कपूत - सपूत
हिंगलाज दान कविया अपने समय के मानिता कवी हुए हैं , इन्होने कपूत व सपूत की व्याख्या इस प्रकार की है :
कपूत
कहियो फरजंद न माने काई , छक तरुनाई मछर छिले !
महली न तो मिले कमाई , माईतां न भूंड मिले !!
पढ़ पढ़ , ठीक सीख पडवा मां , कड़वा वचनां दग्ध करै !
जिमै घी गंहूँ जोडायत , मां तोडायत भूख मरै !!
बरते सोड सोडिया बेटो ,पैमद हेटो बाप पडे !
मूंडा हूँत न बोलै मीठो ,लालो बूढ़ा हूँत लडै !!
सरवण न हुवै हियो सिलावन , हियो जलावन कंस हुवै !
थोथै काम कुटीजै थाळी ,कळजुग राळी भांग कुवै !!
भावार्थ: कपूत बेटा योवन की मस्ती में एक बात नही सुनता ,कमाई पत्नी को व मायतों को भुंडाई मिलती है।
पत्नी की शिकायत पर मां को जले कटे वचन कहता है. पत्नी को घी गेंहू व मां भूक मरती है।
खुद के लिए सोड सोडिया व पिता के लिए पमद लगे बिस्तर , मुंह से एक शब्द मीठा नही निकलता
और बूढ़े से रोज रोज की लडाई।
ऐसा पुत्र हृदय को शीतलता देने वाला श्रवण नही हो कर ,हिया जलाने वाला कंस होता है। कलजुग में
कुए में भांग पड गई है,
हिंगलाज दान कविया जी की सटीक अभिव्यक्ति |
ReplyDeleteवेल्डन सर जी
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