Friday, May 24, 2013

राजस्थान में छपनिया अकाल की स्मृति हमारे बचपन तक पुराणी पीढ़ी में ज्यों कि त्यों बनी हुई थी। यह दुर्भिक्ष विक्रमी सम्वत १ ९ ५ ६  यानि इसवी सन  १ ८ ९ ९  में पड़ा था। मेरे बचपन से कोई ५ ४ वर्ष पहले। उस समय तक छपनिया काल के नाम से ही पुराणी पीढ़ी में दहशत सी पैदा होती थी। अकाल आज की नई पीढ़ी के लिए न समझ में आने वाली बात है, किन्तु उस अकाल के समय लोगो के पास न्योलियो में पैसे होने के बाद भी अनाज नही होने से मृत्यु के मुंह में जाना पड़ा। इस सम्बन्ध में एक कवित है जो इस प्रकार है :

निरभय नारायण सुधि सिर नाऊँ ,
पर हर संशय भय बुद्धि वर पांवु!
सम्वत छपने रो कवण सिर लोको ,
लोकिक लेवण ने सांमल ज्योलोको  !!१
पांचो ,आठो , दस पनरो खू पडयो,
सतरे  बिसे हय खतरे में खडिया  !
पुलियों पचीसो चोतिसो चुलयो ,
अड़तालिसो भी अंतर आकुलियो !!२
पीढ़ी पर पीढ़ी पोतो जी पाया ,
अगले कालारां दादोजी आया  !
कालप चावी कर भावी भुज भेटी ,
मोटा मोटा री माविती मेटी  !!३
सुख सूं सूती थी पिरजा सुखियारी ,
दुष्टि आंतां ही करदी दुखियारी  !
जग में उसरियो खापरियो जेरी ,
वाला बिछोडण बापरियो बैरी !!४
माणस मुरधरिया  माणक सम मूंगा ,
कोडी कोडी रा करिया श्रम सुंगा  !
डाढ़ी मूं छाल़ा डलिया मै डूलिया ,
रलियाँ जायोड़ा गलियाँ मै रुलिया !!५


आफत मोटि न खोटी पुल आई ,
रोटी रोटी न रैयत रोवाई !
आड़ी ओंखलिया खायोड़ा आदा ,
लाडा कोड़ा में    जायोड़ा लाडा  !!६
सारी सृष्टि में कुंडल छल करियो ,
भारी हा हा रव भूमंडल भरियो  !
वसुदा काली री ताली तड बागी ,
भिडिया सोनारी चिड़िया पड़ भागी !!७
महनत मजदूरी मासक घण मोला,
बिलखा बिगतालू  आसक अण बोला !
बांठा बांठा में ठाठा ठा ठरिया ,
भुका मरतोड़ा मरिया गुण भरिया !!८
खांचे शुकर वत कूकर भिनकावे ,
जोगा कांपन तन खापण विनजावे !
मुरदा मरघट में पड़िया नह मावे ,
सीडिया बासे सब भकरन्द भभकावे !!९
आडा खाड़ा में भोडक अडबडता ,
सन्ता आसण ज्यूँ तुंबा तड़ बडता !
ग्रिधा गरणावे खावे तन खांचे ,
राम द्वारा में रांडा ज्यूँ राचे  !!१ ०

सतियां महा सतियाँ केता तन सोहे ,
मधुरि बाणी मुख प्राणी मन मोहे !
राजपूताणी रुच सिंचाणी सिरखी ,
नेणा जल भरती सेणा थल निरखि !!१ ४
सुंदर सुकुलिणी झीणी साड़ी में ,
जुलाफां सपणी जिम अपनी  आड़ी में !
सूनी ठाणी में सेठाणी सोती ,
रेगी बिरयाणी  पाणी ने रोंती !!१ ५
जंगल जंगल में जूनी जणयाणी ,
धोला धोरयाँ री धूनी घरयाणी !
खोटे तोटे नग कणीया बिखरगी ,
माहब मोटे दुःख जाटणियां मरगी !!१ ६
सूकी सुदराणी   झाडा रे सारे ,
लादी बिदरानी बाड़ा रे लारे !
सद व्रत करतोड़ी वर्णाश्रम सेवा ,
काड़े मरतोडी रेवा तट केवा !! १ ९

 





