रन बन व्याधि विपति में ,वॄथा डरे जनि कोय।
जो रक्षक जननी जठर ,सो हरी गया न सोय।।
सब सूं हिल मिल चालणो ,गहणो आतम ज्ञान।
दुनिया में दस दिहडा ,माढू तूं मिजमान।।
खाज्यो पीज्यो खरच ज्यो ,मत कोई करो गरब।
सातां आठां दिहडा ,जवाण हार सरब।।
कंह जाये कंह उपने ,कंहा लड़ाये लाड़।
कुण जाणे किण खाड में पड़े रहे हाड।।
ईसर आयो ईसरा ,,खोल पडदा यार।
हूँ आयो तुझ कारणे , दिखला दे दीदार।।
संपत सों आपत भली ,जो दिन थोड़ा होय।
मिंत महेली बांधवां ,ठीक पड़ै सब कोय।।
जसवंत सिंघजी जोधपुर के कहे दोहे :-
खाया सो ही उबरिया ,दिया सो ही सत्य।
जसवंत धर पोढवतां ,माल बिराणे हत्थ।।
दस द्वार को पिंजरों ,तामें पंछी पौन।
रहन अचम्भो ह जसा ,जात अचम्भो कौन।।
जसवंत बास सराय का ,क्यों सोवत भर नैन।
स्वांस नगारा कूच का। बाजत है दिन रैन।।
जसवंत सीसी काच की ,वैसी ही नर की देह।
जतन करंता जावसी ,हर भज लावहो लेह।।
पृथ्वी राज जी बीकानेर के कहे दोहे :-
काय लाग्यो काट ,सिकलीगर सुधरे नही।
निर्मल होय निराट ,भेंट्या तों भागीरथी।।
जपियो नाम न जीह ,निज जळ तिण पेख्यो नही।
देवी सगळै दीह ,भूलां थां भागीरथी।।
जाल्या कपिल जकैह ,साठ सहस सागर तणा।
त्यारा तैं हति कैह ,भेळा ही भागीरथी।।
लाखा फुलाणी के संदर्भ से जीवन की श्रृंण भंगुरता के दोहे :-
लाखा फुलाणी :-
मरदो माया माणल्यो ,लाखो कह सुपठ।
घणा दिहडा जावसी ,के सत्ता के अट्ठ।।
भावार्थ :मनुष्यों माया यानि धन द्रव्य आदि को उपभोग करलो क्यों कि जीवन का क्या भरोसा ,यह तो ७ -८ दिन की जिंदगी है।
यह सुन कर उसकी पत्नी ने जवाब दिया :
फुलाणी फेरो घणो ,सत्ता सूं अट्ठ दूर।
राते देख्या मुलकता ,वे नही उगता सूर।।
भावार्थ : सात आठ दिन तो बहुत होते हैं ,जिनको रात को हँसते देखते हैं वे सुबह नही रहते।
बेटी ने माँ की बात काटते हुए कहा कि -
लाखो भूल्यो लखपति ,मां भी भूली जोय।
आँख तण फरुखड़े ,क्या जाणे क्या होय।।
भावार्थ : मां भी भोली है जिंदगी का तो आँख फरुके उतना भरोसा भी नही है।
पास में दासी बैठी हुयी थी उसने कहा ;
लाखो आंधो ,धी अंधी ,अंध लखा री जोय।
सांस बटाऊ पावणो ,आवे न आवण होय।।
भावार्थ : यह लाखा जी अंधे हैं ,इनकी पत्नी व पुत्री भी अंधी है। अरे स्वांस तो महमान की तरह है आये और न आये इतना श्रृंणभंगुर है।
अमर सिंह जी राठोड से सम्बन्धित एक कवित :-
वजन मांह भारी थी के रेख में उतारी थी ,
हाथ से सुधारी थी के सांचे में हूँ ढारी थी ,
शेखजी के गर्द मांह गर्द सी जमाई मर्द ,
पुरे हाथ सीधी थी की जोधपुर संवारी थी ,
हाथ से अटक गयी गुट्ठी सी गटक गयी ,
फेफड़ा फटक गयी ,आंकी बांकी तारी थी ,
सभा बीच साहजंहा कहे , बतलाओ यारो ,
अमर की कम्मर में ,कंहा की कटारी थी .
