Thursday, June 26, 2014

ठाकुर सुरजन सिंह जी झाझड की पुरानी हस्त लिखित कॉपी से

रन बन व्याधि विपति में ,वॄथा डरे जनि कोय।
जो रक्षक जननी जठर ,सो हरी गया न सोय।।

सब सूं हिल मिल चालणो ,गहणो आतम ज्ञान।
 दुनिया में दस दिहडा ,माढू तूं मिजमान।।

खाज्यो पीज्यो खरच ज्यो ,मत  कोई करो गरब।
सातां आठां दिहडा ,जवाण हार सरब।।

कंह जाये कंह उपने ,कंहा लड़ाये लाड़।
कुण जाणे किण खाड में पड़े रहे हाड।।

ईसर आयो ईसरा ,,खोल पडदा यार।
हूँ आयो तुझ कारणे , दिखला दे दीदार।।

संपत सों आपत भली ,जो दिन थोड़ा होय।
मिंत महेली बांधवां ,ठीक पड़ै सब कोय।।

जसवंत सिंघजी जोधपुर के कहे दोहे :-

खाया सो ही उबरिया ,दिया सो ही सत्य।
जसवंत धर पोढवतां ,माल बिराणे हत्थ।।

दस द्वार को पिंजरों ,तामें पंछी पौन।
रहन अचम्भो ह जसा ,जात अचम्भो कौन।।

जसवंत बास सराय का ,क्यों सोवत भर नैन।
स्वांस नगारा कूच का। बाजत है दिन रैन।।

जसवंत सीसी काच की ,वैसी ही नर की देह।
जतन करंता जावसी ,हर भज लावहो लेह।।

पृथ्वी राज जी बीकानेर के कहे दोहे :-

काय लाग्यो काट ,सिकलीगर सुधरे नही।
निर्मल होय निराट ,भेंट्या तों भागीरथी।।

जपियो नाम न जीह ,निज जळ तिण पेख्यो नही।
देवी सगळै दीह ,भूलां थां भागीरथी।।

जाल्या कपिल जकैह ,साठ सहस सागर तणा।
त्यारा तैं हति कैह ,भेळा ही भागीरथी।।

लाखा फुलाणी के संदर्भ से जीवन की श्रृंण भंगुरता के दोहे :-

लाखा फुलाणी :-

मरदो माया माणल्यो ,लाखो कह सुपठ।
घणा दिहडा जावसी ,के सत्ता के अट्ठ।।

भावार्थ :मनुष्यों माया यानि धन द्रव्य आदि को उपभोग करलो क्यों कि जीवन का क्या भरोसा ,यह तो ७ -८ दिन की जिंदगी है।

यह सुन कर उसकी पत्नी ने जवाब दिया :

फुलाणी फेरो घणो ,सत्ता सूं अट्ठ दूर। 
राते देख्या मुलकता ,वे नही उगता सूर।।

भावार्थ : सात आठ दिन तो बहुत होते हैं ,जिनको रात को हँसते देखते हैं वे सुबह नही रहते।

बेटी ने माँ की बात काटते हुए कहा कि -

लाखो भूल्यो लखपति ,मां भी भूली जोय। 
आँख तण फरुखड़े ,क्या जाणे क्या होय।।

भावार्थ : मां भी भोली है जिंदगी का तो आँख फरुके उतना भरोसा भी नही है।

पास में दासी बैठी हुयी थी उसने कहा ;

लाखो आंधो ,धी अंधी ,अंध लखा री जोय। 
सांस बटाऊ पावणो ,आवे न आवण होय।।

भावार्थ : यह लाखा जी अंधे हैं ,इनकी पत्नी व पुत्री भी अंधी है। अरे स्वांस तो महमान की तरह है आये और न आये इतना श्रृंणभंगुर है।


अमर सिंह जी राठोड से सम्बन्धित एक कवित :-

वजन मांह भारी थी के रेख में उतारी थी ,
हाथ से सुधारी थी के सांचे में हूँ ढारी थी ,
शेखजी के गर्द मांह गर्द सी जमाई मर्द ,
पुरे हाथ सीधी थी की जोधपुर संवारी थी ,
हाथ से अटक गयी  गुट्ठी सी गटक गयी ,
फेफड़ा फटक गयी ,आंकी बांकी तारी थी ,
सभा बीच साहजंहा कहे , बतलाओ यारो ,
अमर की कम्मर में ,कंहा की कटारी थी .