Friday, May 17, 2013

सामन्त या जागीरदार

जब से वादों का जन्म हुआ तब से नये बुधि जीवी वर्ग ने समाजवाद साम्यवाद आदि की तर्ज पर एक नया नार गढ़ा सामन्तवाद के नाम का। जब तब राजपूत वर्ग को कोसने के लिए इसका उपयोग होता रहता है। इसकी शुरुआत कांग्रेस पार्टी ने अपने हित साधने के लिए की। प्रचारतन्त्र में माहिर लोगो ने इतनी ज्यादा वैमनस्यता की भावना से राजपूतो को बदनाम किया कि आम जनता इस को सच समझ ने लगी।और इस के लिए जाती विशेष के नाम का उपयोग न  करते हुए  इसे सामन्तवादी तत्व कह कर बदनाम किया गया।
वास्तव में सामंत श्रीमंत से बना शब्द है जिसको राजा ने श्रीमंत बनाया वह सामंत। राजपूतों की रियासतों में स्थिति भिन्न थी।यह राजपूत सामंत नही थे राजा के कूटम्बी थे क्यों कि राजा तो एक ही लड़का हो सकता था बाकि को जागीर देदी  जाती थी।  जागीरदार ,ठिकानेदार ,जमींदार और भूस्वामी अधिकार और कर्तव्य की दृष्टी से न्यूनाधिक अंतर से समानार्थक शब्द है। यह सो दो सो बीघा भूमि से लेकर सो दो सो गाँवो के स्वामी तक होते थे। ये गाँव इन्हें दान दक्सिना में नही मिले थे किन्तु अपने बहुबल से अर्जित थे। राजतंत्रात्मक प्रणाली में इनका बड़ा महत्व था यह राज्य के स्तंभ थे। जागीर क्षेत्र की  प्रजा की चोर लुटेरों से  रक्षा करना जहाँ इनका मुख्य दायत्व था, वहां राज्य पर शत्रुपक्ष के आक्रमण के समय अपने भाई बंधुओं के साथ युद्ध में भाग लेना इनका धर्म था। यह कोई वैतनिक सेना नही थी बल्कि राज्य में अपनी  भागेदारी व अपने कुल की मर्यादा व रक्षा करना कर्तव्य था ,कुल गोरव इस से विमुख होने नही देता था। प्रजा की रक्षा के लिए मरना मारना तो खेल था। जिस गाँव में राजपूत का एक भी घर होता था ,वहां अन्याय नही हो सकता था। 

कुच्छ लोग पुर्वग्रस्त थे बाकि शहरो में लोगो को वस्तुस्थिति मालूम नही थी। गाँवो में हमारे बचपन के दिनों में जब जागीर उन्मूलन हुआ ही था , वहां के आम लोग राजपूतो की इन विशेषताओं के कायल थे।

ई.सन  १ ९ ६ ६ से लेकर ई. सन  १ ९ ७ २ तक मैंने ९ वि से लेकर ग्रेजुएशन तक की पढाई नवलगढ़ से की।गाँव से जुडा रहा। लोग बड़ा प्यार व सम्मान देते थे। खेतों में जाना सभी से इंटरेक्ट करना बड़ा अछा लगता था। उस जमाने में कुवे पर टूबवेल लग चूका था। हमारे यहाँ एक माली व एक गुजर कुवे पर सीरी थे। बारानी खेती में चमार ही मुख्य रूप से काम करते थे। वो लोग दादोसा के बारे में जो बात करते थे वो मेरे पूज्य पिताजी ठा . सुरजन सिंघजी की अपने पिताजी यानि मेरे दादोसा के बारे में लिखे इन दोहों से स्पष्ट हो जाती है।

दिव्य मूर्ति मेरे पिता , नमन करूं सतबार !
चार दशक मम आयु के , बीते तव आधार  !!
रजपूती भगती रखी , करी धर्म प्रतिपाल  !
निबल जनां सहायक रह्या , दुष्ट जना ऊर साल !!
मुख मंडल पर ओपतो , रजपूती को तोर !
दाकलता जद धूजता , दुष्ट आवारा चोर !!
संध्या वंदन नित करी , अर्ध सूर्य नै देर  !
गीता रामायण पढ़ी , बेर बेर क्रम फेर  !!
बां चरणा में बैठ , म्हू सिख्यो गीता ज्ञान !
जीवन मरण रा रहस नै , समझण रो सोपान !!
म्हू  अजोगो जोगो बण्यो पिता भक्ति परताप !
याद करूँ जद आज भी , मिटे पाप संताप  !!

