Sunday, March 24, 2013

कपूत - सपूत

                                                     कपूत - सपूत 
हिंगलाज दान कविया अपने समय के मानिता कवी हुए हैं , इन्होने कपूत व सपूत की व्याख्या इस प्रकार की है :

                                                          कपूत 
कहियो फरजंद न माने काई , छक तरुनाई मछर छिले !
महली न तो मिले कमाई , माईतां न भूंड मिले !!
पढ़ पढ़ , ठीक सीख पडवा मां , कड़वा वचनां दग्ध करै !
जिमै घी गंहूँ जोडायत , मां तोडायत भूख मरै !!
बरते सोड सोडिया बेटो ,पैमद हेटो बाप पडे !
मूंडा हूँत न बोलै मीठो ,लालो बूढ़ा हूँत लडै !!
सरवण न हुवै हियो सिलावन , हियो जलावन कंस हुवै !
  थोथै काम कुटीजै थाळी ,कळजुग राळी भांग कुवै !!

भावार्थ: कपूत बेटा  योवन की मस्ती में  एक बात नही सुनता ,कमाई पत्नी को व मायतों को भुंडाई मिलती है।
            पत्नी की शिकायत पर मां को जले कटे वचन कहता है. पत्नी को घी गेंहू व मां भूक मरती है।
             खुद के लिए सोड सोडिया व पिता के लिए पमद लगे बिस्तर , मुंह से एक शब्द मीठा नही निकलता                       
             और बूढ़े से रोज रोज की लडाई।
             ऐसा पुत्र हृदय को शीतलता देने वाला श्रवण नही हो कर ,हिया जलाने वाला कंस होता है। कलजुग में  
              कुए में भांग पड  गई है,                  
डिंगल काव्य में वैण सगाई काव्य कि एक महत्वपूर्ण  विधा है। वयण सगाई को कुछ लोग वचन सगाई और कुछ वर्ण सगाई से समबद्ध मानते है। इसमें एक ही चरण में प्रयुक्त कुछ शब्दों में एक ही   वर्ण को लाकर उनकी मैत्री स्थापित की जाती है. डिंगल भाषा में इस अलंकार का बहुत अधिक प्रभाव रहा है. संसार की शायद ही किसी भाषा में किसी अलंकार का निर्वाह इतनी कठोरता के साथ किया गया है। पीढ़ियों के दीर्घ अभ्यास से चारण कवियों के लिए वयण सगाई का निर्वाह इतना दुष्कर नही रह गया था। एक उधारण ,जब महाराजा अभय सिंह जी जोधपुर ने बीकानेर को कब्ज़ा करने के लिए चढाई करदी तो बीकानेर महाराजा ने जयपुर महाराजा जय सिंह जी को लिखा।
"अभो ग्राह  बिकाण गज, मारू समद अथाह !
................. .............., सहाय करो जय शाह !!"
( एक स्टेंजा भूल रहा हूँ , पर अर्थ यह था कि हे जय सिंह ये अभय सिंह ग्राह है और बीकानेर हाथी है ,और मरुस्थल अथाह समुद्र है ,अब आप कृष्ण की तरह आकर मेरी सहायता कीजिये। इस परिस्थिति में जय सिंघजी ने जोधपुर पर दबाव बनाने के लिए चढ़ाई करदी , किन्तु युद्ध नही हुआ , उसकी एक झलक :

 बज्जी न तेग ,तूटे न बाढ़ !
गजे न तोप , मानोह अषाढ़ !!

