राठोड दुर्गादास को महाराजा अजीत सिंह जी ने मारवाड़ से देश निकला दिया था ऐसी धारणा आम है, इस सम्बन्ध में यह दोहा भी प्रचलित है;
"इण घर आ हिज रीत , दुर्गो सफरा दागियो "
भावार्थ :
"इस घर की ऐसी ही रीति नीति है की दुर्गादास जैसे स्वामिभक्त को भी मारवाड़ में अंतिम संस्कार के लिये जगह नही मिली और उसे उजैन के पास शिप्रा नदी के किनारे दाग दिया गया।"
डॉ.रघुवीर सिंह जी सीतामऊ जिन्हें रिसर्च के लिए डी .लिट की उपाधि भी मिली हुई है ने दुर्गादास जी पर एक शोध पूर्ण पुस्तक लिखी है। उन्होंने दुर्गादास जी का निर्वासन स्वच्छिक माना है। उसी पुस्तक को मैं यहाँ उध्रत कर रहा हूँ।
"सांभर के युद्ध में मारवाड़ -आमेर की सेनाओं द्वारा संयोगवश अर्जित विजय ने , आखिर में अजित सिंह और सवाई जय सिंह को अपने अपने सिंहासनो पर सुद्रढ़ कर दिया। इस विजय ने राजस्थान के वास्तविक शक्तिशाली शासकों के रूप में उनकी प्रतिष्ठा को चार चाँद लगा दिये और मुग़ल सल्तनत के भविष्य निर्णायकों के रूप में उनकी महत्वाकांक्षाओं को बढ़ा दिया। ...................................................................
दुर्गादास राठोड ने अनुभव किया कि सांभर कि लड़ाई के बाद अजित सिंह एकदम बदल गया था।अब वह नम्रता पूर्वक उनकी राय नही लेता था .तथा उनके पूरे सहयोग और सक्रिय साहयता की चाह भी उसे नही थी। उसकी प्रत्येक सफलता ने उसे इतना निधडक बना दिया था कि वह उन लोगों से भी वास्तविक और काल्पनिक आधारों पर बदला लेने लगा ,जिन्होंने पहले कभी दुर्गादास को सहयोग दिया था। जोधपुर पर पहली बार कब्ज़ा करने के तुरंत बाद ही उसने जोशी गिरधर सांचोर को दण्डित किया , जिसने शाहजादा अकबर के बच्चों की देखभाल में सक्रीय सहयोग दिया था। कई बार उसे सार्वजनिक रूप से कोड़े लगाये गये। काल कोठरी में बंद ६ सप्ताह से अधिक उसे भूखा रखा गया जिस से उस ने दम तोड़ दिया। .......................................
जोधपुर प्रवेश के एक पखवाड़े के भीतर ही जोधपुर दुर्ग में महल के एक रसोई घर में उसने अपने ही महामंत्री राठोड मुकंदास चांपावत तथा उसके भाई रघुनाथ सिंह चांपावत की दुष्टता पूर्ण हत्या करवा दी। ...............
और अब जब कि उसने अजीत सिंह के स्पष्ट आदेशों की अवहेलना करने का दु : साहस किया , तब मारवाड़
लौटने पर दुर्गादास राठोड प्राणदंड स्थगन की आशा कदापि नही कर सकता था। .... अत: जब दुर्गादास राठोड मारवाड़ से सुरक्षित निकल कर मेवाड पंहुच गया था। तब ठेके पर लिए हुए अपने सादड़ी गाँव में रहते हुए उसने निश्चय कर लिया कि वह कभी मारवाड़ नही जायेगा तथा अजीत सिंह के हाथों अपनी नृशंस हत्या नही होने देगा। इस तरह मारवाड़ से दुर्गादास का आजीवन स्वैछिक निर्वास शुरू हुआ।
कुछ समय बाद महाराणा अमरसिघ को दुर्गादास के मारवाड़ न लोटने के निर्णय का पता चला . उसने सहर्ष दुर्गादास को को अपना सरक्षण प्रदान किया।विजयपुर परगना उसे जागीर में दिया व पन्द्रह हजार रुपया मासिक निर्वाह उपवृति देना मंजूर किया।
दुर्गादास उदयपुर की पिछोला झील के तट पर कुछ समय तक रहता रहा। पर कुछ समय बाद जब सादड़ी गाँव भी उसे जागीर में दे दिया गया तब वह अपने दो छोटे लडकों तेजकर्ण वह मेहकर्ण के साथ वहा चला गया। मालवा जाने से पहले कोई सात वर्ष तक दुर्गादास सादड़ी में ही रहा।
महाराणा के अनुरोध पर १७१७ ई. के अप्रेल महीने में दुर्गादास रामपुर आ गये व नवम्बर १७१७ ई. में रामपुरा का प्रबंध दीवान पंचोली बिहारीदास को सोंपा ,तब स्थिति इस प्रकार थी।