रजपूती व भक्ति बड़ा ही सामंजस्य है और इसी लिए राजपूत वीर होने पर भी क्रूर नही हो सकता। यह आज भी उतना ही सत्य है।


             

Monday, May 13, 2013

फुटकर राजस्थानी दोहे

वेद पढो जोतिग पढो ,चतुराई समरथ।
मेह मोत अर रिजक को, कागद साईं हाथ।। 1

भावार्थ;  कितने ही वेद व ज्योतिष के जानकर हों ,चतुर व समर्थ हो, किन्तु  वर्षा मोत व रिजक ( आमदनी ) इन सब का लेखा तो ईश्वराधीन है।

का पूरण ज्ञानी भलो , कै तो भलो अजाण।
मूढमति अधवीच को ,जळ मां जिसों पखाण।। 2

भावार्थ; या तो पूरा जानकर हो या पूरा अजान हो दोनों ही ठीक है,लेकिन जो मूढ़ आधा जानकर है वह तो जल में पड़े पाषण की तरह है।

चिंता बुधि परखिये , टोटे परखिये त्रिया।
सगा कुबेल्याँ परखिये , ठाकुर गुनाह कियां।। 3

भावार्थ;बुधि की परीक्षा चिंता के समय ,स्त्री की घर में आर्थिक स्थिति ख़राब होने पर ,सम्बन्धियों की ख़राब
            समय आने पर व मालिक की परीक्षा गुनाह करने पर।

धन जोबन अरु ठाकरी , तां ऊपर अविवेक।
अ च्यारूं भेला हुवे, अनरथ करे अनेक।।4

भावार्थ; धन,योवन व अधिकार और इस के उपर अविवेक, ये चारों इक जगह इक्कठे  हो जाये तो अनेक तरह
            के अनर्थ करेंगे।

धर जाता ,धर्म पलटतां , त्रियाँ पडंता ताव।
तीन दिवस मरण रा , कुण रंक कुण राव।।5

भावार्थ; अपनी धरती जा रही हो , धर्म पर आंच आ रही हो, स्त्रियों को सताया जा रहा हो , इन  तीनो ही
अवसरो पर  इनकी रक्षार्थ मरना भी पड़े तो भी आगे आना चाहिए। इस अवसर पर राजा व रंक में कोई भेद
नही।

जो करसी उण री होसी , आसी बिण नूती।
आ न किणी रा बाप री, भगती अर रजपूती।। 6

भावार्थ; भक्ति व रजपूती किसी की बपोती नही है। जो इस का पालन करेगा ऊसके पास यह बिना न्योत्ये
           के आएगी।

खाया सो ही खरचिया , दीना सो ही सत्थ।
जसवंत धर पोढ़ावतां, माल बीरणे हत्थ।। 7

भावार्थ; जसवंत सिंह कहते हैं कि खालिया सो खर्चलिया , दान कर दिया व आपके साथ जायेगा बाकि तो धरती
           पर पोढते ही यानि मृत्यु होते ही माल दूसरे का हो गया।


रोग अगन अर राड , जाण अलप कीजे जतन।
 बधियां पछे बिगाड़ , रोक्यो रहै न रजिया।। 8

भावार्थ ; रोग,आग और झगडा इनको थोडा जानकर ही उससे बचाव  का उपाय करना चाहिए क्यों कि इनके
            बढ़ने पर नुकसान रुक नही सकता है।

कृपण जतन धन रो करे, कायर जीव जतन।
सूर जतन ऊण रो करे, जिण रो खाधो अन्न।।9

भावर्थ; कृपण व्यक्ति अपने धन की रक्षा में लगा रहता है, कायर व्यक्ति अपनी रक्षा में लगा रहता है,
          शूर वीर उसकी रक्षा करता है जिसका अन्न खाया है।

चंगे मारू घर रहियां , ऐ तीन अवगुण होय।
कपड़ा फाटे रिण बढे , नाम न जाने कोय।। 10

भावार्थ : युवा व्यक्ति के घर पर बैठे रहने के ( अकर्मण्य  होने के  )  तीन अवगुण हैं,  व्यक्ति फटे हाल हो जाता है।घर मे कर्जा हो जाता है। और न उस की जान पहचान बढती है।
         

जोबन दरब न खटिया , ज्यां परदेशा जाय।
गमिया यूँही दिहडा , मिनख जमारे आय।। 11

भावार्थ; जिस ने युवावस्था में विदेश में जाकर  कमाई नही की ( यानि घर से बाहर निकल कर कमाई नही की
            उसका मनुष्य जन्म व्यर्थ ही गया।


