कन्हैया लाल सेठीया कि कविता -राणा प्रताप के मानवोचित कमजोरी व कर्त्तव्य का भान होने पर क्षत्रियोचित प्रतिरोध इस कविता कि भाव भूमि है। इतिहास कार इस घटना कि सत्यता को संदेहास्पद मानते है किन्तु घटना पूरी तरह से घटित नही हुई ऐसा भी नही है। क्यों कि तत्सामयक बीकानेर के महाराज कुमार प्रथ्वीराज राठोड के दोहे व राणा प्रताप का उसके जवाब के दोहे इस घटना कि तरफ इंगित करते हैं। शायद राणा प्रताप ने कोई पत्र न लिखा हो किन्तु मानसिक दवाब बनाने के लिए अकबर ने ऐसा प्रचारित किया हो। पृथ्वीराज जी जैसे राष्ट्र भक्त को यह चुनौती लगी व उन्होंने महाराणा से इसका खुलासा चाहा ,जिस पर महाराणा ने कहा कि मैंने कभी अकबर को बादशाह माना ही नही है।
पीथल :- पटकूं मूंछा पाण ,कै पटकूं निज तन करद।
लिख दीजे दिवाण ,इण दो महली बात एक।
पातल जो पतशाह ,बोले मुख हूंता बयण।
मिहर पिछम दिस मांह, उगे कासप राव उत।
भावार्थ :-महाराणा अपने आप को दीवान मानते है यानि मेवाड़ का शासन तो एकलिंग जी का है और मेवाड़ के महाराणा उसके दीवान हैं। पृथ्वीराज जी ने लिखा कि हम गर्व से मूंछो पर हाथ दे या लज्जा से आत्मघात करले इन दोनों बातों में से इक बात लिख देना हे दीवान। दूसरे दोहे का अभिप्राय था कि आप का अधीनता स्वीकार करना तो सूर्ये के पश्चिम में उगने के समान है।
राणा परताप ने जो जवाब पृथ्वीराज जी को लिख भेजा वो देखने लायक है।
तुरक कहासी मुख पतो ,इण तन सूं एकलिंग।
ऊगे जाँहि ऊगसी , प्राची बिच पतंग।।
खुशी हूंत पीथल कमध , पटको मूंछा पाण।
पछटण है जैते पतो ,कलमां सिर केवाण।।
भावार्थ :- मेरे मुंह से तुर्क ही कहलायेगा ,बादशाह नही। सूर्य पूर्व में ही उदित होगा। हे राठोड (कमध ) पृथ्वीराज अपनी मूंछो पर ताव देते रहो ,जब तक मैं जिन्दा हूँ मेरी तलवार इन विधर्मियो के सर पर गिरती रहेगी।
पातल व पीथल
अरे घास री रोटी ही जद बन बिलावड़ो ले भाग्यो।
नान्हो सो अमर्यो चीख पड्यो राणा रो सोयो दुख जाग्यो।
हूं लड्यो घणो हूं सह्यो घणो मेवाड़ी मान बचावण नै,
हूं पाछ नहीं राखी रण में बैर्यां री खात खिडावण में,
जद याद करूँ हळदीघाटी नैणां में रगत उतर आवै,
सुख दुख रो साथी चेतकड़ो सूती सी हूक जगा ज्यावै,
पण आज बिलखतो देखूं हूँ जद राज कंवर नै रोटी नै,
तो क्षात्र-धरम नै भूलूं हूँ भूलूं हिंदवाणी चोटी नै
मैं’लां में छप्पन भोग जका मनवार बिनां करता कोनी,
सोनै री थाल्यां नीलम रै बाजोट बिनां धरता कोनी,
अै हाय जका करता पगल्या फूलां री कंवळी सेजां पर,
बै आज रुळै भूखा तिसिया हिंदवाणै सूरज रा टाबर,
आ सोच हुई दो टूक तड़क राणा री भीम बजर छाती,
आंख्यां में आंसू भर बोल्या मैं लिखस्यूं अकबर नै पाती,