उस समय दुर्गादास राठोड अपने घटना प्रधान जीवन के ७८ वर्ष पुरे कर चूका था। अत: अपने जीवन का शेष भाग उसने कहीं निकट ही किसी पवित्र स्थान में बिताने का निश्चय किया जहाँ शांतिपूर्वक रह कर अपना समय ईश्वर के ध्यान व प्रार्थना में लगा सके। .................. अत : वह रामपुरा से सीधा उज्जन चला गया और प्राण छोड़ने के दिन तक वहीं रहा। इस प्रकार दुर्गादास राठोड ने अपना अंतिम श्वास पुनीत शिप्रा के तट पर शनिवार , मार्गशुक्ल पक्ष की एकादसी ,विक्रम सम्वत १७७५ तदनुसार २२ नवम्बर १ ७ १ ८ ई. को लिया। उस समय उसकी आयु ८० वर्ष ३ महीने २ ८ दिन की थी।
दुर्गादास राठोड ने अनुभव किया कि सांभर कि लड़ाई के बाद अजित सिंह एकदम बदल गया था।अब वह नम्रता पूर्वक उनकी राय नही लेता था .तथा उनके पूरे सहयोग और सक्रिय साहयता की चाह भी उसे नही थी। उसकी प्रत्येक सफलता ने उसे इतना निधडक बना दिया था कि वह उन लोगों से भी वास्तविक और काल्पनिक आधारों पर बदला लेने लगा ,जिन्होंने पहले कभी दुर्गादास को सहयोग दिया था। जोधपुर पर पहली बार कब्ज़ा करने के तुरंत बाद ही उसने जोशी गिरधर सांचोर को दण्डित किया , जिसने शाहजादा अकबर के बच्चों की देखभाल में सक्रीय सहयोग दिया था। कई बार उसे सार्वजनिक रूप से कोड़े लगाये गये। काल कोठरी में बंद ६ सप्ताह से अधिक उसे भूखा रखा गया जिस से उस ने दम तोड़ दिया। .......................................
जोधपुर प्रवेश के एक पखवाड़े के भीतर ही जोधपुर दुर्ग में महल के एक रसोई घर में उसने अपने ही महामंत्री राठोड मुकंदास चांपावत तथा उसके भाई रघुनाथ सिंह चांपावत की दुष्टता पूर्ण हत्या करवा दी। ...............
और अब जब कि उसने अजीत सिंह के स्पष्ट आदेशों की अवहेलना करने का दु : साहस किया , तब मारवाड़
लौटने पर दुर्गादास राठोड प्राणदंड स्थगन की आशा कदापि नही कर सकता था। .... अत: जब दुर्गादास राठोड मारवाड़ से सुरक्षित निकल कर मेवाड पंहुच गया था। तब ठेके पर लिए हुए अपने सादड़ी गाँव में रहते हुए उसने निश्चय कर लिया कि वह कभी मारवाड़ नही जायेगा तथा अजीत सिंह के हाथों अपनी नृशंस हत्या नही होने देगा। इस तरह मारवाड़ से दुर्गादास का आजीवन स्वैछिक निर्वास शुरू हुआ।
कुछ समय बाद महाराणा अमरसिघ को दुर्गादास के मारवाड़ न लोटने के निर्णय का पता चला . उसने सहर्ष दुर्गादास को को अपना सरक्षण प्रदान किया।विजयपुर परगना उसे जागीर में दिया व पन्द्रह हजार रुपया मासिक निर्वाह उपवृति देना मंजूर किया।
दुर्गादास उदयपुर की पिछोला झील के तट पर कुछ समय तक रहता रहा। पर कुछ समय बाद जब सादड़ी गाँव भी उसे जागीर में दे दिया गया तब वह अपने दो छोटे लडकों तेजकर्ण वह मेहकर्ण के साथ वहा चला गया। मालवा जाने से पहले कोई सात वर्ष तक दुर्गादास सादड़ी में ही रहा।
महाराणा के अनुरोध पर १७१७ ई. के अप्रेल महीने में दुर्गादास रामपुर आ गये व नवम्बर १७१७ ई. में रामपुरा का प्रबंध दीवान पंचोली बिहारीदास को सोंपा ,तब स्थिति इस प्रकार थी।
उस समय दुर्गादास राठोड अपने घटना प्रधान जीवन के ७८ वर्ष पुरे कर चूका था। अत: अपने जीवन का शेष भाग उसने कहीं निकट ही किसी पवित्र स्थान में बिताने का निश्चय किया जहाँ शांतिपूर्वक रह कर अपना समय ईश्वर के ध्यान व प्रार्थना में लगा सके। .................. अत : वह रामपुरा से सीधा उज्जन चला गया और प्राण छोड़ने के दिन तक वहीं रहा। इस प्रकार दुर्गादास राठोड ने अपना अंतिम श्वास पुनीत शिप्रा के तट पर शनिवार , मार्गशुक्ल पक्ष की एकादसी ,विक्रम सम्वत १७७५ तदनुसार २२ नवम्बर १ ७ १ ८ ई. को लिया। उस समय उसकी आयु ८० वर्ष ३ महीने २ ८ दिन की थी।
पहली बार मिली यह जानकारी ! आभार !
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