 तीखां भालां तोल  ,  बैर सको तो पाळज्यो।
मिसलां माथे मोल ,मूला रो करज्यो मती।।     

भावार्थ;  अगर बैर लेना है तो तीक्षण भालो को भुजाओं में उठा कर लेना। मूलजी का मोल  मिसलें  मांड  कर
              मत करना।
        ( मूलजी बिदावत जोधा राठोड़ो के हाथ से मारा गया, इसके चलते बिदवातो व जोधो में
संघर्ष होता रहा, एक दूसरे के गाँव जला देते।इस सघर्ष को ख़त्म करने के लिये जोधपुर महाराजा की पहल पर
समझोते के  लिए पंचायत बैठी , उधर एक चारण आ निकला जब उसको मालूम हुआ कि यह बैठक  मूलजी के बैर  भांजने के लिये हो रही है तो उस ने उपरोक्त दोहा कहा, दोहा सुनते ही तलवारे खिंच गयी ,फिर से सब को शांत कर इस संघर्ष को समाप्त किया गया। )
       
चारण नही होते तो राजपूत मरते कैसे, और मरते नही तो आज तक जिन्दा कैसे रहते।

कुण विरदावे कुण मरे , आंपा दहूँ कपोत।
मांह जिसडा चारण हुआ, थांह जिसडा रजपूत।।

भावार्थ; कोन विरदाये और कोन मरे क्यों कि अपन दोनों ही कपूत है। हमारे जैसे चारण हो गये  और आप जैसे राजपूत।
( नाथू दान जी महरिया ने उपरोक्त दोहा  राजपूत सभा जोधपुर के  अधिवेशन  में शायद 1950-51 ई .में कहा था। )

भरिया सो झलकै नही , झलकै सो आधोह !
मरदां आहिज पारखा , बोल्या अर लाधाह !



धरम बधयाँ धन बढेह , धन बढियां मन बढ़ ज्याय !
मन बढियां महिमा बढे , बढत बढत बढ़ ज्याय  !!


धरम घटयां धन घटे , धन घट मन घट जाय !
मन घटयां महिमा घटे , घटत घटत घट जाय  !!


घोडा और तलवार राजस्थान की वीर संस्कृति में अपना विशेष स्थान रखते  हैं ,कवियों ने इन की तारीफ़ में
दोहों -सोरठों की रचना की है। कुछ दोहे -

लीला बलिहारी थई ,हण टापाँ खल मुंड।
पहलां पडीयो टूक व्हे ,खड़े धणी रै रुण्ड।।

जंग नगारां जाण रव ,अणी धगारां अंग।
तंग लियंता तंडियो , तोन रंग तुरंग।।

उजड़ चाले उतावालो ,रोही गिणे न रन्न।
जावे धरती घूंसतो ,धन्न हो घोडा धन्न।।

तलवार -

ससतर बिये सुधा रहे ,बांका बहती बार।
रात दिवस बांकी रहे ,थैने रंग तरवार।।

नागी तिय पर नर निरख ,सकुचावे सो बार।
अरि निरखत मारे अवस ,थैने रंग तरवार।।

हथलेवो तों सू हुयो ,जुद्ध बण्यो झुंझार।
साथ रही रण सेज में ,थैने रंग तरवार।।

मण्डण ध्रम सत न्याय री ,खंडण अनय अनीत।
खल नाशक शासक प्रजा ,असी थूं जगजीत।।
  

Sunday, May 5, 2013

मुझे क्षमा करदो मां

स्वामी विवेकानंद जी अप्रेल '१८९१ में खेतड़ी नरेश राजा अजीत सिंह जी के यहाँ ठहरे हुए थे। एक दिन राजा जी ने राजसभा में राजनर्तकी के नृत्य संगीत का कार्य क्रम  रखा वे चाहते थे कि स्वामी जी भक्ति परक भजनों एवम गीतों का आनंद ले। गायका का सुर माधुर्य प्रसिद्ध था। किन्तु स्वामी जी ने इनकार कर दिया और कहा साधु को संगीत -नृत्य से क्या लेना। 
जब राज  नर्तकी को मालूम हुआ तो उसने निवेदन करवाया कि महाराज आप मेरा गाया एक भजन तो सुनलो   
स्वामजी  आग्रह स्वीकार कर बैठ गये। साजिंदों ने साज मिलाया और नर्तकी ने आंतरिक गहराई में डूबे हुए मार्मिक स्वर लहरियों में भजन प्रारम्भ किया।

प्रभु मेरे अवगुण चित न धरो !
समदरसी है नाम तिहारो ,चाहो तो पार करो !
इक लोहा पूजा में राखत , एक वधिक घर परो !
पारस यह दुविधा नही जानत , कंचन करत खरो !

