Tuesday, April 24, 2012

Thakur Surjan singh ji ka patr (1 )


इतिहासवेता एवम मनीषी ठाकुर सुरजन सिंह जी झाझड

        (पत्राचार द्वारा प्राप्त दुर्लभ संस्मरण )                                 ठा.रणधीर सिंह

श्रीमान ठाकुर  रणधीर सिंह जी निर्वाण से सादर जय गोपीनाथजी की बंचे,
ईश्वराधीन -भगवद शरणागति के सन्दर्भ में मार्ग दर्शन के आप के कृपा पत्र के लिए धन्यवाद .
आपने अपने इस ३१.७.९५ के पत्र के आरम्भ में ही मुझे भक्ति और आध्यत्म की और उन्मुख बने रहने की सलाह दी है.पढ़कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई और यह भी ज्ञात हुआ कि आप भी पूर्ण आस्तिक
एवम श्रद्धालु व्यक्ति है-प्रभु शरणागति पर पूर्ण भरोसा रखने वाले है.इसलिए सोचा कि इस अति गुह्ये भक्ति युक्त कर्मयोग पर मेरे विचार आपके  सामने व्यक्त करूं अन्यथा आवश्यकता नही थी.
आपको यह बतला देना आवश्यक है कि मैंने  
अपनी बाल्यावस्था से ही मेरे दार्शनिक एवम संध्यावंदन करने वाले पितु श्री के चरणों में बैठकर गीता ज्ञान कि शिक्षा ग्रहण  
करना आरम्भ कर दिया था. तत्पश्चात ही मुझे ब्रह्मचर्ये आश्रम में संस्कृत की ऊच शिक्षा ग्रहण करने हेतु  दिलाया था,सन१९२२ इस्वी
में जब मै१२ वर्ष का था. मेरी ४० वर्ष की आयु तक खरवा जाने के बाद भी मुझे असे देव तुल्य पिताजी की छत्रछाया और उनका संरक्षण मिलता रहा .उनके परलोक गमन सन १९५० ई.
में मैंने उनकी पवित्र स्मृति में श्रद्धा के सुमन अर्पित करते हुए ६ दोहों का सर्जन किया था.
वे दोहे आपको लिख भेज रहा हूँ .उन के अवलोकन से मेरे जीवन दर्शन के सम्बन्ध में आप कुछ अनुमान लगा सकेंगे .दोहे निम्नाकित है :-
दिव्य मूर्ति मेरे पिता , नमन करूं सतबार !
चार दशक मम आयु के , बीते तव आधार !!१!!
रजपूती भगती रखी , करी धर्म प्रतिपाल !
निर्बल जना सहायक रह्या ,दुष्ट जना उर साल !!२!!
मुख मंडल पर ओपतो ,रजपूती को तोर !
दाकलता जद धूजता, दुष्ट आवारा चोर !!३!!
संध्या वन्दन नित करी, अर्ध सूर्य नै देर !
गीता रामायण पढ़ी ,बेर बेर क्रम फेर !!४!!
बां चरणा में बैठ , म्ह सिख्यो गीता ज्ञान !
जीवन मरण रा रहस ने ,समझण रो सोपान !!५!!
म्हू अजोगो जोगो बण्यो,पिता भगती परताप !
याद करूं जद आज भी, मिटे ताप संताप  !!६!!

सन १९३० ई.में ही जब मै मुकन्दगढ़ तथा जयपुर में शिक्षा प्राप्त कर रहा था - मैंने शेखावाटी की बोली में ,जो राजस्थानी का ही अंग है -भक्ति परक दोहों सोरठों की रचना करना  शुरू कर दिया  था. . गत वर्ष  १९९४ ई. में जब मै रोग के मारक आक्रमण की चपेट में आया और नेत्र ज्योति में मंदता आ जाने पर तो मैंने ईश्वर वंदना में -ईश्वर को उपालंभ देते हुए अनेक दोहों सोरठों की रचना की थी -आप की जानकारी हेतु उन में से कुछ दोहे सोरठे लिख भेज रहा हूँ .सोचता हूँ मेरे को इस विषय की तरफ उन्मुख बने रहने की सलाह देने वाले व्यक्ति को मेरी यह टूटी फूटी रचना अवश्य पसंद आयेगी.

                                                    दोहा 
वंदन जग-विनशन विघन, करण सकल सिध काज !
सुख सम्पति बुद्धि सदन , नमो नमो गणराज !!
शरणागत वत्सल प्रभु , अखिल लोक विश्राम !
सुखदाता विपदा हरण ,नमो नमो श्री राम !!
विरुद आपरो है बड़ो ,शरणआया साधार !!
आयां शरणे आपरे ,पावे शांति अपार !!
राम प्रभु को नाम है , मेरे अमृत घूंट !
शोक रोग विपता हरे , आपै शांति अखूट !!
राम नाम रटतो रहूँ ,राम राम श्री राम !
राम प्रभु का नाम बिन ,मिले नै मन विश्राम !!

