Sunday, March 24, 2013

डिंगल काव्य में वैण सगाई काव्य कि एक महत्वपूर्ण  विधा है। वयण सगाई को कुछ लोग वचन सगाई और कुछ वर्ण सगाई से समबद्ध मानते है। इसमें एक ही चरण में प्रयुक्त कुछ शब्दों में एक ही   वर्ण को लाकर उनकी मैत्री स्थापित की जाती है. डिंगल भाषा में इस अलंकार का बहुत अधिक प्रभाव रहा है. संसार की शायद ही किसी भाषा में किसी अलंकार का निर्वाह इतनी कठोरता के साथ किया गया है। पीढ़ियों के दीर्घ अभ्यास से चारण कवियों के लिए वयण सगाई का निर्वाह इतना दुष्कर नही रह गया था। एक उधारण ,जब महाराजा अभय सिंह जी जोधपुर ने बीकानेर को कब्ज़ा करने के लिए चढाई करदी तो बीकानेर महाराजा ने जयपुर महाराजा जय सिंह जी को लिखा।
"अभो ग्राह  बिकाण गज, मारू समद अथाह !
................. .............., सहाय करो जय शाह !!"
( एक स्टेंजा भूल रहा हूँ , पर अर्थ यह था कि हे जय सिंह ये अभय सिंह ग्राह है और बीकानेर हाथी है ,और मरुस्थल अथाह समुद्र है ,अब आप कृष्ण की तरह आकर मेरी सहायता कीजिये। इस परिस्थिति में जय सिंघजी ने जोधपुर पर दबाव बनाने के लिए चढ़ाई करदी , किन्तु युद्ध नही हुआ , उसकी एक झलक :

 बज्जी न तेग ,तूटे न बाढ़ !
गजे न तोप , मानोह अषाढ़ !!

भावार्थ यह है कि तेग (तलवारे ) बज्जी नही (चली नही )न उनके बाढ़ (पैनापन ) टूटे। न तोपों ने गर्जना की मानो की  अषाढ़ के बादलों हों।  

5 comments:

  1. ये दोहा इस प्रकार था
    गज गजो ग्राह अभौ, मरूधर समंद अथाह।
    गरूङ ज्यूं गोविंद चढै, तूं चढ आजै जैसाह।।

    गज सिंह बीकानेर के राजा थे उस समय

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  2. इसमें इस अलंकार के नियम तो हैं नहीं।
    मरुधर समंद अथाह में वर्ण कहाँ दोहराए गए।
    ऐसे ही तूं चढ़ ....

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  3. लक्षण और उदाहरण में एकरूपता नहीं है। कृपया इसे पुनः एक बार समझाने का प्रयास कीजिए।

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