स्वामीजी की सारी चेतना झनझना उठी ,नेत्रों में अश्रु की धार बह  उठी। वैदिक ग्रंथो की वाणी  'सर्व खल्विदं ब्रह्म 'उन्हें उद्वेलित करने लगी। गुरु रामकृष्ण परमहंस का कथन - मैं परमात्मा को माता रूप में भेजता हूँ। परमात्मा का एक रूप माता भी है - स्मरण हो आया। 
अश्रुपूर्ण नेत्रों से स्वामीजी ने राजनर्तकी से क्षमा याचना करते हुए कहा - माँ ! मुझे क्षमा करदो। मैं ने तुम्हे पहचान ने भूल की। मुझे क्षमा करदो।

Saturday, May 4, 2013

स्वामी विविदिषानंद से स्वामी विवेकानंद - राजा अजीत सिंह जी खेतड़ी

स्वामी विवेकानन्द का नाम पहले विविदिषानंद था। इनका खेतड़ी राजा अजीत सिंह जी से बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध था।राजा अजीत सिंह अपने समय के बहुत ही प्रतिभावान राजा थे। समकालीन राजा, प्रजा व अंग्रेज उन्हें बहुत सम्मान देते थे। स्वामी जी लम्बे समय तक खेतड़ी में रहे। उस समय राजाजी ने कहा कि स्वामी जी आप का नाम तो विवेकानंद होना चाहिए क्यों कि 'विविदिषा ' का अर्थ है जिज्ञासा काल जो कि खत्म हो चूका है। आप तो महान विवेकी हैं सो आप विविकानंद नाम धारण करो , स्वामीजी ने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया।

स्वामी जी ने साफा बांधना भी खेतड़ी में ही सीखा, जो इनकी वेश भूषा की पहचान ही बन गया । इन्होने खेतड़ी के राज पंडित   नारायणदास से अष्टाध्यायी व महा भाष्य का अध्यन किया। स्वामीजी पंडत जी को अपना अध्यापक मानते थे।

खेतड़ी से जाने के बाद जब स्वामी जी मद्रास में थे तो उन्हें अमेरिका के शहर  शिकागो में होने वाले सर्व  धर्म सम्मेलन का पता लगा। ये उस में जाने के लिए आतुर हो उठे ,किन्तु खर्च की व्यवस्था नही हो पा  रही थी। जब इस बात का पता राजा अजित सिंह जी को लगा तो उन्होंने अपने निजी सचिव मुंशी जगमोहन लाल को मद्रास भेज कर स्वामीजी को खेतड़ी बुलाया। फिर पैसे की पूरी व्यवस्था कर अमरीका भेजा। मुंशी जगमोहन लाल को स्वामी जी के साथ बम्बई भेजा गया, जहाँ स्वामी जी के लिए कपड़े आदि बनाये गये व जहाज का प्रथम श्रेणी का टिकट खरीद कर दिया गया।

सर्वधर्म सम्मेलन में स्वामी जी ने जो जो विलक्षण व विद्वता पूर्ण भाषण दिया वह इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। इस भाषण से स्वामी जी की कीर्ति पूरे विश्व में फैल गयी।

स्वामी जी ने अमेरिका से पहला पत्र  राजा अजीत सिंह जी को लिखा - " श्रीमन , श्री नारायण आपका तथा आपके सम्बन्धियों का  कल्याण करे। श्रीमन की कृपा पूर्ण सहायता से ही मैं इस देश में आ सका .................क्षत्रिय ही भारत वर्ष की अस्थि मज्जा है। "

स्वामीजी ने एक सभा में कहा था -" भारत वर्ष की उन्नति के लिए जो थोडा बहुत मैंने किया वह कभी नही होता यदि राजाजी मुझे नही मिलते।"

Friday, May 3, 2013

राजस्थानी के प्रसिद्ध कवी बद्रिदान जी गाडण (हरमाड़ा ) ने राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलवाने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री भैंरू सिंह जी को रिझाने के लिए प्रशंसा में दो गीत लिख भेजे , किन्तु उस पर जब कोई प्रतिक्रिया नही हुई तो कवी ने  उलाहना के दोहे भी बना भेजे :

मायड़ भाषा मोह ,उकसयो मोनू इसो !
तो मैं कियो मतोह , तोने बिडदावण तणो !१ !

