Saturday, August 23, 2014

राठोड़ दुर्गादास

दुर्गादास राठोड का जन्म १३ अगस्त ,१६३८ ई के दिन आसकरण जी की भटियाणी ठकुराणी के गर्भ से सालवा ग्राम में हुआ। इनकी माता जयमल केलणोत भाटी की पोती थी। जिसकी वीरता के किस्से उस काल प्रसिद्ध थे। परन्तु दुर्भाग्यवश यह बहादुर  भाटी महिला एक आज्ञाकारी गृस्वामिनी सिद्ध न हो सकी। गृह कलह से बचने के लिए आसकरण जी ने माँ -बेटे के रहने व गुजारे की व्यवस्था लुणवा गाँव में करदी। दुर्गादास अपनी माँ की ही तरह बड़े साहसी व इरादे के पक्के थे।
      संयोगवश सन १६५५ ई की एक घटना ने अचानक दुर्गादास के जीवन व भाग्य को बिल्कुल बदल दिया। इन्हे महाराजा जसवंत सिंह के सामने उपस्थित होने का अवसर मिला। गुणग्राही महाराजा ने इनमे छिपी प्रतिभा को पहचान कर अपने पास रख लिया। 
    १६५८ ई के धरमाट के युद्ध में दुर्गादास ने अद्वितीय वीरता का प्रदर्शन किया। इस युद्ध के प्रत्यक्ष दृष्टा कुम्भकर्ण सांदू ने 'रतन रासो ' में लिखा है :-" दुर्गादास राठोड ने एक के बाद एक चार घोड़ों की सवारी की और जब चारों एक एक कर मारे गये तो अंत में वह पांचवे घोड़े पर सवार हुआ लेकिन यह पांचवा घोडा भी मार गया। तब तक न केवल उसके सारे हथियार टूट चुके थे बल्कि उसका शरीर भी बुरी तरह घायल हो चूका था। अंततः वह भी रणभूमि में गिर पड़ा। ऐसा लगता था जैसे एक और भीष्म शर शैया पर लेटा हुआ हो। जसवंत सिंह के आदेश से घायल दुर्गादास को युद्ध क्षेत्र से हटा लिया गया और जोधपुर भेज दिया गया। "
       दुर्गादास का असली चरित्र जसवंत सिंह जी की मृत्यु के उपरान्त सामने आता है। महाराजा जसवंत सिंह जी की मृत्यु  खैबर दर्रे के पास जमरूद के कैंप में हुयी उस समय उनकी आयु ५२ वर्ष थी। इस समय उनका कोई भी ओरस पुत्र जीवित नही था। परन्तु दो रानियां -रानी जादमन जी व नरुकी जी गर्भवती थी। १९ फ़रवरी ,१६७९ ई को रानियों ने लाहोर के मुकाम पर दो राजकुमारों को जन्म दिया। बड़े का नाम अजित सिंह व छोटे का दलथम्भन रखा गया। 
    जसवंत सिंह की निसंतान  मृत्यु के तुरंत बाद ही जोधपुर को खालसा कर लिया गया था। मारवाड़ में जगह जगह मुगलो के थाने बैठा दिए गए। खुद ओरंगजेब अजमेर में डेरे डाले हुए था। जब उसे अजमेर में राजकुमारों के जन्म की खबर मिली तो उसने व्यंग में कहा -"आदमी कुछ सोचता है ओर खुदा उससे ठीक उल्टा करता है।" और उसने आदेश दिया की राजकुमारों को  मुग़ल बादशाह के हरम में रखे जाकर लालन पालन किया जायेगा। यह प्रस्ताव कुटिलता पूर्वक राजकुमारों को मुसलमान बनाने का था जिस से जोधपुर पर बिना कठिनाई के मुस्लिम धर्म थोपा जा सके।
    लाहोर से रानियां ,राजकुमार व जोधपुर का दल दिल्ली पंहुचा तो पहले तो ये जोधपुर हवेली में ठहरे किन्तु जल्दी ही हवेली खाली करने का आदेश दे दिया गया। उसके बाद ये किसनगढ़ के राजा रूप सिंह की हवेली में चले गए। यहां दुर्गादास राठोड ,राठोड रणछोड़दास ,भाटी रघुनाथ ,राठोड रूप सिंह आदि ने राजकुमारों को चुपके से दिल्ली से निकालने की योजना बनाई। बलूंदा के ठाकुर मोहकम सिंह के दूध पीते बच्चे से राजकुमारों को बदला गया व मुकन्ददास खींची व मोहकम सिंह राठोड ने राजकुमारों को दिल्ली से बाहर निकाल लिया।
