Tuesday, July 22, 2014

दादीसा ढापा ढकै

         दादीसा ढापा ढकै - हर्ष दान हर्ष की कविता 

पीड रा खेत में अपणा ही ,
जायोड़ा रे हाथां
बोया कुटिल बीजां नै उगता देख रै ,
दादीसा करलापे।
रह्या जिगर रा टूक ,आँख रा  तारा
वा किण विध दुत्कार'र
उण रो परित्याग करै।
अपणो मन मसोसती मन ई मन सोचती ,
या जांघ उघाड़ूं तो या लाजां मरै ,
अर या  उघाड़ूं तो या जांघ लाजां मरै।
लाज रा फेर में अपणी कुख री
अपणा कुटम कबीला री लाज राखण नै
निगोड़ा जायोडां री
नित नुवीं करतूतां रा
दादीसा ढ़ापा ढकै।


( यह ढ़ापा ढकना ऐसा शब्द है जिसका अनुवाद सही सही नही किया जा सकता है। सभी दादी , मातायें अपनी नाजोगी संतानो के अवगुणो को ढकती ही रहती हैं। )
   

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