Sunday, October 13, 2013

"शुरू में मुझे राजस्थानी साहित्य से ही लिखने की प्रेरणा मिली। इस साहित्य को पढ़ा ,सुना और समझा तब तो यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि इस साहित्य में तो राजस्थान का इतिहास गुंफित है।  साहित्य को पढ़े बिना राजस्थान का इतिहास जाना ही नही जा सकता। जो एतिहासिक घटनाओं व तथ्यों का वर्णन इन रचनाओं के द्वारा प्रकाश में आता है ,वह प्रमाणिक कहे जाने वाले इतिहास ग्रंथो में भी प्राप्त नही होता। इसी कारण मैं शनै: शनै: इतिहास की तरफ उन्मुख हुआ। साहित्य में मुझे इतिहास के दर्शन हुये ,फिर तो मैंने इतिहास के लेखन में इन काव्य रचनाओं उद्धरण भी प्रमाणों के रूप में उधृत करने चालू किये जिनसे इतिहास ग्रंथो में सरसता आई ,प्रमाणिकता बढ़ी ,पढने वालों में रूचि की बढ़ोतरी हुयी। इतिहास ग्रंथो के लेखन में रही कमियों को इन काव्य रचनाओं ने पूर्ण किया। सामान्य स्तर के वीरों के इति वृतों के विषय में इतिहास ग्रन्थ मोन थे। किन्तु इन रचनाओं से वे सामान्य वीर अमर  हुए।"
                            (सुरजन सिंह शेखावत - सुरजन सुजस  पृष्ट 21 )

 "आध्यत्म चिन्तन मेरे मन का प्रिय एवं उसको (मन को ) पोषण देने वाला  विषय है। इससे विलग रहकर कुछ सोचना मेरे मेरे लिए आत्मतोष का विषय नही हो सकता। आनन्दाभुती के लिए यही चिन्तन मेरा आधार है ,भाव धरातल है तथा काव्य सृजन हेतु दिव्य मंच है।
                            (सुरजन सिंह शेखावत - सुरजन सुजस  पृष्ट 22 )


डॉ.शम्भू सिंह जी मनोहर ने अपनी पुस्तक अचलदास खिंची री  वचनिका -गाडण सिवदास री कही -ग्रन्थ के मुख पृष्ठ पर अंकित भावोद्गार -
"अतीत की अनमोल संपदा को प्रलोकित करने हेतु जो स्वयम दीप शिखा से तिलतिल विसर्जित होते रहे हैं ,इतिहास के महार्णव का मंथन कर अलभ्य ग्रन्थ रत्नों से जिन्होंने शारदा का चरणार्चंन किया है , उन्ही क्षत्रिय कुल के रत्न श्रीमान ठा.सा.सुरजन सिंह शेखावत झाझड़ को ,उनके दीर्घायुष्य की अनंत मंगल कामना के साथ सादर समर्पित। "

Friday, October 11, 2013

अतीत को खोजता एक वर्तमान -सुरजन सिंह शेखावत का इतिहास ज्ञान

अतीत को खोजता एक वर्तमान -सुरजन सिंह शेखावत का इतिहास ज्ञान 
( तारादत्त 'निर्विरोध ' की पुस्तक शेखावाटी व्यक्ति वैशिष्ट्य से-  यह पुस्तक 1985 में प्रकाशित हुई थी )

शेखावाटी इतिहास के यशस्वी लेखक  सुरजन सिंह जी शेखावत राजस्थानी साहित्य ,लोक जीवन एवं इतिहास
के अध्यता विद्वान और अन्वेषी हैं। 'राव शेखा ' ,मांडण का युद्ध 'एवं 'नवलगढ़ का इतिहास 'उनकी शोधात्मक

प्रकाशित कृतियाँ हैं जिनके लेखन में उनकी इतिहास की समझ रही है। वे ऐसे तथ्यों को उजागर करने के

प्रयास में हैं जिनके आभाव में  इतिहास अभी भी आधे अधूरे हैं। आज तक शेखावाटी के जो इतिहास सामने

आये हैं उनमे कुछ मुस्लिम और कुछ राजपूत शासकों के के हालातों पर आधारित हैं। इस से पूर्व का इतिहास

अभी तक स्पष्ट रूप से सामने नही आया है।

      सुरजन सिंह शेखावत का कहना है कि यदि इस दिशा में गहरे पानी पैठा जाये तो अनेक महत्वपूर्ण और