भावार्थ यह है कि तेग (तलवारे ) बज्जी नही (चली नही )न उनके बाढ़ (पैनापन ) टूटे। न तोपों ने गर्जना की मानो की  अषाढ़ के बादलों हों।  
श्री गनपत राय जी पुरोहित नवलगढ़ ने नासिक से २५ -६- ८६ को नासिक से पत्र लिखा ,पुरोहित जी ब्रह्मचर्य आश्रम के दिनों के सहपाठी थे।

आदरणीय भाई सूर्य सिंह जी ,
                                    सादर प्रणाम ! शुभाशीष !
आप आश्रम के अग्रणी छात्र एवम स्नातक थे। अत: बड़े होने के नाते नमन और आपके पूर्वजों के दिय गये अधिकार के कारण आशीष।
आपके प्रति सदा से ही आदर भावना रही है। कारण प्रथम तो आप क्षत्रिय दूसरे आप में देश प्रेम एवम वीरोचित भावना। .............................. आपने नवलगढ़ का इतिहास मुझे भेंट किया था। उसका धन्यवाद आज दे रहा हूँ। आप की लेखन शैली बहुत अछी है। ............................ आप के प्रति आश्रम में बनी मेरी आदर भावना में आप एक वीर क्षत्रिय ,देश भक्त ,सौम्य ,शिष्ट एवम अभिज्यात क्षत्रिय परम्परा की लुप्त होती कड़ी है।

                                                                                        आपका
                                                                             गणपतिराय पुरोहित , नवलगढ़    

ठाकुर सुरजन सिंह जी की पुस्तक " राजा रायसल दरबारी " की समीक्षा में श्री . सवाई सिंह जी धमोरा द्वारा पध्य बद्ध संक्षिप्त रचना :

रायसल्ल जीवन वृत रचियो , कुण करतो थां बिन यो काम !
वंश वृक्ष मझ मोटा डाळ , सुरजन सिंह सडोलो नाम !!

गीतां गावण घणा गोखड़ा , अंग वस्त्र अपूरण अंग  !
थां बिन कुण पोथी रचवावै , रायसल्ल वंशज घण रंग !! 

झाझड़ का झाड़ा बिच बैठ 'र , साहित साधना बडकां साज !
किधी सुरजन सिंह अनूठी , कर न सक्या जो करता राज !!

जुग सराद करयो जुग सारु , जुग जुग करसी पिढ्यां याद !
सूरज सम सुरजन सिंघ  चमकै , शेखावत संघ सद मरजाद !!

शार्दूल -न्यास पंच पाना , जस आखर झपवायर आज !
बडकां बिडद बतायो सब नै , करतब कीर्ति कमाया ' र काज !!

करूँ समीक्षा के पोथी की , स्वयम समीक्षा हो री आज !
भागवत तो बो ही भणसी , वेदव्यास सम हो रिषिराज  !!

भोज राज जीवन वृत लिख भळ , करवावो कुळ कीरत काज !
ओ सराद पछ कुण करसी , सुवाई नै घण थां पर नाज !!

  
 

Monday, March 18, 2013

दुर्गादास राठोड का देश निकला - एक भ्रांत धारणा

राठोड दुर्गादास को महाराजा अजीत सिंह जी ने मारवाड़ से देश निकला दिया था ऐसी धारणा आम है, इस सम्बन्ध में यह दोहा भी प्रचलित है;
"इण घर आ हिज रीत , दुर्गो सफरा दागियो "
भावार्थ :
"इस घर की ऐसी ही रीति नीति है की दुर्गादास जैसे स्वामिभक्त को भी मारवाड़ में अंतिम संस्कार के लिये जगह नही मिली और उसे उजैन के पास शिप्रा नदी के किनारे दाग दिया गया।"

 डॉ.रघुवीर सिंह जी सीतामऊ जिन्हें रिसर्च के लिए डी .लिट की उपाधि भी मिली हुई है ने दुर्गादास जी पर एक शोध पूर्ण पुस्तक लिखी है। उन्होंने दुर्गादास जी का निर्वासन स्वच्छिक माना  है। उसी पुस्तक को मैं यहाँ उध्रत कर रहा हूँ।