वीर रस 
  
भूमि परखो  नरां , कहा  सराहत  बिंद। 
भू बिन भला न निपजै ,कण तण तुरी नरिंद।।

सोढे अमर कोट रै , यों बाहि अबयट। 
जाणे बेहु भाइयां , आथ करी बे बंट।।

रण रंधड़ राजी रहै ,बालै मूंछा बट्ट। 
तरवारयां तेगां झड़ै, जद मांचै गहगट्ट।।

रण राचै जद रांघड़ां , कम्पे धरा कमठ्ठ। 
रथ रोकै बहतो  रवि ,जद मांचै गहगट्ट।।

काछ दृढां कर वरषणा , मन चंगा मुख मिठ्ठ। 
रण शूरा जग वलभा ,सो हम बिरला दिठ्ठ।। 

रण खेती रजपूत री ,वीर न भुलै बाल। 
बारह बरसां बाप रो ,लेह वैर दकाल।।

सूरा रण  में जाय के ,कांई देखो साथ। 
थारा साथी तीन है ,हियो कटारी हाथ।।

जननी जणै तो दोय जण ,कै  दाता कै शूर। 
नितर रहजे बांछड़ी , मत गँवा मुख नूर।।

कटक्कां  तबल खुड़क्किया  ,  होय मरद्दा हल्ल। 
लाज कहे मर जिवडा ,वयस कहे घर चल्ल।।

कृपण जतन धन रो करे ,कायर जीव जतन ,
सूर जतन उण रो करै ,जिणरो खादो अन्न।।

 घर घोड़ां  ढालां पटल , भालां खम्भ बणाय। 
बै ठाकर भोगै जमी , और न दूजा कोय।।

धर जातां धरम पलटतां , त्रियां पडंता ताव। 
तीन दिवस ऐ मरण रा ,कंहा रंक कंहा राव।।

कंकण बंधण रण चढ़ण ,पुत्र  बधाई चाव। 
तीन दीह त्याग रा ,कंहा रंक कंहा राव।।

काया अमर न कोय ,थिर माया थोड़ी रहे। 
इल में बातां दोय , नामां कामां नोपला।।




Sunday, June 22, 2014

मिर्जा राजा जय सिंह का पत्र

 हिन्दू धर्म कैसे इस देश में बचा इसको समझने के लिए राजपूत इतिहास का गहन अध्ययन आवश्यक है और उसके साथ ही इस अध्ययन को  निसपक्ष विद्वानो द्वारा कराया जाना चाहिए। मैंने राजा मान सिंह जी के बारे में पढ़ा तो समझमे आया की मुगलों को अफगानों के विरुद्ध कर उन्होंने बड़ा काम किया। अभी मिर्जा राजा जय सिंह का एक पत्र जसवंत सिंघजी जोधपुर को लिखा पढ़ रहा था। बहुत ही महत्वपूर्ण है और यह सारी सोच ही इस देश में हिन्दुओं को बचा पायी।  
मिर्जा राजा का पत्र इस प्रकार है :-
" आपको इस में क्या लाभ हो सकता है कि इस मंद भाग्य राजकुमार को साहयता देने का प्रयास आप करे ? इस कार्य में लगने में आपका और आपके परिवार का नाश अवश्यंभावी है। इस प्रकार दारा के हितों को भी कोई लाभ न होगा। ओरंगजेब कभी आपको क्षमा नही करेगा। मैं स्वयं राजा हूँ और शपथ पूर्वक विनय करता हूँ कि राजपूतों का रक्त न बहाये। इस आशा में प्रवाहित न हो जाएं कि दूसरे राजाओं को आप अपने दल में मिला लेंगे ,क्यों की ऐसे किसी प्रयास का प्रतिकार करने के साधन मेरे पास हैं। इस कार्य से समस्त हिन्दुओं का संबंध है और आप को वह अग्नि प्रदीप्त करने की अनुमति मैं नही दे सकता  शीघ्र ही समस्त साम्रज्य में फ़ैल जायेगी और जो किसी प्रयास से शांत न हो सकेगी।  --------------------- मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि जो कुछ मैंने कहा है , उसका पूर्णतः पालन होगा। 

Friday, June 20, 2014

कविया रामनाथजी रो एक कागद

राजस्थानी के पद्य साहित्य के साथ ही गद्य साहित्य भी बड़ा समृद्ध है। वैसे ही पत्र लेखन भी बड़ा ही समृद्ध है। रामनाथजी का एक पत्र डॉ.मनोहर जी शर्मा की पुस्तक से :-
यह पत्र रामनाथजी ने अलवर से जोधपुर के तत्कालीन कविराज भारत दान जी को १८५१ ई. में लिखा था।

