महाराजा मान सिंह जी जोधपुर -एक आख्यान
महाराजा मान सिंघजी को मज़बूरी में अंग्रेजों से संधि करनी पड़ी। परन्तु उन्होंने अंग्रेजों को अपना सम्प्रभु नही माना। सन १८०४ में जसवंतराव होल्कर ब्रिटश सत्ता का कोप भाजन बना और पराजित होकर जोधपुर चला आया। महाराजा ने क्षात्र धर्म का पालन करते हुये उसे शरण दी। बांकीदास जी ने इस संबंध में यह दोहा कहा :-
किंग इंद्र जिम कोपियो ,जसवंत मैनाक।
सरण राखियो समंद ज्यूँ ,पह मान दिल पाक।।
अर्थात इंद्र रूपी ब्रिटिश किंग के कोप से बचाने हेतु मैनाँक पर्वत रूपी जसवंत होल्कर को समुद्र रूपी महाराजा मान सिंह ने शरण देकर उस की रक्षा की।
अंतर कलह व एक मात्र पुत्र की असामयिक मृत्यु से महाराज विक्सिप्त रहने लगे। गवर्नर जनरल ने असली स्थिति जानने के लिए १८१८ ई में मुंशी बरकत अली व मिस्टर विलडर्स को जोधपुर भेजा। जब ये लोग महाराजा से मिले तो वे विक्षीप्त ही बने रहे और इनके प्रति कोई सम्मान व्यक्त नही किया। उसी समय चारण कवि भोपालदान जी भी वंहा पंहुचे और विरुद -बखान का यह दोहा कहा -
नीव थम्भ केई पाट नृप ,छत कपाट केई छज्ज।
धरम देवालय कऴस धज ,धिनो मान कमधज्ज।।
अर्थात कुछ राजा तो देवालय की नीवं हैं ,कुछ स्तम्भ हैं ,कुछ पाट हैं कुछ छत हैं कोई छज्जे हैं किन्तु मान सिंह तुम तो उस धरम देवालय के कलश की ध्वज्जा हो। तुम्हे धन्य है।
यह दोहा सुनते ही मान सिंघजी खड़े हो गए और चारण का यथोचित सम्मान किया। यह देख कर अंग्रेज अधिकारी नाराज हो गए व कहा की महाराजा पागल पन का ढोंग कर रहे हैं व अंग्रेजो को सम्मान नही देना चाहते।
इस पर महाराजा ने कहा की इस कवि के पूर्वज हुँपा सांदू के विरदाने पर जैसलमेर के रावल दुर्जनसाल का कटा हुआ मस्तक रणक्षत्र में बोल गया था फिर मैं तो मदहोश अथवा होश जैसा भी हूँ जीवित हूँ। और इसी संदर्भ में उन्होंने यह दोहा कहा -जो विख्यात हो गया :-
सांदू हुँपै सेवियो ,साहब दुरजणसल्ल।
विरदातां माथो बोलियो ,गीतां दोहां गल्ल।।
महाराजा मान सिंघजी को मज़बूरी में अंग्रेजों से संधि करनी पड़ी। परन्तु उन्होंने अंग्रेजों को अपना सम्प्रभु नही माना। सन १८०४ में जसवंतराव होल्कर ब्रिटश सत्ता का कोप भाजन बना और पराजित होकर जोधपुर चला आया। महाराजा ने क्षात्र धर्म का पालन करते हुये उसे शरण दी। बांकीदास जी ने इस संबंध में यह दोहा कहा :-
किंग इंद्र जिम कोपियो ,जसवंत मैनाक।
सरण राखियो समंद ज्यूँ ,पह मान दिल पाक।।
अर्थात इंद्र रूपी ब्रिटिश किंग के कोप से बचाने हेतु मैनाँक पर्वत रूपी जसवंत होल्कर को समुद्र रूपी महाराजा मान सिंह ने शरण देकर उस की रक्षा की।
अंतर कलह व एक मात्र पुत्र की असामयिक मृत्यु से महाराज विक्सिप्त रहने लगे। गवर्नर जनरल ने असली स्थिति जानने के लिए १८१८ ई में मुंशी बरकत अली व मिस्टर विलडर्स को जोधपुर भेजा। जब ये लोग महाराजा से मिले तो वे विक्षीप्त ही बने रहे और इनके प्रति कोई सम्मान व्यक्त नही किया। उसी समय चारण कवि भोपालदान जी भी वंहा पंहुचे और विरुद -बखान का यह दोहा कहा -
नीव थम्भ केई पाट नृप ,छत कपाट केई छज्ज।
धरम देवालय कऴस धज ,धिनो मान कमधज्ज।।
अर्थात कुछ राजा तो देवालय की नीवं हैं ,कुछ स्तम्भ हैं ,कुछ पाट हैं कुछ छत हैं कोई छज्जे हैं किन्तु मान सिंह तुम तो उस धरम देवालय के कलश की ध्वज्जा हो। तुम्हे धन्य है।
यह दोहा सुनते ही मान सिंघजी खड़े हो गए और चारण का यथोचित सम्मान किया। यह देख कर अंग्रेज अधिकारी नाराज हो गए व कहा की महाराजा पागल पन का ढोंग कर रहे हैं व अंग्रेजो को सम्मान नही देना चाहते।
इस पर महाराजा ने कहा की इस कवि के पूर्वज हुँपा सांदू के विरदाने पर जैसलमेर के रावल दुर्जनसाल का कटा हुआ मस्तक रणक्षत्र में बोल गया था फिर मैं तो मदहोश अथवा होश जैसा भी हूँ जीवित हूँ। और इसी संदर्भ में उन्होंने यह दोहा कहा -जो विख्यात हो गया :-
सांदू हुँपै सेवियो ,साहब दुरजणसल्ल।
विरदातां माथो बोलियो ,गीतां दोहां गल्ल।।
No comments:
Post a Comment