"सांभर के युद्ध में मारवाड़ -आमेर की सेनाओं द्वारा संयोगवश अर्जित विजय ने , आखिर में अजित सिंह और सवाई जय सिंह को अपने अपने सिंहासनो पर सुद्रढ़ कर दिया। इस विजय ने राजस्थान के वास्तविक शक्तिशाली शासकों के रूप में उनकी प्रतिष्ठा को चार   चाँद लगा दिये और मुग़ल सल्तनत के भविष्य निर्णायकों के रूप में उनकी महत्वाकांक्षाओं को बढ़ा दिया। ...................................................................
दुर्गादास राठोड ने अनुभव किया कि सांभर कि लड़ाई के बाद अजित सिंह एकदम बदल गया था।अब वह नम्रता पूर्वक उनकी राय नही लेता था .तथा उनके पूरे सहयोग और सक्रिय साहयता की चाह भी उसे नही थी। उसकी प्रत्येक सफलता ने उसे इतना निधडक बना दिया था कि वह उन लोगों से भी वास्तविक और काल्पनिक आधारों पर बदला लेने लगा ,जिन्होंने पहले कभी दुर्गादास को सहयोग दिया था। जोधपुर पर पहली बार कब्ज़ा करने के तुरंत बाद ही उसने जोशी गिरधर सांचोर को दण्डित किया , जिसने शाहजादा अकबर के बच्चों की देखभाल में सक्रीय सहयोग दिया था। कई बार उसे सार्वजनिक रूप से कोड़े लगाये गये। काल कोठरी में बंद ६ सप्ताह से अधिक उसे भूखा रखा गया जिस से उस ने दम तोड़ दिया। .......................................
जोधपुर प्रवेश के एक पखवाड़े के भीतर ही जोधपुर दुर्ग में महल के एक रसोई घर में उसने अपने ही महामंत्री राठोड मुकंदास चांपावत तथा उसके भाई रघुनाथ सिंह चांपावत की दुष्टता पूर्ण हत्या करवा दी। ...............
और अब जब  कि उसने अजीत सिंह के स्पष्ट आदेशों की अवहेलना करने का दु : साहस किया , तब मारवाड़
लौटने पर दुर्गादास राठोड प्राणदंड स्थगन की आशा कदापि नही कर सकता था।  .... अत: जब दुर्गादास राठोड मारवाड़ से सुरक्षित निकल कर मेवाड पंहुच गया था। तब ठेके पर लिए हुए अपने सादड़ी गाँव में रहते हुए उसने निश्चय कर लिया कि वह कभी मारवाड़ नही जायेगा तथा अजीत सिंह के हाथों अपनी नृशंस हत्या नही होने देगा। इस तरह मारवाड़ से दुर्गादास का आजीवन स्वैछिक निर्वास शुरू हुआ।
कुछ समय बाद महाराणा अमरसिघ को दुर्गादास के मारवाड़ न लोटने के निर्णय का पता चला . उसने सहर्ष दुर्गादास को को अपना सरक्षण प्रदान किया।विजयपुर परगना उसे जागीर में दिया व पन्द्रह हजार रुपया मासिक निर्वाह उपवृति देना मंजूर किया।
दुर्गादास उदयपुर की पिछोला झील के तट पर कुछ समय तक रहता रहा। पर कुछ समय बाद जब सादड़ी गाँव भी उसे जागीर में दे दिया गया तब वह अपने दो छोटे लडकों तेजकर्ण वह मेहकर्ण के साथ वहा चला गया। मालवा जाने से पहले कोई सात वर्ष तक दुर्गादास सादड़ी में ही रहा।
महाराणा के अनुरोध पर १७१७ ई. के अप्रेल महीने में दुर्गादास रामपुर आ गये व नवम्बर १७१७ ई. में रामपुरा का प्रबंध दीवान पंचोली बिहारीदास को सोंपा ,तब स्थिति इस प्रकार थी।
उस समय दुर्गादास राठोड अपने घटना प्रधान जीवन के ७८ वर्ष पुरे कर चूका था। अत: अपने जीवन का शेष भाग उसने कहीं निकट ही किसी पवित्र स्थान में बिताने का निश्चय किया जहाँ शांतिपूर्वक रह कर अपना समय ईश्वर के ध्यान व प्रार्थना में लगा सके। .................. अत : वह रामपुरा से सीधा उज्जन चला गया और प्राण छोड़ने के दिन तक वहीं रहा। इस प्रकार दुर्गादास राठोड ने अपना अंतिम श्वास पुनीत शिप्रा के तट पर शनिवार , मार्गशुक्ल पक्ष की एकादसी ,विक्रम सम्वत १७७५ तदनुसार २२ नवम्बर १ ७ १ ८ ई. को लिया। उस समय उसकी आयु ८० वर्ष ३ महीने २ ८ दिन की थी।
   