इतिहास गत तथ्य तलाशे जा सकते हैं। उन्होंने शेखावाटी का इतिहास पाणिनि काल से प्रारम्भ किया है और

इस कार्य में उन्हें सफलता भी मिली है। इतिहास ने उन्हें अत्यधिक अनुप्राणित किया है और वीर पूर्वजों की

शोर्य गाथाये ,ख्याते व वीरतापूर्ण बातें उनके लेखन की प्रेरणा स्त्रोत रही  हैं।

          उन्होंने पन्द्रह  वर्ष की अल्प आयु में टाड़ के इतिहास का हिंदी अनुवाद पढ़ा था और तभी से अतीत को

जानने के लिए वे अध्ययन रत रहे और जो ज्ञान अर्जित किया उसे लिखा भी। स्वाधीनता संग्राम के सेनानी

एवं देशभक्त राव गोपाल सिंह जी खरवा के सानिध्य में रहते हुए उन्होंने शताधिक प्रमाणिक इतिहास ग्रंथो

को आद्यांत पढ़ा और इस तरह उनका इतिहास ज्ञान बहुगुणित होता चला गया और उसी ज्ञान ने उन्हें

शेखावाटी का इतिहासज्ञ बनाया।

            शेखावत ने सन 1940 ई. से ही इतिहास विषयक शोधपूर्ण आलेख लिखे जो राजस्थान से प्रकाशित

'मरुभारती ' , क्षात्र धर्म ' ,'क्षत्रिय गोरव ', 'संघ शक्ति ' ,एवं 'मीरां '  पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। उन्होंने

इतिहास व उस से सम्बन्ध   डिंगल साहित्य पर भी अनेक आलेख लिखे ,किन्तु उन वर्षों में 'खरवा संस्थान '

के शासकीय प्रबंध में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण वे साहित्य की मनोवांछित सेवा नही कर सके।

           सेवा निवृति के बाद जब वे अपने झाझड़ (शेखावाटी ) ग्राम लौटे तो उनके साथ एतिहासिक सन्दर्भ ,

वीरता पूर्ण प्रसंग , इतिहासगत अनुमान और इतिहास के अध्ययन -अवगाहन सभी तो साथ थे ,और जब

लेखन का क्रम बना तो अस्वस्थता के बावजूद आज भी वे नियमित रूप से इतिहास लिख रहे हैं।

          23 दिसम्बर 1910 ई. को झाझड़ ग्राम में जन्मे सुरजन सिंह शेखावत ने 1930 ई. में अंग्रेजी में मेट्रिक

की परिक्षा उतीर्ण की थी और बाद में इलाहबाद से हिंदी में व काशी विश्व विध्यालय से संस्कृत में प्रथमा की

उपाधियाँ प्राप्त की।  झाझड के अलावा उनका दूसरा घर खरवा रहा जहाँ उन्होंने इतिहास को जीवन से अधिक

जीया। मरुभारती सम्पादक स्व. कन्हैया लाल सहल एवं क्षात्र धर्म  सम्पादक स्व. ठाकुर नारायण सिंह ने उन्हें

 लिखने के लिए प्रेरित -प्रोत्साहित  भी किया और प्रशंसित भी।  उन्होंने लेख भी लिखे और डिंगल में

कविताये भी लिखी।

       कहने लगे "शेखावाटी के इतिहास का विषय चाहे एक हो ,किन्तु यहाँ के सही तथ्यों की जानकारी प्राप्त

करने के लिए अभी तक किसी भी विद्वान ने इस क्षेत्र के पुराकालीन विस्मृत तथ्यों का गहन अध्ययन और

उस पर चिन्तन -मनन नही किया है। जो कुछ लिखा गया है वह उपरी सतह पर ही लिखा गया है। शेखावाटी

पर मेरा कार्य अनेक वर्षों के अध्ययन ,मनन ,चिन्तन और सत्य के निकट पहुंचने के प्रयासों की परिणिति

है। मेरी स्थिति यह रही कि जब कोई उलझन हुई तो मैंने लिखना बंद कर दिया और जब आधार या अनुमान

से किसी निष्कर्ष तक पहुंचा ,तभी लेखन प्रारम्भ किया। "

              यह सत्य है कि शेखावाटी प्रदेश के इतिहास पर कार्य तो किया गया ,किन्तु इसका प्राचीन इतिहास

नही मिल पा रहा।  जो आधुनिक काल में शेखावाटी अंचल के रूप में है उसको प्राचीन काल में कई नामो से