पण लिखूं कियां जद देखै है आडावळ ऊंचो हियो लियां,
चितौड़ खड्यो है मगरां में विकराळ भूत सी लियां छियां,
मैं झुकूं कियां ? है आण मनैं कुळ रा केसरिया बानां री,
मैं बुझूं कियां ? हूं सेस लपट आजादी रै परवानां री,
पण फेर अमर री सुण बुसक्यां राणा रो हिवड़ो भर आयो,
मैं मानूं हूँ दिल्लीस तनैं समराट् सनेशो कैवायो।
राणा रो कागद बांच हुयो अकबर रो’ सपनूं सो सांचो,
पण नैण कर्यो बिसवास नहीं जद बांच नै फिर बांच्यो,
कै आज हिंमाळो पिघळ बह्यो कै आज हुयो सूरज सीतळ
कै आज सेस रो सिर डोल्यो आ सोच हुयो समराट् विकळ,
बस दूत इसारो पा भाज्यो पीथळ नै तुरत बुलावण नै,
किरणां रो पीथळ आ पूग्यो ओ सांचो भरम मिटावण नै,
बीं वीर बांकुड़ै पीथळ नै रजपूती गौरव भारी हो,
बो क्षात्र धरम रो नेमी हो राणा रो प्रेम पुजारी हो,
बैर्यां रै मन रो कांटो हो बीकाणूँ पूत खरारो हो,
राठौड़ रणां में रातो हो बस सागी तेज दुधारो हो,
आ बात पातस्या जाणै हो घावां पर लूण लगावण नै,
पीथळ नै तुरत बुलायो हो राणा री हार बंचावण नै,
म्है बाँध लियो है पीथळ सुण पिंजरै में जंगळी शेर पकड़,
ओ देख हाथ रो कागद है तूं देखां फिरसी कियां अकड़ ?
मर डूब चळू भर पाणी में बस झूठा गाल बजावै हो,
पण टूट गयो बीं राणा रो तूं भाट बण्यो बिड़दावै हो,
मैं आज पातस्या धरती रो मेवाड़ी पाग पगां में है,
अब बता मनै किण रजवट रै रजपती खून रगां में है ?
जंद पीथळ कागद ले देखी राणा री सागी सैनाणी,
नीचै स्यूं धरती खसक गई आंख्यां में आयो भर पाणी,
पण फेर कही ततकाळ संभळ आ बात सफा ही झूठी है,
राणा री पाघ सदा ऊँची राणा री आण अटूटी है।
ल्यो हुकम हुवै तो लिख पूछूं राणा नै कागद रै खातर,
लै पूछ भलांई पीथळ तूं आ बात सही बोल्यो अकबर,
म्हे आज सुणी है नाहरियो स्याळां रै सागै सोवै लो,
म्हे आज सुणी है सूरजड़ो बादळ री ओटां खोवैलो;
म्हे आज सुणी है चातगड़ो धरती रो पाणी पीवै लो,
म्हे आज सुणी है हाथीड़ो कूकर री जूणां जीवै लो
म्हे आज सुणी है थकां खसम अब रांड हुवैली रजपूती,
म्हे आज सुणी है म्यानां में तरवार रवैली अब सूती,
तो म्हांरो हिवड़ो कांपै है मूंछ्यां री मोड़ मरोड़ गई,
पीथळ नै राणा लिख भेज्यो आ बात कठै तक गिणां सही ?
पीथळ रा आखर पढ़तां ही राणा री आँख्यां लाल हुई,
धिक्कार मनै हूँ कायर हूँ नाहर री एक दकाल हुई,
हूँ भूख मरूं हूँ प्यास मरूं मेवाड़ धरा आजाद रवै हूँ
घोर उजाड़ां में भटकूं पण मन में मां री याद रवै,
हूँ रजपूतण रो जायो हूं रजपूती करज चुकाऊंला,
ओ सीस पड़ै पण पाघ नही दिल्ली रो मान झुकाऊंला,
पीथळ के खिमता बादल री जो रोकै सूर उगाळी नै,
सिंघां री हाथळ सह लेवै बा कूख मिली कद स्याळी नै?