वीर रस
भूमि परखो नरां , कहा सराहत बिंद।
भू बिन भला न निपजै ,कण तण तुरी नरिंद।।
सोढे अमर कोट रै , यों बाहि अबयट।
जाणे बेहु भाइयां , आथ करी बे बंट।।
रण रंधड़ राजी रहै ,बालै मूंछा बट्ट।
तरवारयां तेगां झड़ै, जद मांचै गहगट्ट।।
रण राचै जद रांघड़ां , कम्पे धरा कमठ्ठ।
रथ रोकै बहतो रवि ,जद मांचै गहगट्ट।।
काछ दृढां कर वरषणा , मन चंगा मुख मिठ्ठ।
रण शूरा जग वलभा ,सो हम बिरला दिठ्ठ।।
रण खेती रजपूत री ,वीर न भुलै बाल।
बारह बरसां बाप रो ,लेह वैर दकाल।।
सूरा रण में जाय के ,कांई देखो साथ।
थारा साथी तीन है ,हियो कटारी हाथ।।
जननी जणै तो दोय जण ,कै दाता कै शूर।
नितर रहजे बांछड़ी , मत गँवा मुख नूर।।
कटक्कां तबल खुड़क्किया , होय मरद्दा हल्ल।
लाज कहे मर जिवडा ,वयस कहे घर चल्ल।।
कृपण जतन धन रो करे ,कायर जीव जतन ,
सूर जतन उण रो करै ,जिणरो खादो अन्न।।
घर घोड़ां ढालां पटल , भालां खम्भ बणाय।
बै ठाकर भोगै जमी , और न दूजा कोय।।
धर जातां धरम पलटतां , त्रियां पडंता ताव।
तीन दिवस ऐ मरण रा ,कंहा रंक कंहा राव।।
कंकण बंधण रण चढ़ण ,पुत्र बधाई चाव।
तीन दीह त्याग रा ,कंहा रंक कंहा राव।।
काया अमर न कोय ,थिर माया थोड़ी रहे।
इल में बातां दोय , नामां कामां नोपला।।
जो रक्षक जननी जठर ,सो हरी गया न सोय।।
सब सूं हिल मिल चालणो ,गहणो आतम ज्ञान।
दुनिया में दस दिहडा ,माढू तूं मिजमान।।
खाज्यो पीज्यो खरच ज्यो ,मत कोई करो गरब।
सातां आठां दिहडा ,जवाण हार सरब।।
कंह जाये कंह उपने ,कंहा लड़ाये लाड़।
कुण जाणे किण खाड में पड़े रहे हाड।।
ईसर आयो ईसरा ,,खोल पडदा यार।
हूँ आयो तुझ कारणे , दिखला दे दीदार।।
संपत सों आपत भली ,जो दिन थोड़ा होय।
मिंत महेली बांधवां ,ठीक पड़ै सब कोय।।
जसवंत सिंघजी जोधपुर के कहे दोहे :-
खाया सो ही उबरिया ,दिया सो ही सत्य।
जसवंत धर पोढवतां ,माल बिराणे हत्थ।।
दस द्वार को पिंजरों ,तामें पंछी पौन।
रहन अचम्भो ह जसा ,जात अचम्भो कौन।।
जसवंत बास सराय का ,क्यों सोवत भर नैन।
स्वांस नगारा कूच का। बाजत है दिन रैन।।
जसवंत सीसी काच की ,वैसी ही नर की देह।
जतन करंता जावसी ,हर भज लावहो लेह।।
पृथ्वी राज जी बीकानेर के कहे दोहे :-
काय लाग्यो काट ,सिकलीगर सुधरे नही।
निर्मल होय निराट ,भेंट्या तों भागीरथी।।
जपियो नाम न जीह ,निज जळ तिण पेख्यो नही।
देवी सगळै दीह ,भूलां थां भागीरथी।।
जाल्या कपिल जकैह ,साठ सहस सागर तणा।
त्यारा तैं हति कैह ,भेळा ही भागीरथी।।
लाखा फुलाणी के संदर्भ से जीवन की श्रृंण भंगुरता के दोहे :-
लाखा फुलाणी :-
मरदो माया माणल्यो ,लाखो कह सुपठ।