                                       सोरठा
माता पिता तूं तात ,तूं रक्षक तूं भय हरण !
शरण टिहरी आत , पाप पुंज भागे परा !!
रोम रोम में रम रिह्या ,दया सिन्धुप्रभु राम !
सुख दाता विपता हरण , नमो लोक अभिराम  !!
रात दिवस श्री राम का , अजपा जप करूं  !
अन्तकाल सुधि में रहूँ , सुमिरण करत मरुँ !!
करता भरता जगत का ,हरता विपद तमाम !
शरणागत हूँ आपकी , नमो नमो श्री राम  !!
राम नाम लिधां मिटे , कोटि जनम रा पाप !
हरी को शरणों ई बड़ो ,मिटे ताप संताप !!
सब धरमा ने छोड़ , जो लेवे हरी की  शरण !
उण मानव री होड़ , तपसी जोगी ना करे !!
सब धरमा ने त्याग , जो आवे हरी की शरण !
वोह नर बड़ भाग ,  मानव सारां में सिरे !!

       आध्यत्म ईश्वर की सर्व व्यापकता

नमस्कार आदि पुरष , परम तत्व परमेस  !
नेति नेति कह थक गया , ब्रह्मा विष्णु महेस !!
 तूं ही गति भरता  तूं ही, तूं ही जीवन प्राण !
साक्षी रूप सूं देह में , तूं ही कृपा निधान !!
तीन लोक चवदह भुवन , व्याप रह्यो विभु एक !
नाम रूप का भेद सूं ,उपजे जीव अनेक  !!
नाम रूप मय सृष्टि  को, आदि अंत तूं देव !
करमा रा फल भोगबा, उपजे जिव सदेव !!
पशुपक्षी नर आदि में ,व्याप रह्यो विभु एक !
नाम रूप का भेद सूं, भासे जीव अनेक !!
विश्व रूप विभु व्याप्त है,सब प्राणी में एक !
नर है करता कर्म को , शुभ अरु अशुभ अनेक !!
ईश्वर को आवास ह , मानव  के मन मायं !
बाहिर क्यों ढूंढ़त फिरे , ठोर ठोर तूं जाय!!
 विश्व रूप व्यापक विभु ,सब ठा एक समान !
अवनी अरु आकाश बिच , जड़ चेतन सब जान !!
विश्व रूप आराधना ,भूखां भोजन देय !
ता पीछे भोजन करे , यामे है सब श्रेय !!
व्यापक सब में एक विभु , मेंगल कीड़ी मायं !
मानव जन सब एकसा, ऊंच नीच कोऊ नाय !!
सत्संग सूं ऊंच है , कुसंगत सूं नीच !
कीच उछाले और पर , पड़े आप सिर बीच !१

                              धर्म
दया बराबर धर्म नही ,सह धरमा को सार !
दया बिना नर पशु नीरा ,जीवन है निस्सार !!
दियो युधिष्टर यक्ष ने ,दया महत्व समझाय !
ओ व्रतान्त पढ़ज्यो नरा,महाभारत के माँय !!
काया दी करतार ने,पांच धर्म पहिचान !
भूखां ने भोजन दिवे ,घर आयां नै मान !
                             सोरठा
 दीन्ही सुंदर देह ,जग कल्याण हित जगतपति !
दीन हीन ने देह ,साथ न कुछ ले जावसी !!
घर आयां भोजन दिवे ,देवे आदर ऊठ !
नम्र भाव सह सूं रखे ,तकै न किन री पूठ!!

              शरीर की क्षण भंगुरता 
क्षण भंगुर इण देह रो ,मोह करे सो मूढ़ !
जीव अमर अंश ईश रो,समझो अर्थ विगूढ़ !!
जलम्या को मरबो जरू, मरयां जलम जरूर !
आव जाव का चक्र में,फस्यो जीव भरपूर !!

                      सोरठा
परारब्ध रा कर्म ,भोग्यं बिन छूटे नही !
जो समझै ओ मरम,सुख  दुःख न सम समझ ले !!
परारब्ध भोग्यं बिना,देह न त्यागे जीव !
जीर्ण शीर्ण इण देह प्रति, राखे मोह अतीव !!
इही हेतु अटक्यो रहे ,जीव भ्रमर यही ठोर !
शेष भोग उड़ ज्यावसी,फिर अनंत की और !!
म्हूँ साधारण जीव ,अहम भाव राखु नही !
ईश्वर कृपा सदीव ,सद्बुधी देती रही !!
छल छिद्र नही मह कीन, सह सूं हिल मिल चालियो !
ईश्वर के आधीन ,जीवन की गाड़ी चले !!
जीर्ण शीर्ण काया बणी, जीनो अब निस्सार !
सक्रिय बण कुछ कर सकूं, निज कर्तव्य विचार !!

