Friday, May 3, 2013

नागरीदास - महाराजा सावंत सिंह जी किशनगढ़

भक्त नागरीदास जी महाराज (महाराजा सांवत सिंघजी किशनगढ़ )

विगत की कुछ शताब्दियों से एक भ्रांत धारणा यह रही कि आर्यों में  क्षत्रिय यानि राजपूत केवल और केवल एक लड़ने वाला वर्ण है , इस का विद्वता व आध्यत्म से ज्यादा नजदीक का सम्बन्ध नही है। जबकि आर्य वैदिक संस्कृति में क्षात्र धर्म की विशद व्याख्य है वर्णन है। जिसको गीता में कृष्ण ने बड़ी ही गहराई से परिभाषित किया है।
राम व कृष्ण इसी क्षत्रिय परम्परा के पोषक हैं , भगवान बुद्ध व महावीर ने इसी परम्परा को आगे बढाया। मध्य युग में जो भी देवता हुए ,समाज सुधारक हुए वे क्षत्रिये ही थे। चाहे रामदेव जी हों ,गोगाजी हों या पाबूजी हों। भक्त कवियों व साधकों की एक लम्बी कड़ी है। मीरा तो भक्ति की पराकाष्ट है। इसी कड़ी में भक्त नागरीदास जी का नाम भी  बड़ी श्रधा से लिया जाता है।
 महाराजा राज सिंह जी किशनगढ़ के कनिष्ठ पुत्र सावंत सिंह जी का जन्म  १ ६ ९ ९ ई. को हुआ। ये बच्चपन से ही  बड़े  वीर व पराक्रमी थे।   किशोरावस्था में ही इन्होने बूंदी के हाडा राजा जैत सिंह पर विजय हासिल की थी। ये इतने निर्भीक थे कि एक बार जब यह दिली दरबार में बैठे थे तो अचानक इन के जामे एक सांप घुस गया बिना विचलित हुए इन्होने सांप के फन को दबा कर अपनी पोषक के अंदर ही कुचल दिया।
अपने पिता की मृत्यु के समय ये अपने पुत्र सहित दिल्ली में थे। पीछे से इनके छोटे भाई ने राज्य पर अधिकार कर लिया। इस अन्याय के प्रतिकार हेतु इन्होने छोटे भाई को परास्त कर राज्य पर फिर से अधिकार कर लिया , किन्तु इस घटना से इतने विक्षुभद हो गये कि विरक्त हो कर राज्य अपने पुत्र व भाई में बाँट दिया व खुद वृन्दावन चले गये।
विरक्त होकर वृन्दावन जाने से पहले से ही इनका भक्ति की पद्य रचनाओ में उपनाम "नागरीदास " प्रसिद्ध हो चूका था।इन्होने ७५ ग्रंथो की रचना की है। इनकी बहन सुंदर कंवर भी ख्यातिनाम कवियत्री हुयी हैं,जिनकी दासी  "बणी ठणी " भी रसिक बिहारी नाम से कविता करती थी। किशनगढ़ की राधा के रूप में "बणी ठणी" के चित्र विश्व प्रसिद्ध हैं।

राज्य विरक्ति से सम्बन्धित यह दोहा प्रसिद्ध है :

जहाँ कलह वहां सुख नही , कलह सुखन को शूल !
सबै कलह एक राज में , राज कलह को मूल  !!

वृन्दावन में जब लोगो ने सुना कि किशनगढ़ महाराजा सांवत सिंह जी आये हैं तो कोई मिलने नही आया किन्तु जब मालूम  पड़ा की नागरीदास आये है तो लोग बान्थ भरकर मिले :

सुनी व्यवहारिक नाम को , ठाडे दूर उदास !
दौड़ मिले भरी भुजन सुनी , नाम नागरीदास !!

वृन्दावन में इनके हाथ खर्च ,दान पुन्य आदि के लिए नियमित राशी आती थी किन्तु एक बार उसमे कुछ
विलम्ब हो गया तो इन्होने अपने पुत्र को यह दोहा लिख भेजा :

दांत गिरे और खुर घिसे , पीठ बोझ नही लेत !
ऎसे बूढ़े बैल को , कोन बांध खल देत  !!


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