को १८१८ ईस्वी में उदयपुर में ईस्ट इंडिया कम्पनी का रेजिडेंट नियुक्त किया गया जहाँ वह १८२२ ईस्वी तक रहा।  यहाँ रहते हुए उसने अपने गुरु जैन यति ज्ञानचन्द्र की सहायता से संग्रहित चारण भाटों की ख्यातों ,दंत कथाओं और वंशावलियों तथा शिलालेखों आदि का अर्थ समझ कर अपनी भाषा में उनका अनुवाद किया।  संस्कृत ,अरबी फारसी आदि दस्तावेजो व पांडुलिपियों का अर्थ समझने में उसे अपने मुंशियों से भी सहायता मिली।
इसने अपनी पुस्तक में राजस्थान के उस समय के राजघरानो के इतिहास को सम्मलित किया जिन में मेवाड़ ,मारवाड़ ,बीकानेर , जयपुर ,जैसलमेर ,बूंदी व कोटा का इतिहास है इसके अलावा केवल  शेखावाटी पर अलग से अध्याय लिखा जो यह साबित करता है कि शेखावत जयपुर से अलग एक स्वतंत्र राज्य था व बहुत ही शक्तिशाली व प्रभावशाली था।

"अब हम शेखावाटी संघ के इतिहास की तरफ आते हैं। इस का उद्भ्भव आमेर के सामंत घराने से हुआ  है. समय व परिस्थितियों के प्रभाव से इस संघ ने  इतनी अधिक  शक्ति प्राप्त कर ली जितनी की उसके पैतृक राज्य की थी।  इस संघीय राज्य के नियम व कानून लिखे हुए नही हैं और न उनका कोई अधिकारी अथवा राजा होता है ,जिसे सभी स्वीकार करते हों। इस राज्ये में कोई एक व्यवस्था नही है ,फिर भी यहाँ के सभी सामन्तो में एकता है। यहाँ कोई निश्चित राजनीती भी नही पाई जाती है।  उन लोगो को जब कभी किसी सामान्य अथवा व्यक्तिगत रूचि के मामले पर विचार करना होता है ,तो शेखावाटी के सरदारों की महान परिषद उदयपुर में आयोजित की जाती है। और उस में निर्णय लिया जाता है। वहाँ जो निर्णय लिया है ,उसे सभी स्वीकार करते है। "… "मोकल के वशज दस हजार वर्ग मील क्षेत्र में फैले हुए हैं। "

Saturday, September 21, 2013

भोमिया शब्द व उस का अर्थ

भोमिया शब्द व उस का अर्थ 

मेरे  बहुत से मित्र जो मेवाड़ व जालोर आँचल से हैं उनके यहाँ दो शब्द राजपूतों को विभाजित करने के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं  - एक  भोमिया व दूसरा रजपूत -वे अपने आप को इस से भिन्न देखना व समझना चाहते हैं।
मैं ने कभी कर्नल टॉड को पढ़ा था उसके संदर्भो को अंडर लाइन करता गया ,शायद बिना कुछ ज्यादा समझे ,पर आज फिर उसे पढ़ रहा था तो भोमिया के लिए उस समय क्या मान्यता थी उस का दिग्दर्शन हो जाता है -

"आरम्भिक दशा में राणा के वंशज "भोमिया " नाम से विख्यात थे और राज्य के ऊँचे पदों पर प्रतिष्ठित होने के कारण विशेष रूप से सम्मानित होते थे। बाबर व राणा सांगा तक उनकी यह मर्यादा यथावत बनी रही।
     मेवाड़ राज्य में जिन लोगों पर युद्ध के संचालन का दायत्व है ,उन में भोमिया लोग प्रमुख माने जाते थे। भोमिया नाम ही उनकी श्रेष्ठता का परिचय देता है।
इनकी जागीरे बराबर नही है। किसी किसी के अधिकार में तो केवल एक ही गाँव है। अपनी जागीरी भूमि का वे राणा को बहुत कम कर देते हैं।  आवश्यकता पड़ने पर उन्हें राणा को सैनिक बनकर युद्ध के लिए जाना पड़ता है।  युद्ध की अवधि में उनके खाने पीने की व्यवस्था राणा की तरफ से की जाती है।
राज्य में इन भूमिपतियों    अर्थात भोमियों का इतना मान सम्मान है कि प्रथम श्रेणी के सामंत भी इस पद का प्रयास करते रहते हैं। 

Wednesday, September 11, 2013

 मै कल  स्वामी विवेकानंद जी का अमेरिका से  राजा  अजीत सिंह जी को  लिखा पत्र पढ़ रहा था जिसमे उन्होंने लिखा क्षत्रिय इस देश की अस्थि व मज्जा है, क्षत्रिय कमजोर हुए तो भारत भी कमजोर हुआ। आज राजस्थानी के मानेता साहित्यकार  कवि श्री उदयराज जी  ऊज्ज्वल का एक दोहा पढ़ा जो कुछ इसी भाव का है। -

रहणा  चुप नाही रजपूतो, धारो कुळ मारग अवधूतो !
पोखो अब तो मात सपूतो , मिलसी देस न तो सहभूतो !!

