Tuesday, July 22, 2014

दादीसा ढापा ढकै

         दादीसा ढापा ढकै - हर्ष दान हर्ष की कविता 

पीड रा खेत में अपणा ही ,
जायोड़ा रे हाथां
बोया कुटिल बीजां नै उगता देख रै ,
दादीसा करलापे।
रह्या जिगर रा टूक ,आँख रा  तारा
वा किण विध दुत्कार'र
उण रो परित्याग करै।
अपणो मन मसोसती मन ई मन सोचती ,
या जांघ उघाड़ूं तो या लाजां मरै ,
अर या  उघाड़ूं तो या जांघ लाजां मरै।
लाज रा फेर में अपणी कुख री
अपणा कुटम कबीला री लाज राखण नै
निगोड़ा जायोडां री
नित नुवीं करतूतां रा
दादीसा ढ़ापा ढकै।


( यह ढ़ापा ढकना ऐसा शब्द है जिसका अनुवाद सही सही नही किया जा सकता है। सभी दादी , मातायें अपनी नाजोगी संतानो के अवगुणो को ढकती ही रहती हैं। )
   

Sunday, July 20, 2014

महाराणा कुम्भा बहुत ही पराक्रमी शासक हुये हैं।सन १४१९ ई में राजगद्दी पर बैठे सन १४६९ ई में इन के पुत्र ने इनकी हत्या करदी।   उन्होंने नागौर से मुसलमानो को भगा दिया। मालवा के सुलतान मोहमद ख़िलजी को परास्त कर चितोड़ के किले में विजय स्तम्भ बनवाया। कुम्भलगढ़ का गढ़ इन्ही का बनवाया हुआ है। मुख्यद्वार पर हनुमान पोळ है जिसमे हनुमान जी की विशाल मूर्ति है जो नागौर जीत कर वंहा से लायी गयी थी। ये  खुद संस्कृत के विद्वान थे। राजदरबार में कवियों का सम्मान था।  एक दफा इन्होने एक गाय को ताण्डव करते देखा और सहसा इन के मुख से निकला  "कामधेनु तंडव करिये " किन्तु दूसरी पंक्ति जुड़ नही रही थी। दरबार में आकर बैठे परन्तु वंहा भी बीच -बीच में "कामधेनु तंडव करिये " मुंह से निकल जाये। एक कवि जो दरबार में उपस्थित था ने महाराणा की विक्षिप्त सी स्थिति को समझ कर कवित पूरा किया -

जद धर पर जोवती मन मांह डरंती।
गायत्री संग्रहण -दृष्टी नागौर धरंती।।
सुर तेतीसों कोड -आण निरंता चारो।
नह खावत न चरत -मन करती हहकरो।
कुम्भेण राण हणीया किलम -आंजस उर डर उतरियो।
तिण दीह द्वार शंकर तने -कामधेनु तंडव करिये।।

( गाये मुसलमानो से संत्रस्त थी ,देवता चारा डालते तो भी नही खाती थी। राणा कुम्भा ने मुसलमानो का नाश किया इस से इस के मन का डर जाता रहा और इसलिए शंकर के द्वार पर जा कर गाय ने हर्ष से तांडव किया।) 

Saturday, July 19, 2014

हर्ष व जीण

                                         हर्ष व जीण   

सीकर के पास हरस का पहाड़ है इस पर हर्षनाथ शिव का मंदिर है। इस मंदिर को ओरंगजेब के समय क्षति पंहुचायी गयी। जब शिव ने दानवों  संहार किया तो उन्हें बड़ा हर्ष हुआ व वे नृत्य करने लगे और तब से वे  हर्षनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुये। पास ही दूसरी पहाड़ी पर जीण माता का मंदिर है यह माता जयंती देवी है। ये  मंदिर बहुत ही प्राचीन हैं। यह मंदिर गुप्त काल में भी विध्यमान था। नवमी शताब्दी में चौहान राजा गुवक ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। 

            इस संबंध में एक जन काव्य "हरस व जीण " के नाम से बड़ा प्रसिद्ध है। यह बहिन -भाई के स्नहे को दर्शाता है। 
        चुरू के पास घांघू नामक एक गाँव है जो पुराने समय में बड़ा समृद्ध था। घांघू के चौहान राजा घंघ देव के हरस नामक एक पुत्र व जीण नामक एक पुत्री थी। राजा की मृत्यु के उपरान्त हरस की पत्नी ने अपनी ननद जीण को कुछ ताना मार दिया जिस से रुष्ट होकर घर से निकल गयी व सीकर के पास  पहाड़ी पर तपस्या करने लगी। भाई हरस उसे मनाने आया किन्तु उसने लौटने से मना कर दिया तब तो हरस भी समीप की दूसरी पहाड़ी पर तपस्या करने लगा। इस प्रकार हरस ने जिस पहाड़ी पर तपस्या की उसे हरस का पर्वत व हर्ष को शिव के रूप में व जीण को माता के रूप में पूजा गया।