           विश्व रूप विराट पुरष की वंदना  
मानव मन में बास तुम्हारा ,
मानव बाहर ढुंढत हारा
अवनि अरु आकासां उपर ,
तल अरु वितल पातालं भीतर ,
सकल स्रष्टि में एक पसारा,
मानव बाहर ढुंढत हारा !!१!!
हर जीवन में बास तुम्हारा ,
मानव बाहर ढुंढत हारा ,
पशु पक्षी मानव गण सारे ,
लता वृक्ष पल्वित डारे ,
कण कण में ह एक उजारा ,
हर जीवन में बास तुम्हारा  !!२!!
जड़ चेतन जगती तल सारा ,
चर अरु अचर किया विस्तारा,
तूं है सबका सिरजन हारा ,
दृश्य सृष्टि का एक आधारा ,
हर जीवन में बास तुम्हारा ,
मानव ढुंढत बाहर हारा !!३!!
सूर्य चन्द्र तारागण सारे ,
अंतरीक्ष का भेद उचारे ,
उसके उपर क्या है माया ,
इसका भेद न कोई पाया ,
सब ठा व्यापक तत्व तुम्हारा ,
फिर भी मानव ढुंढत हारा !!४!!
पिंड ब्रह्मंड में तूं ही समाया,
तेरा भेद नही कोई पाया ,
ज्ञानी जन कह ईस्वर माया ,
नेति नेति योगी जन गाया ,
मानव तेरा भेद न पाया ,
पिण्ड ब्रह्मांड में तू ही समाया !!५!!
मन के द्वार खोल के देखो ,
ध्यान लगा निज अंतर पेखो ,
लगा समाधि करो विचारा,
पावोगे तंह परम ऊजार ,
तव ठा व्यापक तत्व तुम्हारा ,
फिर भी मानव ढुंढत हारा!७!!
मूल तत्व अव्यक्त अकेला ,
व्यक्त रूप तव है जग सारा ,
सूर्य चन्द्र तव नेत्र रूप है ,
दिग दिगंत में है उजियारा ,
तीन लोक चवदह भुवन में ,
व्यक्त रूप में तूं ही समाया,
कोटि जतन कर मानव हारा ,
मूल तत्व का भेद न पाया !!८!!
उत्पति थिति रू प्रलय जगत का ,
मूल कारण तूं ही है स्वामी ,
नमन करू विनउ मई निष्दिन,
शुद्ध बुधि दे अंतर जामी,
तेरे एक अंश की रचना है,
जगती तल सारा ,
राग द्वेष मन के प्रभु मेटो,
सब में देखूं रूप तुम्हारा !!९!!
दृश अदृष सृष्टि का स्वामी,
अंतिम गति तू ही है ,
तू सुखदाता तूं भय हरता ,
शरणागत की शरण तूं ही है, 
सभी सुखी हो -नही दुखी हो ,
क्लेश रोग से पा छुटकारा ,
सरे जग के शुभ चिंतक हो,
रहे ईश का एक सहारा !!१०!!

चंदेलो व निरवाणो के इतिहास के सम्बन्ध में :  
  
     शेखावाटी प्रदेश का प्राचीन इतिहास लिखते समय मुझे इन दोनों प्रसिद्ध शाखाओं का इतिहास लिखना आवश्यक था-चन्देल व निरवाण जो प्रमुख रूप से यहाँ के शासक थे .अत: मैंने दृढ़ निश्चय के साथ चन्देल व निरवाणो के सन्दर्भ में मेरी उक्त क्रति में लिखने का प्रयास किया . कुंवर देवी सिंघजी के पुराने संग्रह को एवम बाँकीदास की ख्यात में उलेखित अति संक्षिप्त तथ्यों को आधार बनाकर लिखना शुरू किया. वि. स. १५०० से १६०० तक के एक शतक के निरवाण शासको के नाम जो मिले -वे प्रमाण पुष्ट थे.
मेरा आपसे निवेदन है कि मेरे द्वरा लिखित -"शेखावाटी प्रदेश का प्राचीन इतिहास " के पृष्ठ १२७ से १४१ पर -"खंडेला के निर्वाण शासक" वाला वृतांत पढ़ लेवें. निरवाणों के में जो वृत लिखना था वह मैंने लिख दिया. मैं तो अब ८५ वर्ष में प्रवेश कर चुका हूँ. शारीरिक शक्ति के हास के साथ मन और मस्तिष्क पूर्ववत सक्रिय नही रहे है. अधिक लिखने कि अब सामर्थ्य भी नही रही है. परन्तु यह सुनिश्चित है कि जिन निरवाणों  ने पांचसो वर्षों तक इस क्षेत्र  पर अखंडित रूप से शासन किया है-उनका पूर्व इतिहास तो जरुर शानदार रहा ही होगा. पड़ोसी कबीलों जैसे गौडों,चंदेलों ,तंवरो एवम क्याम्खानियों से घिरे रहकर भी इतने दीर्घ काल तक अपना अस्तित्व  बनाये रखना कोई साधारण बात नही थी .निर्बाणों ने उन कुटुम्बों से संघर्षरत रहते हुए ही इस विशाल भूभाग पर अपना राज्य कायम बनाये रखा था. ..........आप नये लेखकों को प्रयत्न करना चाहिए.

                                                                                     आपका विनम्र - सुरजनसिंह
     
    




           

           




2 comments:

  1. This latter is published in "Sangh skti" 's July'1999 addition.

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  2. ये पत्र इतिहास के पन्ने है !!

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