घणा दिहडा जावसी ,के सत्ता के अट्ठ।।
भावार्थ :मनुष्यों माया यानि धन द्रव्य आदि को उपभोग करलो क्यों कि जीवन का क्या भरोसा ,यह तो ७ -८ दिन की जिंदगी है।
यह सुन कर उसकी पत्नी ने जवाब दिया :
फुलाणी फेरो घणो ,सत्ता सूं अट्ठ दूर।
राते देख्या मुलकता ,वे नही उगता सूर।।
भावार्थ : सात आठ दिन तो बहुत होते हैं ,जिनको रात को हँसते देखते हैं वे सुबह नही रहते।
बेटी ने माँ की बात काटते हुए कहा कि -
लाखो भूल्यो लखपति ,मां भी भूली जोय।
आँख तण फरुखड़े ,क्या जाणे क्या होय।।
भावार्थ : मां भी भोली है जिंदगी का तो आँख फरुके उतना भरोसा भी नही है।
पास में दासी बैठी हुयी थी उसने कहा ;
लाखो आंधो ,धी अंधी ,अंध लखा री जोय।
सांस बटाऊ पावणो ,आवे न आवण होय।।
भावार्थ : यह लाखा जी अंधे हैं ,इनकी पत्नी व पुत्री भी अंधी है। अरे स्वांस तो महमान की तरह है आये और न आये इतना श्रृंणभंगुर है।
अमर सिंह जी राठोड से सम्बन्धित एक कवित :-
वजन मांह भारी थी के रेख में उतारी थी ,
हाथ से सुधारी थी के सांचे में हूँ ढारी थी ,
शेखजी के गर्द मांह गर्द सी जमाई मर्द ,
पुरे हाथ सीधी थी की जोधपुर संवारी थी ,
हाथ से अटक गयी गुट्ठी सी गटक गयी ,
फेफड़ा फटक गयी ,आंकी बांकी तारी थी ,
सभा बीच साहजंहा कहे , बतलाओ यारो ,
अमर की कम्मर में ,कंहा की कटारी थी .
वीर रस
भूमि परखो नरां , कहा सराहत बिंद।
भू बिन भला न निपजै ,कण तण तुरी नरिंद।।
सोढे अमर कोट रै , यों बाहि अबयट।
जाणे बेहु भाइयां , आथ करी बे बंट।।
रण रंधड़ राजी रहै ,बालै मूंछा बट्ट।
तरवारयां तेगां झड़ै, जद मांचै गहगट्ट।।
रण राचै जद रांघड़ां , कम्पे धरा कमठ्ठ।
रथ रोकै बहतो रवि ,जद मांचै गहगट्ट।।
काछ दृढां कर वरषणा , मन चंगा मुख मिठ्ठ।
रण शूरा जग वलभा ,सो हम बिरला दिठ्ठ।।
रण खेती रजपूत री ,वीर न भुलै बाल।
बारह बरसां बाप रो ,लेह वैर दकाल।।
सूरा रण में जाय के ,कांई देखो साथ।
थारा साथी तीन है ,हियो कटारी हाथ।।
जननी जणै तो दोय जण ,कै दाता कै शूर।
नितर रहजे बांछड़ी , मत गँवा मुख नूर।।
कटक्कां तबल खुड़क्किया , होय मरद्दा हल्ल।
लाज कहे मर जिवडा ,वयस कहे घर चल्ल।।
कृपण जतन धन रो करे ,कायर जीव जतन ,
सूर जतन उण रो करै ,जिणरो खादो अन्न।।
घर घोड़ां ढालां पटल , भालां खम्भ बणाय।
बै ठाकर भोगै जमी , और न दूजा कोय।।
धर जातां धरम पलटतां , त्रियां पडंता ताव।
तीन दिवस ऐ मरण रा ,कंहा रंक कंहा राव।।
कंकण बंधण रण चढ़ण ,पुत्र बधाई चाव।
तीन दीह त्याग रा ,कंहा रंक कंहा राव।।
काया अमर न कोय ,थिर माया थोड़ी रहे।
इल में बातां दोय , नामां कामां नोपला।।