जाना गया है और ढाई हजार वर्षो में यहाँ कई शासक आये और इतिहास नया रूख बदलता रहा। यह क्षेत्र

अनेक परगनों और प्रान्तों वाला क्षेत्र है जिसका इतिहास अनेक पर्तों में दबा पडा है। प्राचीन काल के प्रमाण

भी उपलब्ध नही होते ,सामग्री का भी अभाव है और जो अनुमानों के आधार पर लिखा जाता है उसके सन -

संवतों में भटकाव ही है।

       उन्होंने बताया -"हमारे पुरातत्व मर्मज्ञ विद्वानों ने प्राचीन काल से सम्बन्धित जो सामग्री शिलालेखों

एवं प्राचीन ग्रंथो के अध्ययन के फलस्वरूप संकलित की है उसी के आधार पर अनुमानों के साथ शेखावाटी के

पुराकालीन इतिहास की अस्पष्ट सी रूप रेखा प्रस्तुत करना ही मेरा प्रयास है।

        " मेरा मानना है कि शेखावाटी का इतिहास ढाई हजार वर्षों से प्रकाश में आता है और तब शेखावाटी दो

जनपदों में विभक्त थी।  एक जांगल व दुसरा मत्स्य। पहला प्रान्त जांगल झुंझुनू व सीकर जिलों को अपने

पूर्वोतरी अंचल में रखे हुए  पश्चिम तथा उतर में दूर तक फैला  हुआ था -जहाँ शाल्व कबीले राज्य करते थे

कुछ विद्वान शाल्वों को इरानी कहते है ,किन्तु मैं उन्हें पंजाब के स्यालकोट प्रान्त से आये हुए गणतंत्रीय

क्षत्रिय मानता हूँ। मत्स्य प्रान्त में अमरसर ,शाहपुरा ,मनोहरपुर आदि क्षेत्र भी सम्मिलित थे।

         गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त तक वह प्रदेश मत्स्य राज्य के नाम से जाना जाता था। गुप्त साम्राज्य के पतन

काल में यहाँ हूणों के आक्रमण हुए - फिर गुजर आये जिनकी एक शाखा बडगुजर के नाम से प्रसिद्ध हुई।

हर्षवरधन के काल में यहाँ गुजरों का भी एक स्वतंत्र राज्य था। एक अंतराल के बाद कछवाहो ने बडगुजरों

व मीणों से यह प्रदेश छीन लिया तब उन्ही की एक शाखा शेखावतों ने अमरसर के आस-पास के भूभाग को

वहां के छोट- छोटे शासक घरानों से जीत कर शेखावतों का प्रथम उपनिवेश बनाया जो नाण अमरसर के

शेखावत राज्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उधर शाल्वों को यौधेयों ने पराजित किया और कुछ वर्ष नरहड़ व

झुंझुनू पर यौधेयों का आधिपत्य रहा। इसके बाद गुर्जरों ,डाहलियो एवं चोहानो  (जोड़ चौहान ) और फिर

उन्ही की एक शाखा कायमखानी -चौहानों एवं नागड पठानों का राज्य रहा और बाद में यह क्षेत्र भी शेखावतों

के अधीन रहा। "

        उनका कहना था कि राज्य किसी का भी हो , जिनका इतिहास है वे कौमे मिट नही सकती। वे टूटी -फूटी

गढ़ियाँ पहाड़ियों पर खड़ी हैं ,कभी हुंकार उठेंगी। गर्व तो सतियों -सूरमाओं के चबूतरों को देख कर होता है।

इतिहास की अनिवार्यता से नकारा नही जा सकता और जिसका कोई इतिहास नही उसका कोई भविष्य भी

नही। इतिहास तो अतीत से वर्तमान को जोड़ने वाली पगडंडी है ,दिशा है ,नई पीढ़ीयों  के लिए प्रेरक सन्देश है।

          सुरजन सिंह शेखावत पढ़ते या सोते समय अतीत में जीते हैं -कभी सन -संवतों के पास ,कभी कड़ी से

कड़ी को जोड़ते हुए प्रसंग और सन्दर्भ के बीच के रूप पहचानते हुए। उनका यह शोध -क्रम  निरंतर बना है

और वे लिखते हैं तो इतिहास का वह युग ,वह शासन और सम्बन्धित परिस्थितियां -तिथियाँ उनके मानस

पर रेखांकित रहती है ,जैसे वे इतिहास को फिल्मा रहे हों किसी शक्ल के साथ।