 



Thursday, March 14, 2013

बारठ वीरदास वीठू जो रंगरेला के नाम से भी मशहूर है ने जैसलमेर महाराजा से नाराज होने पर व्यंग में जैसलमेर रो जस नाम से एक कवित लिखा जो इस प्रकार है. 

राती रिड थोहर मध्यम रुंख !
         भमै दृगपाल मरनता भूख  !!
हूँचैरा तालर आवै हेर !
        मैं दीठा जादव जयसलमेर  !!
टिकायत राणी गधा टोल !
        हेकली लावत नीर हिलोल  !!
मुल्लक मंझार न बोले मोर !
        जर कुंवा सेहाँ गोहां जोर  !!
ढ्बुरो बारठ ढीली लांग !
         टहक्कै दोनां खोडी टांग  !!
गळयोड़ी जाजम बुगां रो ढेर !
          जुड़े जहाँ रावल रो दरबार  !!
कविसर पारख ठोठ न कोय !
           हसती भैंस बराबर होय  !!
परख्या ऊन बराबर पाट !
           धिनो घर घाट , धिनो घर घाट !!
पदमण पाणी जावत प्रात !
           रुळती आवत आधी रात  !!
बिलक्ख टाबर जोवै बाट !
            धिनो घर घाट , धिनो घर घाट !!

 संक्षेप में इस का भावार्थ इस प्रकार है.  

मैंने भाटी जाद्वों का जैसलमेर देख लिया ,यहाँ पेड़ के नाम पर थोहर है ,ढूंड ने से तालाब नही मिलता द्वारपालों  को समय से खाना नही मिलता।टिकायत राणी बेसुरी है ,देश में कंही मोर की आवाज नही आती ,कुवे उंडे है ,सेह व गोह जैसे जानवरों  का बोलबाला है ,बारहठ बेवकूफ है ढीली लांग की धोती ,खोडी टांग से टहका दे कर चलता है ,रावलजी का दरबार जहाँ जुड़ता है वहां की जाजम गली हुई है ,चोतारफ बुगों का ढेर है ,यहाँ तो सारे ठोठ हैं ,कवियों की कोई परख नही है ,इन के लिए हाथी और भैस बराबर हैं ,धन्य है इन्होने कीमती वस्त्रों के पाट को भी ऊन बराबर ही समझा है ,पद्म्नियाँ सुबह पानी लाने जाती हैं तब जाकर  आधी रात को रुलती हुई वापस आती हैं , घर में बच्चे बिलख ते रहते हैं , धन्य है।

इन बारहठ जी को रंग रेला  का उपनाम मुग़ल सूबेदार कमाल खान ने दिया जो कि जालोर में पदस्थापित था . वीरदास जी एक कुए पर स्नान कर रहे थे उसी समय कमल खान उधर आ निकला व  अपने घोड़े को कुवे की खेल में पानी पिलाने लगा। बारहठ जी ने उसे पहचान लिया और अपनी धोती को जोर जोर से पछाट कर धोने लगे , उस के छींटे जब कमाल खां पर गिरे तो उस ने कहा , हे कूटण कुटना बंद कर ,तो बारहठ जी ने कहा :
"कुट्टन तेरो बाप" यह सुनते ही कमाल खां ने तलवार खींचली किन्तु जब बारहठ जी ने पूरी कविता सुनाई तो कमाल खां ने कहा की तुम तो रंगरेला हो तुम ने रंग का रेल बहा दिया . कविता इस प्रकार है :

कुट्टन तेरो बाप , जिकै सिरोही कुट्टी !
कुट्टन तेरो बाप ,जीके लाहोर लुट्टी  !!
कुट्टन तेरो बाप जिकै बायडगढ़ बोया !
कुट्टन तेरो बाप , जिकै घुमंडा धबोया !!
कूटिया प्रसन खागा किता , झुंजे अर सांके धरा !
मो कुट्टण न कह कमलखां, तूं कुट्टण किणयागारा !!          