धरती रो पाणी पिवै इसी चातग री चूंच बणी कोनी,
कूकर री जूणां जिवै इसी हाथी री बात सुणी कोनी,
आं हाथां में तलवार थकां कुण रांड़ कवै है रजपूती ?
म्यानां रै बदळै बैर्यां री छात्याँ में रैवैली सूती,
मेवाड़ धधकतो अंगारो आंध्यां में चमचम चमकै लो,
कड़खै री उठती तानां पर पग पग पर खांडो खड़कैलो,
राखो थे मूंछ्याँ ऐंठ्योड़ी लोही री नदी बहा द्यूंला,
हूँ अथक लडूंला अकबर स्यूँ उजड्यो मेवाड़ बसा द्यूंला,
जद राणा रो संदेश गयो पीथळ री छाती दूणी ही,
हिंदवाणों सूरज चमकै हो अकबर री दुनियां सूनी ही।
उपरोक्त प्रसंग के बारे में पृथ्वीराज जी व उनकी पत्नी भटयानी जी के बीच जो सवांद हुआ वह भी काफी रोचक व महत्व पूर्ण है। जब भटियाणी जी चम्पादे को यह मालुम पड़ा कि उनके पति व बादशाह में विवाद हुआ है ,तो उन्होंने एक दोहा लिख कर उनको भेजा -
पति जिद कि पातशाह सूं ,येम सुणी मई आज।
कंह अकबर पातल कंह ,कीधो बड़ो अकाज।।
राणी भटियाणी को आश्वस्त करते हुए कवी ह्रदय पृथवीराज ने कहा :-
जब ते सुने हैं बैन तबत्ते न मोको चैन।
पाती पढ़ नेक वो विलम्ब न लगावेगो।।
लेके जमदूत से समस्त रजपूत आज।
आगरा में आठों याम ऊधम मचावेगो।।
कहे पृथ्वीराज प्रिया नेक ऊर धीर धरो।
चरंजीवी राणाश्री मलेच्छन भगावेगो।।
मन को मरद मानी परबल्ल प्रतापसी।
बब्बर ज्यों तड़फ अकबर पे आवेगो।।
पीथल :- पटकूं मूंछा पाण ,कै पटकूं निज तन करद।
लिख दीजे दिवाण ,इण दो महली बात एक।
पातल जो पतशाह ,बोले मुख हूंता बयण।
मिहर पिछम दिस मांह, उगे कासप राव उत।
भावार्थ :-महाराणा अपने आप को दीवान मानते है यानि मेवाड़ का शासन तो एकलिंग जी का है और मेवाड़ के महाराणा उसके दीवान हैं। पृथ्वीराज जी ने लिखा कि हम गर्व से मूंछो पर हाथ दे या लज्जा से आत्मघात करले इन दोनों बातों में से इक बात लिख देना हे दीवान। दूसरे दोहे का अभिप्राय था कि आप का अधीनता स्वीकार करना तो सूर्ये के पश्चिम में उगने के समान है।
राणा परताप ने जो जवाब पृथ्वीराज जी को लिख भेजा वो देखने लायक है।
तुरक कहासी मुख पतो ,इण तन सूं एकलिंग।
ऊगे जाँहि ऊगसी , प्राची बिच पतंग।।
खुशी हूंत पीथल कमध , पटको मूंछा पाण।
पछटण है जैते पतो ,कलमां सिर केवाण।।
भावार्थ :- मेरे मुंह से तुर्क ही कहलायेगा ,बादशाह नही। सूर्य पूर्व में ही उदित होगा। हे राठोड (कमध ) पृथ्वीराज अपनी मूंछो पर ताव देते रहो ,जब तक मैं जिन्दा हूँ मेरी तलवार इन विधर्मियो के सर पर गिरती रहेगी।
