Sunday, May 5, 2013

मुझे क्षमा करदो मां

स्वामी विवेकानंद जी अप्रेल '१८९१ में खेतड़ी नरेश राजा अजीत सिंह जी के यहाँ ठहरे हुए थे। एक दिन राजा जी ने राजसभा में राजनर्तकी के नृत्य संगीत का कार्य क्रम  रखा वे चाहते थे कि स्वामी जी भक्ति परक भजनों एवम गीतों का आनंद ले। गायका का सुर माधुर्य प्रसिद्ध था। किन्तु स्वामी जी ने इनकार कर दिया और कहा साधु को संगीत -नृत्य से क्या लेना। 
जब राज  नर्तकी को मालूम हुआ तो उसने निवेदन करवाया कि महाराज आप मेरा गाया एक भजन तो सुनलो   
स्वामजी  आग्रह स्वीकार कर बैठ गये। साजिंदों ने साज मिलाया और नर्तकी ने आंतरिक गहराई में डूबे हुए मार्मिक स्वर लहरियों में भजन प्रारम्भ किया।

प्रभु मेरे अवगुण चित न धरो !
समदरसी है नाम तिहारो ,चाहो तो पार करो !
इक लोहा पूजा में राखत , एक वधिक घर परो !
पारस यह दुविधा नही जानत , कंचन करत खरो !

स्वामीजी की सारी चेतना झनझना उठी ,नेत्रों में अश्रु की धार बह  उठी। वैदिक ग्रंथो की वाणी  'सर्व खल्विदं ब्रह्म 'उन्हें उद्वेलित करने लगी। गुरु रामकृष्ण परमहंस का कथन - मैं परमात्मा को माता रूप में भेजता हूँ। परमात्मा का एक रूप माता भी है - स्मरण हो आया। 
अश्रुपूर्ण नेत्रों से स्वामीजी ने राजनर्तकी से क्षमा याचना करते हुए कहा - माँ ! मुझे क्षमा करदो। मैं ने तुम्हे पहचान ने भूल की। मुझे क्षमा करदो।

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