मैं जाणी मन मांय , बिडदायां हिमत बंधे !
पण थारी न पाय , दिसी भैंरू देवरा  ! २ !!

आगै ख्यात अनेक , बीडदायां सिर बोलिया !
इण कलयुग में एक , भणक न लागी भैरवा  ! ३ !!

लोही थारो लाल ,मिलतो टोडरमाल सो !
कलजुग तणी  कुचाल , भेळ दियो मळ भैरजी !! ४ !!

पख पोखर रै पाण , एक न सबद उचारियो !
अदत बिलोपी आण , मायड भाखा री मुदै  !५!!

तारीफां थारीह , बे बे गीत बणाविया  !
मत गुमी म्हारीह , पातर नह पिछाणीयो  !६!!

सेखा ! थारी साख , बधाई मैं बावलै !
रै नह सकियो राख , तूं भैरूं देवा तणा !!७!!

बंस बिगाडू व्यास , चाटुकार मोनू कवै !
उर बिच होय उदास , जहर तिको ही जरावियो !!८!!

बात पोस बिजोह , खिज्यो मो माथै खरो !
रै ! तो पर रिझ्योह , भोळप म्हारी भैरजी  !!९!!

मैं बिन्हू गीतां मांय , कबाई खाई किना !
निपट ताहरै नांय ,आ पूँजी माण्डी अजे !!१०!!

सुख बणतां सिन्धिह ,कुळ गोरव अनुभव करै !
बंस तण बिन्दिह , भली लगाई भैरजी  !!

 
गीत इस प्रकार था :

             " गीत शेखावत भैंरू सिंघ रो "
                    (बद्रिदान गाडण कहै ) 

राज भाजपा सजग प्रभारी , भैंरू सुभट बिजै हर भारी !
राजथान भान अणभंगी , सुर धानुख प्रभा सतरंगी  !!१!!

भावर्थ :
हे विजय सिंह के पोते सुभट भैरूं सिंह तुम भाजपा राज के सजग करता धरता हो। तुम राजस्थान के अभंग सूर्य हो ,इंद्र धनुष की सतरंगी प्रभा हो।

सेखावत मोटा सींगाल़ा , त्रहकै जीत तणा त्रम्बाला !
 तों उभां बैरी बिगताला, सकै किसूं बळ संच बडाला !!२!!

 भावार्थ :
हे सिंगोवाले(मारकणा)   बड़े सेखावत तुम्हारी जीत के नगारे गूज रहे हैं ,त्रह्क रहे हैं। तेरे खड़े रहते बैरी केवल तांक झांक करते है ,सामना नही कर  सकते, तुम्हें शंका किस से है हे ! पराक्रमी (बडाला )बल का संचय कर।

 तू भीखम भारथ भुज तोका , साहस सील स पुन्य सिलोका !
राजनीती रण पंडित रुडा , चाकर जगत प्रबुधा चुडा !!३ !!
हिये लोक हित रा नित हामी , निरभै जन नेता घण नामी !
बाग विदग्ध दग्ध अरि दावा , सज्जण सुध्द बिसुद्ध सुभावां !!४!!
लोकतंत्र रा मन्त्र सलोखा , प्रजातंत्र पहरायत पोखा  !
माडाणी लेणा जस मोडां , लाड़ाणी कीरत धन लोड़ा !!५!!
भाषा राजथान दुःख भांगण, अरज करै ऊभी अनुरागण !
कुण बैसाणे ऊंचै आसण , दुनिया बणी खड़ी दुशासन  !!६!!
आसगर तों सूं अजकाला , बिलखे आज द्रोपदी बाला !
हिमत कर नर हीमत हाला , बधा किसन ज्यूँ चीर बडाल़ा !!७!!

भावर्थ :
सारा भार तुम्हारे कन्धो पर है महाभारत के भीष्म की तरह ,हे  साहस व शील के  पुन्य श्लोक । राजनीतीक
युद्ध के तुम अच्छे (रुड़े ) खिलाडी हो, पंडित हो। हृदय से  लोकहित के हामी हो ,हिमायती हो।निर्भीक जन नेता के रूप में आप का घणा नाम है।वाक पटुता और दुश्मन के दावपेंचो को दग्ध करने वाले हो।स्वभाव में विशुद्ध सज्जनता है। लोकतंत्र के श्रेष्ठ मन्त्र ,प्रजातंत्र के पोषक पहरेदार अपने सिर पर यश का मोड़ ,सेहरा बंधवालो। हे लाडखानी भैरू सिंह !कीर्ति के धन को एकत्रित करलो। हे राजस्थानी भाषा  के दुःख को भांजने वाले यह अनुरागी भाषा ऊभी आप से अर्ज कर रही है। इस को कौन अपने ऊच स्थान पर फिर से स्थापित करेगा, दुनिया इस के मार्ग में दुशासन बनी खड़ी है। हे अजकाला यानि तेज गति वाले तुम्हारे से ही आशा है (आसागर ) द्रोपदी आज बिलख रही है। हे हिम्मत वाले नर हिम्मत कर व कृष्ण की तरह चिर को बढ़ा।  