पातल व पीथल
अरे घास री रोटी ही जद बन बिलावड़ो ले भाग्यो।
नान्हो सो अमर्यो चीख पड्यो राणा रो सोयो दुख जाग्यो।
हूं लड्यो घणो हूं सह्यो घणो मेवाड़ी मान बचावण नै,
हूं पाछ नहीं राखी रण में बैर्यां री खात खिडावण में,
जद याद करूँ हळदीघाटी नैणां में रगत उतर आवै,
सुख दुख रो साथी चेतकड़ो सूती सी हूक जगा ज्यावै,
पण आज बिलखतो देखूं हूँ जद राज कंवर नै रोटी नै,
तो क्षात्र-धरम नै भूलूं हूँ भूलूं हिंदवाणी चोटी नै
मैं’लां में छप्पन भोग जका मनवार बिनां करता कोनी,
सोनै री थाल्यां नीलम रै बाजोट बिनां धरता कोनी,
अै हाय जका करता पगल्या फूलां री कंवळी सेजां पर,
बै आज रुळै भूखा तिसिया हिंदवाणै सूरज रा टाबर,
आ सोच हुई दो टूक तड़क राणा री भीम बजर छाती,
आंख्यां में आंसू भर बोल्या मैं लिखस्यूं अकबर नै पाती,
पण लिखूं कियां जद देखै है आडावळ ऊंचो हियो लियां,
चितौड़ खड्यो है मगरां में विकराळ भूत सी लियां छियां,
मैं झुकूं कियां ? है आण मनैं कुळ रा केसरिया बानां री,
मैं बुझूं कियां ? हूं सेस लपट आजादी रै परवानां री,
पण फेर अमर री सुण बुसक्यां राणा रो हिवड़ो भर आयो,
मैं मानूं हूँ दिल्लीस तनैं समराट् सनेशो कैवायो।
राणा रो कागद बांच हुयो अकबर रो’ सपनूं सो सांचो,
पण नैण कर्यो बिसवास नहीं जद बांच नै फिर बांच्यो,
कै आज हिंमाळो पिघळ बह्यो कै आज हुयो सूरज सीतळ
कै आज सेस रो सिर डोल्यो आ सोच हुयो समराट् विकळ,
बस दूत इसारो पा भाज्यो पीथळ नै तुरत बुलावण नै,
किरणां रो पीथळ आ पूग्यो ओ सांचो भरम मिटावण नै,
बीं वीर बांकुड़ै पीथळ नै रजपूती गौरव भारी हो,
बो क्षात्र धरम रो नेमी हो राणा रो प्रेम पुजारी हो,
बैर्यां रै मन रो कांटो हो बीकाणूँ पूत खरारो हो,
राठौड़ रणां में रातो हो बस सागी तेज दुधारो हो,
आ बात पातस्या जाणै हो घावां पर लूण लगावण नै,
पीथळ नै तुरत बुलायो हो राणा री हार बंचावण नै,
म्है बाँध लियो है पीथळ सुण पिंजरै में जंगळी शेर पकड़,
ओ देख हाथ रो कागद है तूं देखां फिरसी कियां अकड़ ?
मर डूब चळू भर पाणी में बस झूठा गाल बजावै हो,
पण टूट गयो बीं राणा रो तूं भाट बण्यो बिड़दावै हो,
मैं आज पातस्या धरती रो मेवाड़ी पाग पगां में है,
अब बता मनै किण रजवट रै रजपती खून रगां में है ?