श्री राम जी
म्हारी मनवारी रो अमल दारु दुनो दध्योड़ो लिरावसो जी
राजश्री कंवरजी चिमनसिंघजी रा मनवारी रो अमल दारू दुणो लिरावास्यो जी

सिद्ध श्री जोधपुर सुभ सुथानेक सदव ओपमा बिराजमान अनेक ओपमा लायक राजश्री कविराजजी श्री भारतदानजी जोग लिखियातुम अलवर सुं कविया रामनाथ स्योनाथ को मुजरी मालुम होयसी
अपरंच अठा का समाचार भला छै आपरा सदा आरोगी चायजै जी अपरंचि कागद आपरो आयो समाचार बांच्या मिलण रो सो सुख उपज्यो और आप लिखी सो ठीक छै  अब आप नै पिरोतजी अठा का समाचार कैसी सो जाणु ला  सो ठाकर साब उमजी और आयसजी माराजजी और आप मालिम करी र पाछो कागद  तीनू ही सरदार लिखवस्योंजि।      

Shekhawat Madan Singh of Jhajhar: पुराने जमाने में चारणा का धरणा अर आज के धरने -एक...

Shekhawat Madan Singh of Jhajhar: पुराने जमाने में चारणा का धरणा अर आज के धरने -एक...:  राजपूत राजा ,महाराज व साधारण राजपूत के यहाँ चारण सदा सम्माननीय रहे हैं ,और उनकी काव्य प्रतिभा के हिसाब से उनको सम्मान भी प्राप्त हुआ है। य...

Shekhawat Madan Singh of Jhajhar: पुराने जमाने में चारणा का धरणा अर आज के धरने -एक...

Shekhawat Madan Singh of Jhajhar: पुराने जमाने में चारणा का धरणा अर आज के धरने -एक...:  राजपूत राजा ,महाराज व साधारण राजपूत के यहाँ चारण सदा सम्माननीय रहे हैं ,और उनकी काव्य प्रतिभा के हिसाब से उनको सम्मान भी प्राप्त हुआ है। य...

पुराने जमाने में चारणा का धरणा अर आज के धरने -एक अंतर

 राजपूत राजा ,महाराज व साधारण राजपूत के यहाँ चारण सदा सम्माननीय रहे हैं ,और उनकी काव्य प्रतिभा के हिसाब से उनको सम्मान भी प्राप्त हुआ है। युद्ध में वे केवल प्रशश्ति गायक ही नही बल्कि तलवार बजाने में भी पीछे नही रहे। और यही वजह रही की उन का युद्धों संबंधी वर्णन श्रुत नही पर भोग हुआ है। विवाह आदि मांगलिक अवसरों पर चारणो को नेग दस्तूर दिए जाते। गुणी कविसरों को बड़ी संख्या में लाख पसाव मिले हैं।  इसी तरह गाँव भी सांसण में दिए जाते थे। फिर भी कुछ ऐसे अवसर भी आये हैं जब राजा ने नाराज होने पर  सांसण में दिये गये गाँव खालसा कर लिए। ऐसे अवसरों पर चारणो ने सामूहिक धरणे दिये हैं। और सफलता की प्राप्ति के लिए पेट अथवा गले पर छुरी खाने जैसी स्थितियां भी आई हैं। और इस महापाप से बचने के लिए राजाओं ने अपने हुक्म वापस भी लिए हैं। धरने के समय देवी का आव्हान किया जाता था व देवी का स्तुति पाठ किया जाता था।
शायद गांघी  इस धरने से प्रभावित रहा हो और उसने ज्यादा तर भीरु समाज के लिए बिना मरने वाले धरने को प्रोत्साहित किया।
 

रामनाथजी कविया



चारण लोग उनके साथ हुये राजाओं के अन्याय के खिलाप धरना देते थे। यह आमरण अनशन होता था। रामनाथजी कविया ने जब अलवर नरेश विजय सिंघजी ने इनके सांसण के गाँव को  खालसे कर लिया तो धरणा किया। जिस में १०१ चारण आत्मबलिदान के लिए तैयार हुये। यह अलवर का धरणा के नाम से विख्यात है। इस में जैसलमेर का एक चारण जो  घोड़े बेचने के लिए आया था वो भी इस जातीय यज्ञ में शामिल हो गया। अलवर का पोळ पात जैता जगावत भी धरणे पर बैठा था किन्तु उसने पग छोड़ दिए।  इस पर रामनाथ जी ने कहा :-