   राजकुमारों को व रानियों को दिल्ली से बाहर निकालना बड़ा दुस्साहस पूर्ण कार्य था। हिंदुस्तान की सत्ता के शीर्ष केंद्र से रक्त रंजित संघर्ष के बाद ये लोग मारवाड़ पंहुच गये। इस लोमहर्षक संघर्ष की गाथा इस छोटे से लेख में सम्भव नही है।
        सर यदुनाथ सरकार लिखते हैं - "स्वामिभक्त राठोड सरदार ओरंगजेब के प्रस्ताव पर हक्का बक्का रह गये। उनके धर्म की छल कपट से नष्ट किये जाने का संकट भी पैदा हो गया था। शिशु राजकुमारों का जीवन लालची और धर्मांध संरक्षकों के हाथ में सुरक्षित नही था। सरदारों ने अपने स्वामी के उत्तराधिकारी की रक्षा में अंतिम सिपाही तक लड़ने का निश्चय किया। किन्तु राठोड शूरवीरता के पुष्प दुर्गादास के मार्गदर्शन के बिना राजपूतों की भक्ति और शूरवीरता भी शायद किसी काम न आती। "
       दुर्गादास ने जसवंत सिंह की मृत्यु के पश्चात मारवाड़ को मुग़ल साम्राज्य में विलीनीकरण से बचाया ,अजित सिंह को दिल्ली से निकाल कर सुरक्षित मारवाड़ पंहुचाया व् लम्बे संघर्ष के बाद जोधपुर का राज्य वापस दिलाया। मेवाड़ व मारवाड़ की कटुता को समाप्त कर के महाराणा राज सिंह से संधि की। ओरंगजेब के पुत्र अकबर को विद्रोह के लिए उत्तेजित कर मुग़ल साम्राज्य की दमनकारी शक्ति का विभाजन किया। अकबर को दक्षिण में लेजाकर मराठों व राठोड़ों के बीच गठबंधन का प्रयत्न किया।
         दुर्गादास का जीवन चरित्र मारवाड़ के इतिहास में ही नही अपितु मध्यकालीन भारत के इतिहास में प्रेरणा स्त्रोत के रूप में माना जाता है। वे साहस ,वीरता त्याग ,स्वामिभक्ति एवं देशप्रेम की भवन से ओतप्रोत थे।
     सोलहवीं व सत्रहवीं सताब्दी में राजस्थान में दो महानायक पैदा हुए जिनका देश प्रेम ,वीरता बलिदान व त्याग अविस्मरणीय है। एक हिन्दुवा सूर्य महाराणा प्रताप व दूसरे राठोड दुर्गादास। (इन दोनों के समय में करीब १०० साल का अंतर है ) महाराणा के पास राज्य था वे मेवाड़ के स्वामी थे। वहीँ दुर्गादास एक साधारण राजपूत जिस के पास न राज्य व न अधिकार (authority) . था तो केवल देश प्रेम व मुगलों को मारवाड़ से बाहर निकाल ने की प्रबल इच्छा। और इसीलिए आज भी यह दोहा जन -जन की जबान पर चढ़ा हुआ है -

         माई एहड़ा पूत जण ,जेहड़ा दुर्गादास।
          मार मँड़ासो थामियो ,बिण थाम्बे आकास।।

हे माताओ ! तुम दुर्गादास जैसे पुत्र को जन्म दो जिसने सिर  दुमाला बाँध कर अकेले ही बिना खम्बो के आकाश को अपने सिर पर थाम लिया।

यही नही आम जन भी सामूहिक गान में गा उठता है -

    ढंबक ढंबक ढोल बाजे ,देदे ठोर नागारां की।
    आसा घर दुरगो नही होतो ,सुन्नत होती सारां की।






1 comment:

  1. वीरत्व व स्वामीभक्ति को प्रणाम।

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