हे ! राजपूतो अब चुप रहने का वक्त गया। अपने कुळ धर्म को धारण करो हे ! अवधूतो। हे मातृभूमि के सपूतो इस देश की रक्षा करो, नही तो यह देश गर्त में मिल जायेगा।


किसीने भी पैदा करने वाले भगवान को देखा नही ,पर पैदा करने वाली माँ को सभी जानते हैं ,वो केवल पैदा नही करती पर बड़ा भी करती है ,वो भगवन से कम कैसे हो सकती है. जो धर्म इस को नही समझता वह कैसा धर्म।

Tuesday, September 10, 2013

अकबर महान -पाठ्य पुस्तकों में यह घोल घोल कर पिलाया जाता है कि अकबर महान शासक था। पर वास्तव में वह  विदेशी आक्रान्ता था ,क्रूर था। चितोड़ में जब जोहर व साका हो गया , सारे राजपूत व राजपुतानिया मारे गये उस के बाद में उसने चितोड़  में  ३०००० आम नागरिकों की हत्या की।

अकबरी दरबार नाम से एक पुस्तक जिसका की हिंदी में अनुवाद आज से लगभग  ८६ वर्ष पहले हुआ है में एक जगह  संगरवाल (प्रयाग ) के युद्ध के बाद की घटना का वर्णन है -उसने आज्ञा दी कि जो नमक हरामों का सिर काट कर लावेगा ,उसे पुरस्कार दिया जाये गा। विलायती सिर के लिए एक असरफी व हिंदुस्तानी सिर के लिए एक रुपया नियत हुआ। हाय  अभागे हिन्दुस्तानियों,तुम्हारे सिर कट कर भी सस्ते  रहे। लशकर के लोग गोद में भर कर विपक्षियो के  सिर लाते व मुट्ठियाँ भर कर रूपये व अशर्फियां लेते।

इसी पुस्तक में मुल्ला ने बीरबल के बारे में लिखा है -असल में देखो तो यह भाट  थे। विद्या व पांडित्य स्वयम ही समझ लो कि भाट क्या और उस की विद्या तथा पांडित्य की बिसात क्या। पुस्तक तो दूर रही ,आज तक एक श्लोक भी नही देखा जो गुणवान पंडितों की सभा में अभिमान के स्वर में पढ़ा जाये। एक दोहा नही सुना जो मित्रों में दोहराया जाये। यदि योग्यता देखो तो कंहा राजा टोडरमल और कंहा ये। यदि आक्रमणों व विजयों को देखें तो किसी मैदान में कब्जे को नही छुआ। और उस पर दसा यह की सारे अकबरी नोरत्नो में एक दाना भी पद और मर्यादा में उनसे लग्गा नही खाता।
मुल्ला जी आगे लिखते हैं -  बादशाह को बचपन से ही ब्राह्मणों ,भाटों और अनेक प्रकार के हिन्दुओं के प्रति विशेष अनुराग था। एक ब्राह्मण भाट मंगता ,जिसका नाम ब्रह्मदास था और जो कालपी का  वाला था और हिन्दुओं का गुणगान जिसका पेशा  था ,लेकिन जो बड़ा सुरता व सयाना था ,बादशाह के राज्यरोहण के आरम्भिक दिनों में ही आया और उसने नोकरी कर ली। सदा पास रहने और बराबर बातचीत करने के कारण उसने बादशाह का मिजाज पूरी तरह पहचान लिया और उन्नति करते करते इतने उच्च पद पर पंहुच गया कि "मैं तो तूं हो गया और तूं मई हो गया। मैं तो शरीर हो गया व तूं प्राण हो गया "


शेरशाह सूरी ने हुमायु को जब इस देश से  खदेड़ दिया तो वह उमरकोट होते  हुए  इरान गया। उस समय इरान के शाह तहमास्प ने एकांत एकांत में सहानुभूति प्रगट करते हुये हुमायु से साम्राज्य के विनाश का कारण पुच्छा तो उसने भाइयों के विरोध व वैमनष्य को इस का कारण बताया। तो शाह ने पुच्छा -प्रजा ने साथ नही दिया ? हुमायु ने उत्तर दिया ,वे लोग हमसे भिन्न जाती व धर्म के लोग हैं। शाह ने कहा अबकी बार वहां  जाओ तो उन लोगों से मेल कर के ऐसी अपनायत बना लेना कि कंही मध्य में विरोध का नाम ही न रह जाये।


खान आजम अकबर का विश्वास पात्र सेनापति था। वो प्रायह कहता था कि अमीर के चार स्त्रियाँ होनी चाहिए -पास बैठने व बातचीत करने के लिए ईरानी , घर गृहस्थी का काम करने के लिए खुरासानी , सेज के लिए हिंदुस्तानी  और एक चौथी तुरकानी जिसे हरदम केवल इसलिए मारते पिटते रहें कि जिस से और स्त्रिया डरती रहें।