जागावत जैता जिसा अस्ति भगा अनेक।
कलियो गाडो काढ्बा ,आयो थलियो एक।.
मरस्यां तो मोटे मतै ,सह जग कह सपूत।
जिस्यां तो देस्याँ जरुर , जैता रै सिर जूत।।

जैता जगावत जैसे जैसे कई हस्ती भाग गये। कीचड़ में फसे गाड़े को निकाल ने के लिए एक थालिया यानी थली प्रदेश का आदमी आगे आया। अगर इस बड़े उद्देश्य के लिये मारे  गये तो पूरा जगत सपूत कहेगा। और अगर जिन्दा रह गये तो इस जैता के सर पर जूत जरुर मारेंगे।

Monday, June 16, 2014

ढुँढाड़ का ढंग -मसकरी की मां - कवि उमर दानजी

  आदमी :-

अरे नादिदी यारां कै लार कोडी नै चाली छै यान ,
नठोड़ी निगोड़ी रांड न माने री  नीच।

म्हे भी छा मूंछयाला ,म्हांक पाग छै माथै कै माले ,
माल  जादी  म्हाने के मरया जाण्या मीच।

न्यात छै जात छै म्हाँक पांत छै बरजाँ नी कां ,
हेडो कोको व्हेछै    ल्यांछा  लायणो भी हेर हेर।

 हरामां की  पिल्ली क्यूँ हराम जादी फुट्यो  हियो,
बेरो कोनी नसे गोसे कै दीन्यो सा बार।

टुम टाम छला बिन्टी छीन दारी काढ़द्यूंतो ,
ढोल पड़े चाढद्यूंतो माजनोधिकार .

इके घाल्या कोडी न जावां आबरू उड़ावे छै री ,
लुगांडी कमाव छै री न आवे छै रे लाज।

जीजी ये जीजी की जीजी म्हां कालै दादा की जीजी ,
अरे बारे इस्यूं खियाँ जीतीजे रै आज

औरत ने जवाब दिया :-

क्यूँ रै मोल्या उठायौड़ा  बूझ बालो कुण छै रै तूं ,
म्हांकी खसी होगी जंडे जावांगा हमेस।

राम हो तो गबिडा जेल मैं खना दीजे रै ,
राण्डया रो रै राज मैं तूं तो दला दीज्ये रेस।

बाळ्या बाळ डाडी का उपाड़ ल्यूंगी बाप खाणा ,
भोगना का राल्या बांदा क्यूँ सूझी रै भूंड।

तकादो भोत बताड़े दांत सै तुड़ावै गो तूं ,
माजने सूं रेज्ये देज्ये फुड़ावै गो मूँड़।

लाचारी मर्द की :-

बोलबा की बाण छै बुरो मानजाली बावळी छै ,
अरे भांण की तूं भारयो माँड्यो छै अन्याय।

प्राण प्यारी ओठी लेल्यूं गोध म्हांकी कोन्या पूछ ,
देल्ये गाली बाली म्हाने खाण की छै दाय।

थांकी ज्यो खसी छै जीमे म्हांकी भी खसी छै  थेट,
मोटो पेट कीजे मुने दिज्ये गणा माफ़।

तूं जिसी तो तूंई छरी कालो मुंडो काड्बा मैं ,
सालो छै   कसूर म्हांको जाणबा मैं साफ़।

आग लागी बुझा लेबा ई में छै आंपां की आछी  ,
थ्यावासी तो आथ कोन्या बचारबो थोक।

आज्यों ऊंडी सोचबा की ओरां की न दाय ,
लुगाई थे म्हांकी छोजी म्हेछा थांका लोग।

रात की रात मैं ओठा आजाज्यो रामकुंराजी ,
बात की बात मैं कांई बसावांछा बैर।

थमो तो तावड़ो थे दादा का पाछे मौज थांकी ,
खुँसड़ी  तो पैर जाज्यो पगां माँई खेर।  

Saturday, June 14, 2014

राजस्थानी साहित्य में नीति बोध (श्री सुरजन सिंह शेखावत -झाझड़ )

राजस्थानी साहित्य कि गणना वीर रस प्रधान साहित्य में होती है। किन्तु भक्ति ,करुणा ,श्रंगार आदि अन्य रसों वाली रचनाओं से भी यह साहित्य ओतप्रोत है। निशि दिन कठोर संघर्षों में जूझते हुए दुर्दान्त योद्धाओं कि जन्मभूमि होने के परिणाम स्वरुप वीर भावना यहाँ के वातावरण में नैसर्गिक रूप से व्याप्त रही है।