   
      

Wednesday, March 13, 2013

शेखावत सुजाण सिंह टोडरमलोत

शेखावत सुजाण सिंह टोडरमलोत   

ओरंग जेब  ने जब खंडेला के देव मन्दिर को तोड़ने के लिए शाही सेना भेजी तो राजाजी ने खंडेला खाली कर पहाड़ों की शरण ली ,जैसा कि उस समय की युद्ध पद्धति थी . किन्तु जब यह बात शादी कर लोटते हुए श्याम सिंह जी छापोली को मालूम हुई तो उन्होंने दृढ़ निश्यच के साथ कहा की यह धरती हमारी है मै रायसल का प्रपोत्र  हूँ , हमारे जीते जी देवमंदिर डहया नही जा सकता। नव विवाहिता दुल्हन को छापोली रवाना कर वे अपने जाबांज योधाओं के साथ खण्डेला के देव मन्दिर की रक्षार्थ सनिध हो गये और जीते जी यवनों को मंदिर में प्रवेश नही करने दिया। आज भी शेखावाटी प्रदेश में यह लोक गीत बड़े गर्व से गाया जाता है -" झिर मर झिर मर मेवा बरसे मोरां छत्री छाई ,कुल में है तो आव सुजाणा फौज देवरे आई "    डॉ . गोरधन सिंह जी गुड़ा की यह कविता :

मोहन जी के मंदिर से 
खंडेला के खंडर से 
आती है बेबस सी 
हर वक्त पुकार 
किसी दिन यहाँ लड़ा था 
झुंझ मरा था 
मंदिर की मर्यादा खातिर 
वह कर्मवीर 
वह धर्मवीर 
वह रणधीर 
*****************
कंकण भी जिसका खुला नही 
मेंहदी का रंग भी घुला नही 
उस संध्या को संख बजा 
रण साज सजा 
शादी के सपने भुलाकर 
अरि को गहरी नीद सुलाकर 
टोडरमल की आन निभा कर 
चढ़ गया बलि वेदी पर 
नाद गगन भेदी कर 
सुजाण सिंह महान 
जानता सारा जहान 
आज भी -गवाले गाते 
मस्त हो नाचते 
मेह की झड़ियों में 
झिरमिर -२ मेवा बरसे 
मोरां छतरी छाई
कुल में है तो आव सुजाणा 
फोज देवरा आई 
  

गीत सुजाण सिंघ जी रो 
(खंडेला के मोहन जी के मंदिर को ध्वस्त करने ओरंगजेब ने सेना भेजी। सुजाण सिंघजी छापोली ने मंदिर की रक्षार्थ साका किया। )

नही आज जैसिंघ जसराज जगतो नही
           दे गया खत्री सह पूठ दूजा।
प्रथि पालट हुवै पाट मंदिर पड़ै
           सादी मोहण करै आव सूजा।।

भावार्थ :- आज जयपुर महाराज सवाई जय सिंह ,जोधपुर महाराजा जसवंत सिंह व उदयपुर महाराणा जगत सिंह नही रहे। दूसरे सभी क्षत्रिय पीठ दे गए। आज मंदिर को ध्वस्त कर पृथ्वी पर गिराया जा रहा है। मोहन जी महाराज तुम्हे पुकार रहे हैं -हे सुजाणसिंघ आवो मेरी सहायता करो।

महासुत गजनसुत करणसुत गया मुगत
            राय अन परहरै धरम रेखा।
सांकड़ी बार अब राखै तो सूं रहै
           सरम मो परम ची बिया सेखा।।