जंद पीथळ कागद ले देखी राणा री सागी सैनाणी,
नीचै स्यूं धरती खसक गई आंख्यां में आयो भर पाणी,
पण फेर कही ततकाळ संभळ आ बात सफा ही झूठी है,
राणा री पाघ सदा ऊँची राणा री आण अटूटी है।
ल्यो हुकम हुवै तो लिख पूछूं राणा नै कागद रै खातर,
लै पूछ भलांई पीथळ तूं आ बात सही बोल्यो अकबर,
म्हे आज सुणी है नाहरियो स्याळां रै सागै सोवै लो,
म्हे आज सुणी है सूरजड़ो बादळ री ओटां खोवैलो;
म्हे आज सुणी है चातगड़ो धरती रो पाणी पीवै लो,
म्हे आज सुणी है हाथीड़ो कूकर री जूणां जीवै लो
म्हे आज सुणी है थकां खसम अब रांड हुवैली रजपूती,
म्हे आज सुणी है म्यानां में तरवार रवैली अब सूती,
तो म्हांरो हिवड़ो कांपै है मूंछ्यां री मोड़ मरोड़ गई,
पीथळ नै राणा लिख भेज्यो आ बात कठै तक गिणां सही ?
पीथळ रा आखर पढ़तां ही राणा री आँख्यां लाल हुई,
धिक्कार मनै हूँ कायर हूँ नाहर री एक दकाल हुई,
हूँ भूख मरूं हूँ प्यास मरूं मेवाड़ धरा आजाद रवै हूँ
घोर उजाड़ां में भटकूं पण मन में मां री याद रवै,
हूँ रजपूतण रो जायो हूं रजपूती करज चुकाऊंला,
ओ सीस पड़ै पण पाघ नही दिल्ली रो मान झुकाऊंला,
पीथळ के खिमता बादल री जो रोकै सूर उगाळी नै,
सिंघां री हाथळ सह लेवै बा कूख मिली कद स्याळी नै?
धरती रो पाणी पिवै इसी चातग री चूंच बणी कोनी,
कूकर री जूणां जिवै इसी हाथी री बात सुणी कोनी,
आं हाथां में तलवार थकां कुण रांड़ कवै है रजपूती ?
म्यानां रै बदळै बैर्यां री छात्याँ में रैवैली सूती,
मेवाड़ धधकतो अंगारो आंध्यां में चमचम चमकै लो,
कड़खै री उठती तानां पर पग पग पर खांडो खड़कैलो,
राखो थे मूंछ्याँ ऐंठ्योड़ी लोही री नदी बहा द्यूंला,
हूँ अथक लडूंला अकबर स्यूँ उजड्यो मेवाड़ बसा द्यूंला,
जद राणा रो संदेश गयो पीथळ री छाती दूणी ही,
हिंदवाणों सूरज चमकै हो अकबर री दुनियां सूनी ही।
उपरोक्त प्रसंग के बारे में पृथ्वीराज जी व उनकी पत्नी भटयानी जी के बीच जो सवांद हुआ वह भी काफी रोचक व महत्व पूर्ण है। जब भटियाणी जी चम्पादे को यह मालुम पड़ा कि उनके पति व बादशाह में विवाद हुआ है ,तो उन्होंने एक दोहा लिख कर उनको भेजा -
पति जिद कि पातशाह सूं ,येम सुणी मई आज।
कंह अकबर पातल कंह ,कीधो बड़ो अकाज।।
राणी भटियाणी को आश्वस्त करते हुए कवी ह्रदय पृथवीराज ने कहा :-
जब ते सुने हैं बैन तबत्ते न मोको चैन।
पाती पढ़ नेक वो विलम्ब न लगावेगो।।
लेके जमदूत से समस्त रजपूत आज।
आगरा में आठों याम ऊधम मचावेगो।।
कहे पृथ्वीराज प्रिया नेक ऊर धीर धरो।
चरंजीवी राणाश्री मलेच्छन भगावेगो।।
मन को मरद मानी परबल्ल प्रतापसी।
बब्बर ज्यों तड़फ अकबर पे आवेगो।।
बहुत खूबसूरत और भावुक रचनाएँ
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद हुकम ! जय एकलिंगनाथ जी की सा
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