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"आगै ख्यात अनेक ,बिडदाया सिर बोलिया "
जैसलमेर के साके में राव दुर्जन साल काम आ गया तो उनकी पत्नी ने चारण सांदू हूपा को अपने पति  का शीश लेने गुजरात के विजयी सुलतान के पास भेजा। जब चारण ने अपने आने का मन्तव्य सुल्तान को बताया तो उस ने कहा इन सिरों के ढेर में ढूंढ़लो। इस पर हुँपा ने कहा इस की जरूरत ही नही पड़ेगी ,जब मै राव के विरुद का बखान करूंगा तो सिर अपने आप बोल पड़ेगा। ऐसा प्रसिद्ध है कि राव दुर्जन साल का सिर बोलने लगा कि अरे हूपा यदि इस समय मेरे हाथ पांव होते तो मै इस बेग्ड़े को मार कर अभी बदला ले लेता।



नागरीदास - महाराजा सावंत सिंह जी किशनगढ़

भक्त नागरीदास जी महाराज (महाराजा सांवत सिंघजी किशनगढ़ )

विगत की कुछ शताब्दियों से एक भ्रांत धारणा यह रही कि आर्यों में  क्षत्रिय यानि राजपूत केवल और केवल एक लड़ने वाला वर्ण है , इस का विद्वता व आध्यत्म से ज्यादा नजदीक का सम्बन्ध नही है। जबकि आर्य वैदिक संस्कृति में क्षात्र धर्म की विशद व्याख्य है वर्णन है। जिसको गीता में कृष्ण ने बड़ी ही गहराई से परिभाषित किया है।
राम व कृष्ण इसी क्षत्रिय परम्परा के पोषक हैं , भगवान बुद्ध व महावीर ने इसी परम्परा को आगे बढाया। मध्य युग में जो भी देवता हुए ,समाज सुधारक हुए वे क्षत्रिये ही थे। चाहे रामदेव जी हों ,गोगाजी हों या पाबूजी हों। भक्त कवियों व साधकों की एक लम्बी कड़ी है। मीरा तो भक्ति की पराकाष्ट है। इसी कड़ी में भक्त नागरीदास जी का नाम भी  बड़ी श्रधा से लिया जाता है।
 महाराजा राज सिंह जी किशनगढ़ के कनिष्ठ पुत्र सावंत सिंह जी का जन्म  १ ६ ९ ९ ई. को हुआ। ये बच्चपन से ही  बड़े  वीर व पराक्रमी थे।   किशोरावस्था में ही इन्होने बूंदी के हाडा राजा जैत सिंह पर विजय हासिल की थी। ये इतने निर्भीक थे कि एक बार जब यह दिली दरबार में बैठे थे तो अचानक इन के जामे एक सांप घुस गया बिना विचलित हुए इन्होने सांप के फन को दबा कर अपनी पोषक के अंदर ही कुचल दिया।
अपने पिता की मृत्यु के समय ये अपने पुत्र सहित दिल्ली में थे। पीछे से इनके छोटे भाई ने राज्य पर अधिकार कर लिया। इस अन्याय के प्रतिकार हेतु इन्होने छोटे भाई को परास्त कर राज्य पर फिर से अधिकार कर लिया , किन्तु इस घटना से इतने विक्षुभद हो गये कि विरक्त हो कर राज्य अपने पुत्र व भाई में बाँट दिया व खुद वृन्दावन चले गये।
विरक्त होकर वृन्दावन जाने से पहले से ही इनका भक्ति की पद्य रचनाओ में उपनाम "नागरीदास " प्रसिद्ध हो चूका था।इन्होने ७५ ग्रंथो की रचना की है। इनकी बहन सुंदर कंवर भी ख्यातिनाम कवियत्री हुयी हैं,जिनकी दासी  "बणी ठणी " भी रसिक बिहारी नाम से कविता करती थी। किशनगढ़ की राधा के रूप में "बणी ठणी" के चित्र विश्व प्रसिद्ध हैं।

राज्य विरक्ति से सम्बन्धित यह दोहा प्रसिद्ध है :

जहाँ कलह वहां सुख नही , कलह सुखन को शूल !
सबै कलह एक राज में , राज कलह को मूल  !!