भावार्थ :- महासिंघ का पुत्र जयसिंघ ,गजसिंघ का पुत्र जसवतसिंघ ,करणसिंघ का पुत्र जगतसिंघ ये सभी मुक्ति धाम को चले गए यानी स्वर्गवासी हो गए और ओरंगजेब को मौका मिल गया। दूसरे राजाओं ने धर्म की रेखा छोड़ दी। इस संकट के समय मुझ परमेश्वर की शर्म का भार हे ! दूसरे सेखा अब तुम्हारे पर है।

मानहर मालहर अमरहर वींस मै
          आन पह ओसंकै नकू आया।
आज हूँ एकलो असुर दल उलटियो
          जुडण काज पधारो स्याम जाया।।

भावार्थ :- मानसिंघ ,मालदेव व अमरसिंघ के पौत्र यानि जयसिंघ ,जसवतसिंघ व जगतसिंघ वींसमै विश्राम कर रहे है स्वर्ग में। और दूसरे राजा आसंकित हैं भयभीत हैं इस लिए रक्षार्थ नही आये। आज मैं अकेला हूँ और असुरां का दल उलटकर आ गया है। हे स्याम सिंह के पुत्र सूजण सिंह युद्ध में जुटने के लिए पधारो।

साद सुण सेहरौ बाँध हंस ऊससौ
          प्रीति हुति जिसो परख पायौ।
बाद सुरताण सूं मांड खग बाहतौ
         असुर दल गाहतो बेलै आयो।।

भावार्थ :-साद सुण यानी सहयता की पुकार सुन सेहरा बाँध हंस कर उत्साहित हुआ। जैसी उससे प्रीति थी वैसा ही उसे परख कर पाया। सुलतान से बाद कर तलवार चलाते हुए ,असुरों के दल को गाहता हुआ (बेल) सहायता के लिये आया।

पाड़ पातसाह धड़ सिराणे पोढियो
                देव नर सरिखौ न कौ दूजो।
मार मेछाण दल सूज मिलै
             पथर पाडो तथा कोय पूजौ।।

भावार्थ :-बादशाह की सेना से युद्ध करते हुये मंदिर के सिरहाने सुजाणसिंघ सदा के लिए सो गया। मलेछो को मार कर सुजाणसिंघ ज्योति में मिल गया अब कोई पथर उखाड़े या उसे पूजे।






यह कविता संघशक्ति के किसी अंक से नोट की थी। शायद ४० वर्ष पूर्व के आसपास। 
                                               बिणजारो 
मैं बिणजारो राजस्थान रो 
ल्यायो हूँ सन्देश , अणमोल ले ल्यो जी 
राणा जी रो भालो ल्यायो ,
सांगा  जी रो खांडो ल्यायो ,
मां पदमण री ल्यायो चुन्दडी - जौहर रो सन्देश !
अणमोल लेल्यो जी 
ल्यायो हूँ सन्देश 
हल्दीघाटी री  रज ल्यायो 
चेटक सो एक घोड़ो ल्यायो 
हाडी जी री ल्यायो कटारी - मुंडमाल संदेश !
अणमोल लेल्यो जी 
ल्यायो हूँ सन्देश 
जयमल फता री छवि ल्यायो 
बादल सो बचपन ले आयो 
मीरां री शक्ति रो प्यालो - भक्ति रो सन्देश !
अणमोल लेल्यो जी
ल्यायो हूँ सन्देश 
हाथी दांत रो चुडलो ल्यायो 
गढ़ चितोड़ री महंदी ल्यायो 
केसरियां वीरां रो बानो - शाका रो सन्देश !
अणमोल लेल्यो जी 
ल्यायो हूँ सन्देश 
राव हम्मीर रो हठ ले आयो 
दुर्गादास रो प्रण ले आयो 
जोधाणे सो ल्यायो गौरव - मरुधर रो संदेश !
अणमोल लेल्यो जी 
ल्यायो हूँ संदेश