वृन्दावन में जब लोगो ने सुना कि किशनगढ़ महाराजा सांवत सिंह जी आये हैं तो कोई मिलने नही आया किन्तु जब मालूम  पड़ा की नागरीदास आये है तो लोग बान्थ भरकर मिले :

सुनी व्यवहारिक नाम को , ठाडे दूर उदास !
दौड़ मिले भरी भुजन सुनी , नाम नागरीदास !!

वृन्दावन में इनके हाथ खर्च ,दान पुन्य आदि के लिए नियमित राशी आती थी किन्तु एक बार उसमे कुछ
विलम्ब हो गया तो इन्होने अपने पुत्र को यह दोहा लिख भेजा :

दांत गिरे और खुर घिसे , पीठ बोझ नही लेत !
ऎसे बूढ़े बैल को , कोन बांध खल देत  !!


ठाकुर खंगार सिंह लाडखानी के पास एक चारण आकर रुका हुआ था, रात में चारण ने सेवक को हुक्का भर कर लाने के लिए आवाज दी किन्तु बार बार पुकारने पर भी जब सेवक नही जागा तो स्वयम खंगार सिंह ने हुक्का भरकर चारण को पकड़ा दिया। चारण ने क्रोध में दो -चार बेंत खंगार सिंह को सेवक समझ कर लगा दी।
सुबह चारण को लगा की उसे रात में क्रोध नही करना चाहिए था। उसने सेवक को कहा  की रात में गलती से क्रोध में तुम्हे बेंत जड  दी उस के लिए मुझे दुःख है. किन्तु जब सेवक ने कहा कि मैंने तो रात में आप को हुक्का भर कर नही दिया था। तब तो चारण को वास्तविक स्थिति मालूम हुई, और उसे बड़ा पशचाताप हुआ और उसने निम्न दोहा कहा :

लाडाणी जस लुटियो , मांडाणी जग मांय !
कीरत हंदा  कोरडा , त्राता जुगां न जाय  !!

भावार्थ : हे लाडाणी (लाडखानी खंगार सिंह ) तुमने इस संसार में बड़ा यश लूट लिया है, यह कीर्ति के चाबुक युगों तक याद रखे जायेंगे।

भृगु लात उर में दई , पग मोरा बल हीन !
खागा जस रै कारणे , सह्या कोरडा तीन !!

 

Thursday, May 2, 2013

कुंभाथल वाही किसी ,जोग री जमदडढ !
जाण असाढ़ी बीजली , कालै बादल कडढ !!
भावार्थ :
भाटी जोगादास की कटारी उस भीमकाय काले हाथी के मस्तक पर इस प्रकार तीव्रता से जा घुसी ,मानो अषाढ़ के काले बादल में बिजली कोंधी हो।

महाराजा शूर सिंह जी जोधपुर ने भाटी गोयन्दास को अपना प्रधान बनाया व लवेरा की जागीर दी , इन्ही गोयंद दास के पुत्र जोगीदास भाटी थे। यह महाराजा का विश्वस्त सेवक व साहसी योधा था। सम्वत १६६८ में बादशाह जांहगीर की फोज  दक्षिण की तरफ जा रही थी ,उस में कई राजा व नवाब भी साथ थे। उसी समय एक विचित्र घटना घटी। आमेर के कछावाह राजा मान सिंह के एक उमराव का हाथी मदोन्मत हो गया और संयोग से भाटी जोगीदास अपने घोड़े पर बैठा उधर से निकल रहा था। उस मदोन्मत एवं भीमकाय हाथी ने सहसा अपनी सूंड से जोगीदास को घोड़े की पीठ से उठाकर निचे पटका और दांतों से उसे आर पार वेध डाला। जोगीदास ने हाथी के दांतों में पिरोये हुए और बिंधे हुए शरीर से भी अपनी कटारी निकाल कर तीन प्रहार कर उसके कुमभ्सथल पर घाव कर डाले। जोगीदास भाटी के इस साहस को देख कर लोग दंग रह गये। राजा मान सिंह ने तो उसकी वीरता से प्रभावित हो वह हाथी महाराजा  शूर सिंह को भेंट कर दिया।